(समकालीन भारतीय पत्रकारिता में 'राहुल पंडिता' प्रतिबद्धता की पत्रकारिता से जुड़ा एक महत्वपूर्ण नाम है. ढेर सारे मीडिया संस्थानों में काम करने के बाद इन दिनों वे अंग्रेजी की साप्ताहिक पत्रिका ओपन में एसोसिएट एडिटर के तौर पर कार्यरत हैं. इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मास कमुनिकेशन के हालिया बैच के छात्र आनंद दत्ता ने राहुल पंडिता से उनके पत्रकारिता के सफर के साथ ही माओवादी आंदोलन और कुछ अन्य विषयों पर बातें की. एक अनुभवी, प्रतिबद्ध पत्रकार से एक ताज़ा तरीन पत्रकार (पत्रकारिता के छात्र) की मुलाक़ात में उत्सुकता के जो प्रश्न फूटे हैं, वे प्रश्न, और उनके ज़वाब praxisके पाठकों के लिए... - मॉडरेटर)
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राहुल पंडिता |
इंडियन एक्सप्रेस, आज तक, जी न्यूज़, और अब ओपन, कैसा रहा है ये सफ़र अब तक ?
देखिये, टेलीविजन मैंने एक ऐसे दौर में शुरू किया जब देश में चौबीस घंटे का न्यूज़ चैनल का माहौल नहीं था। टेलीविजन हालाँकि रिपोर्टिंग के लिहाज से बहुत अच्छा मीडियम नहीं रहा है, लेकिन एक सशक्त माध्यम ज़रूर है। एस पी सिंह के समय में अच्छी पत्रकारिता होती थी, और उन्ही को देखकर हमको लगा की टेलीविजन में आना चाहिए। उस वक़्त मैंने जी न्यूज़ ज्वाइन किया था, जो कि एक मनोरंजन चैनल था, जिसमे आधे घंटे की एक बुलेटिन आती थी। पत्रकारों में होड़ लगी रहती थी की हमारी स्टोरी चले। ऐसे में यदि हमने एक दो मीनिंगफुल स्टोरी कर ली तो वो बहुत थी। लेकिन जैसे-जैसे टेलीविजन न्यूज़ का कारवां बढ़ता गया, इसमें बाजारूपण और छिछोरापन बहुत ज्यादा आ गया। ऐसे माहौल में हम जैसे लोगों के लिए काम करना मुहाल हो गया। वैसे जब हम पत्रकारिता ज्वाइन करने आये थे तो एक कहावत थी कि लड़का यदि रिपोर्टर है तो वो पहली स्टोरी हमेशा एक झुग्गी से करना चाहता है, और लड़की रिपोर्टर है तो वो रेड लाइट एरिया से। क्योंकि उनमे जज्बा होता था।
सबसे ज्यादा काम करने का मौका किसने दिया ?
टेलीविजन में रहकर मैंने इराक, कारगिल, कश्मीर और नक्सली इलाकों में जा कर काम किया। उसके बाद मैंने एक ऐसे दौर में टेलीविजन को अलविदा कहा जब काफी सारे वरिष्ठ प्रिंट पत्रकार टीवी में काम करने लगे थे। उन्हें दिखने लगा की यहाँ बहुत जल्दी मशहूरी होती है। उनसे छोटे लड़के-लड़कियां उनसे ज्यादा सैलरी ले रहे थे। उन्हें एक आइडेंटिटी क्रायसिस होने लगा था। लेकिन मेरे साथ इस तरह की कोई दिक्कत नहीं थी। 2006 में मैंने टेलीविजन को अलविदा कहा। लेकिन सबसे ज्यादा मीनिंगफुल काम मैंने ओपन के लिए किया है। यहाँ मुझे लॉन्ग फोर्मेट जर्नलिज्म करने का मौका मिला। जहाँ स्पेस की कोई दिक्कत नही है।
दी एब्सेंट स्टेट, सलाम बस्तर और अब कश्मीर से सम्बंधित किताब। क्या आप मानते हैं की पत्रकारिता की वजह से ये सब हो पा रहा है ?
जी हाँ, मैंने घूमने का काम बहुत किया है। मैंने दिल्ली की रिपोर्टिंग कभी नही की है। दिल्ली में एक कुँए के मेंढक जैसी मनोस्थिति बन जाती है। जब आप संसद, नार्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक से रिपोर्टिंग करते हैं तब अपने आप को बहुत बड़ा बादशाह समझने लगते हैं। कुछ खास टर्मिनोलॉजी का इस्तेमाल करते हैं, जैसे बैलेंसिंग जर्नलिज्म, न्यूट्रेलिटी। लेकिन जब आप बस्तर जैसे इलाके में रिपोर्टिंग करने जाते हैं तब आपको असली सच्चाई का अंदाजा लगता हैं। इसीलिए दिल्ली से बाहर जाना बहुत जरूरी है।
आप के अलावा और कौन लोग हैं जो ऐसे इलाकों में काम कर रहे हैं ?
बहुत लोग हैं जो ऐसे मीनिंगफुल काम कर रहे हैं।
कुछ का नाम लेना चाहेंगे ?
जी बिलकुल। हमारे सहयोगी हैं अमन सेठी, टाइम्स ऑफ इंडिया के सुप्रिया शर्मा, बीबीसी के सलमान रावी हैं जो लगातार इन इलाकों में काम कर रहें हैं।
अपनी पुस्तक सलाम बस्तर में आपने लिखा है कि माओवादियों के नए लड़ाके नक्सलवादी कम, माओवादी ज्यादा हैं। इसको स्पष्ट करेंगे ?
मुझे लगता है कि नक्सलवादी और माओवादी में हल्का सा फर्क है। पुराने धारा के लोग, जो विचारधारा के स्तर पर ज्यादा मजबूत थे, वो नक्सली हैं और नए लड़ाके जो हैं वो माओवादी हैं। आज माओवादीयों में विचारधारा का पतन तो मैं नही कहूँगा लेकिन फोकस में जरूर कमी आई है। सीपीआई माओवादी बहुत तेजी से बदल रही है। पिछले कुछ महीनो में जो मैंने महसूस किया है को जो अपने आप को इस तथाकथित मूवमेंट में झोंक दिया है, उससे वे किसी - न - किसी रूप में भटक रहे हैं। उनके अन्दर ही सवाल उठाये जा रहे हैं। पांडा जो उनके बीच हैं, वही लीडरशिप को लेकर सवाल उठा रहे हैं। उनको "ब्रश अंडर द कारपेट" नही कर सकते हैं। ये सवाल बड़े प्रश्न के रूप में उनके सामने खड़े हैं। आइडियोलॉजिकली भटकने की निशानी दिख रही है। लोग टूट रहे हैं।
व्यक्तिगत तौर पर आप उनसे कहाँ सहमत और असहमत हैं ?
(थोडा हँसते हुए) ....सहमत या असहमत होने का सवाल नहीं है। एक पत्रकार हमेशा धारा से हटकर काम करता है। लेकिन देश जिस काल से गुजर रहा है इसे में आज ये जरूरी है कि पत्रकार एक स्टैंड ले। क्यूंकि वह भी एक आदमी है, सोसायटी का हिस्सा है, और मैं कभी स्टैंड लेने से चूका नही। इसीलिए मैं ये मानता हूँ कि कई जगह ऐसे हैं जहाँ स्टेट की कोई मौजूदगी नही है। एक खालीपन है जो स्टेट ने छोड़ रखा है। लोग भूख और बदहाली से ग्रस्त हैं। उसी स्पेस को माओवादियों ने भरा है। जो काम स्टेट को करना चाहिए वो माओवादी कर रहे हैं। यहाँ तक तो मैं उनसे सहमत हूँ। लेकिन जब हिंसा की बात आती है, जैसे किसी ग्रामीण को, पुलिस इनफॉर्मर को मारना, तो यहाँ मैं उनसे पूरी तरह असहमत हूँ।
मीडिया के लिए प्रोडक्ट माओवादी हैं या माओवादी आन्दोलन ?
देखिये अलग-अलग विचारधारा के लोग हैं। कई लोगों के लिए कोई फर्क नही है एक आतंकवादी जो एलओसी पर मारा जाता है और नक्सली जो बस्तर के जंगलों में मारा जाता है। लेकिन हमने अपने काम के दौरान एक फर्क जो इन दोनों के बीच मौजूद हैं उसे महसूस किया है। आतंकवादी के लिए देश का खात्मा ही एकमात्र उद्देश्य है। जैसे कश्मीर की अगर हम बात करें तो उनके लिए वो एक मूवमेंट नही है, वो एक जेहाद चला रहे हैं। करोड़ों रुपैये की हवाला सम्पति उनके पास है।
इतनी सम्पति तो माओवादियों के पास भी है
माओवादियों के पास कोई सम्पति नही है। जहाँ तक मैंने उन्हें जाना है। क्यूंकि माओवादी और उनके नेता दोनों ही उन्ही जंगलों में रहते हैं, जहाँ उनका काडर रहता है। आपको फर्क करना होगा। ये सम्पति सीपीएम माओवादी की सम्पति है। जो ये रंगदारी या वसूली से जमा करते हैं। उनका इस्तेमाल हथियार खरीदने में करते हैं। मैं यहाँ निंजी सम्पति की बात कर रहा हूँ। कश्मीर में जो राजनीती -आतंकवाद का जो गठबंधन है उसमे लोगों ने निजी सम्पति हवाला के जरिये बनाया है। उन्होंने अपना बिजनेस अम्पायर खड़ा कर लिया है। आमतौर पर मेरे अनुभव से माओवादी के साथ ऐसा नही है। उनके पास पैसा है, जिसका ज्यादा हिस्सा पार्टी में ही खर्च करते हैं। 12000 काडर हैं, लाखों लोग उनसे जुड़े हैं, उनका नेटवर्क है, इन सब में उनका पैसा खर्च होता है।
विदेशी मीडिया इसे किस रूप में देखती है ?
विदेशी मीडिया को पहले इसकी समझ नही थी। अब ग्लोबलाइजेशन के बाद विदेशों में भारत की जो छवि है वो एक हाथी जैसी है जो मदमस्त चाल से चल रहा है। फास्टेस्ट ग्रो है, इतने सारे अरबपति हैं। लेकिन एक भारत है जो इस विकास, इस नेहरु पंचवर्षीय योजना से बाहर है। जाहिर है जब विदेशी मीडिया को इस तरह के विरोधाभास देखने को मिलते हैं तो वो इस पर भी बात कर रहे हैं। 2004 - 05 के बाद से भारत पर काफी फोकस कर रहे हैं।
खबरों को लेकर उनका क्या दृष्टिकोण होता है ?
मेन एंगल उनका ये रहता है कि एक देश जहाँ इकॉनमी बढ़ रही है, दिल्ली जैसे महानगर में इतने मॉल हैं। लेकिन एक जगह है जहाँ भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी है और वहां एक वर्ग है जहाँ क्रन्तिकारी इस पर काम कर रहे हैं। जहाँ कई जगह सामानांतर सरकारें चल रही हैं।
आप उनसे किस भाषा में संवाद करते हैं ?
नक्सली लीडरशिप तो हिंदी और इंग्लिश दोनों ही भाषाओँ में बात करती है। कम से कम हिंदी में तो करते ही हैं। ग्रासरूट काडर टूटी-फूटी हिंदी बोलता है। लेकिन जब आप इन ग्रासरूट काडरों से घुलते - मिलते हैं, इनसे मित्रता बढ़ाते हैं, इनके कैम्प का हिस्सा बनते हैं, तब वे खुलकर बात करते हैं। ये वो क्षण है जो पत्रकारिता के लिए बड़े ही अनूठे होते हैं।
किशन जी की जगह नए कमांडर कादरी सत्यानारण राव उर्फ़ कोसा को नियुक्त किया गया है। कभी मुलाकात हुई है उनसे आपकी ?
जी ....जी ....(थोडा हँसते हुए) हाँ हुई है।
मीडिया के आलावा आपके पास कोई खबर जो आप बताना चाहेंगे ? क्यूंकि इन्हें दंतेवाडा का मास्टर माइंड भी कहा जाता है .....
कोसा बस्तर में थे। फ़िलहाल मेरा उनसे कुछ दिनों से संपर्क नही है। वे बहुत ही अनुभवी और पुराने लीडर हैं। अनुभवी का मतलब, मैं ये दावे के साथ नहीं कह सकता हूँ कि दंतेवाडा हमले में उनका हाथ हो सकता है।
क्या कोई दूसरी अनुराधा गाँधी काम कर रही हैं ?
(फिर से हँसते हुए) ....बहुत सारे लोग हैं जो बस्तर, उड़ीसा, झारखण्ड में काम कर रहे हैं। काफी पढ़े-लिखे लोग हैं। पुलिस को उनके बारे में पता तक नही है। अनुराधा तो अभूतपूर्व प्रतिभा की धनी थी। उनके जैसा या आजाद जैसे लीडर की क्षतिपूर्ति करना माओवादी के लिए फ़िलहाल संभव नही है।
केजरीवाल साब की 'पत्रकारिता' को कैसे देखते हैं ?
मैं ज्यादा इम्प्रेस नही हूँ उनसे। लेकिन जब सोसाइटी में इतना भ्रष्टाचार का दौर चल रहा है, किसी भी बड़ी से बड़ी घटना के हम अभ्यस्त हो चले हैं, ऐसे में किसी भी रूप में परिवर्तन को मैं फायदा ही मानता हूँ। पिछले कुछ हफ़्तों में जो उन्होंने किया है वो ठीक है, लोकतंत्र की मोटी चमड़ी में सुई चुभना चाहिए।
पत्रकारिता में जो नए लोग आ रहे हैं, जो आप जैसों की तरह काम करना चाहते हैं, उनके लिए क्या कहना चाहेंगे ?
मैं तीन बातें कहना चाहूँगा। पहला ये की वो पत्रकारिता को करियर मान कर न आयें। कोई यदि ग्लैमर के लिए आ रहा है तो इससे बड़ी शर्मनाक बात कुछ नही हो सकती है। दूसरा - युवावर्ग में एक साधारण लापरवाही का माहौल देख रहा हूँ मैं कि वो अख़बार नही पढ़ते। बेसिक कमजोर है उनका। मेरी गुजारिश है उनसे कि कम से कम दो अख़बार रोज जरूर पढ़ें। तीसरा मैं भाषा को लेकर कहना चाहूँगा की भविष्य द्विभाषी का है। इसीलिए हिंदी और इंग्लिश के बीच की जो खाई है उसे कम करना होगा। और मैं उम्मीद करता हूँ की वे इस बात को जरूर समझेंगे।
बात करने के लिए बहुत - बहुत धन्यवाद् सर।
मुझे भी बहुत मजा आया आपसे बात कर के .....
आनंद आईआईएमसी में पत्रकारिता के छात्र हैं. फोटोग्राफी का भी शौक रखते हैं.