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राजेन टोडरिया : एक लड़ाकू पत्रकार का राजनीतिक भटकाव

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-इन्द्रेश मैखुरी
Indresh Maikhuri
इन्द्रेश मैखुरी

 "...शिमला से उनके वापस लौटने के बाद हम एक दुसरे ही राजेन टोडरिया को देखते हैं. उस राजेन टोडरिया को जो वामपंथ की बात तो करता हैअपने वामपंथी होने का हवाला भी देता हैलेकिन उग्र पहाड़ीवाद और अन्धक्षेत्रियतावाद से भी लबरेज है. ये वो राजेन टोडरिया है जो वामपंथ के जुडाव के दौर में पढ़े गयी रसूल हमजातोव की पुस्तक -मेरा दागिस्तान- का बार-बारलगभग हर बार हवाला देता हैलेकिन अपना नायक और नायकत्व उसे राज ठाकरे और उसकी उन्मादी राजनीति में ही नजर आता है..."

राजेन टोडरिया
क ऐसा व्यक्ति अचानक गुजर जाएजिसके साथ हाल के दिनों में आपके तीखे वैचारिक मतभेद रहे हों और बेहद तीखी बहस में आप रहे होंतो उनके बारे में कैसे लिखा जाएभारतीय परम्परा यह है कि मृत्युपरांत व्यक्ति के बारे में सब अच्छा ही बोला और लिखा जाता है. एक रास्ता यह भी है कि जब हमारा इतना झगड़ा था तो लिखा ही क्यूँ जाएपर झगड़ा कोई व्यक्तिगत तो था नहींवैचारिक था. इसमें वे एक धारा के प्रतिनिधि थे और मैं एक विचारधारा का. मैं बात कर रहा हूँ  5 फरवरी  2013 को इस दुनिया से रुखसत हुए प्रख्यात पत्रकार राजेन टोडरिया जी की.

राजेनटोडरिया को मैंने सबसे पहले देखा 1995 या संभवत:1996 रहा होगा. पुराना टिहरी तब ज़िंदा थाडुबोए जाने का इन्तजार करता हुआ और नयी टिहरी गतिविधियों का केंद्र बन चुका था. उत्तरकाशी से डा.नागेन्द्र जगूड़ी के कहने पर मैं नयी टिहरी गयाराजेन टोडरिया द्वारा शराब के खिलाफ चलाये जा रहे आंदोलन के जुलूस में शामिल होने. पहली बार नयी टिहरी भी देखा और राजेन टोडरिया को भी. उनका लिखा तो अमर उजाला में पढते ही थे. शब्दों का महीन जाल वे माहिर कारीगर की तरह बुनते थे और इस कारीगरी से लोग मोहित भी होते,प्रभावित भी. मैं  बी.ए. का विद्यार्थी था और ऐसे सामाजिक जीवन जीने वाले लोगों को देख कर चमत्कृत रहता था,टोडरिया जी को देख कर भी हुआ.


राजेनटोडरिया लंबे अरसे तक टिहरी में अमर उजाला के ब्यूरो चीफ रहे. वे शायद इस देश में इकलौते सरकारी कर्मचारी होंगे जो कि दैनिक अखबार की पत्रकारिता भी करते थे या फिर यूँ कहें कि इकलौते पत्रकार थेजो दैनिक अखबार की पत्रकारिता में बिना अपना सरकारी नौकरी वाला चोला उतारे ही, चले आये थे. सरकारी नौकरी और पत्रकारिता को एक साथ साधने के लिए ही स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करने वाले राजेंद्र टोडरिया,पत्रकारिता जगत में एस.राजेन टोडरिया हो गये.एस. यानि स्मिता जो कि उनकी पत्नी का नाम था. स्त्रियों को पतियों का नाम अपने नाम के साथ जोड़ते देखा थापरन्तु अपनी पत्नी का नाम, अपने नाम के आगे जोड़ते हुए (उसके पीछे व्यावसायिक मजबूरी ही क्यूँ ना हो)किसी और पुरुष को तो मैंने नहीं देखा.

राजेनटोडरिया ने लगभग बत्तीस वर्षों तक पत्रकारिता की. इस दौरान वे शिमला में अमर उजाला के ब्यूरो चीफ और दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक रहे.

राजेनटोडरिया का कम्युनिस्ट आंदोलन से भी सम्बन्ध रहा था. अस्सी के दशक में भाकपा(माले) द्वारा देश के तमाम प्रगतिशीलवामपंथी रुझान वाले जनसंगठनों को एक मंच पर लाने के लिए इंडियन पीपल्स फ्रंट(आई.पी.एफ.) नामक संगठन बनाया गया. उत्तराखंड से जो लोग आई.पी.एफ.की राष्ट्रीय परिषद में लिए गए,राजेन टोडरिया भी उनमें से एक थे.एक बौद्धिक व्यक्ति के रूप में उनके विकास में वामपंथ के साथ उनके जुडाव ने एक अहम भूमिका निभाई थी.

लेकिनशिमला से उनके वापस लौटने के बाद हम एक दुसरे ही राजेन टोडरिया को देखते हैं. उस राजेन टोडरिया को जो वामपंथ की बात तो करता हैअपने वामपंथी होने का हवाला भी देता हैलेकिन उग्र पहाड़ीवाद और अन्धक्षेत्रियतावाद से भी लबरेज है. ये वो राजेन टोडरिया है जो वामपंथ के जुडाव के दौर में पढ़े गयी रसूल हमजातोव की पुस्तक -मेरा दागिस्तान- का बार-बार, लगभग हर बार हवाला देता हैलेकिन अपना नायक और नायकत्व उसे राज ठाकरे और उसकी उन्मादी राजनीति में ही नजर आता है. राज ठाकरे मार्का राजनीति के,सब गैर पहाड़ियों को खदेड़ दो का उन्माद पैदा करने की कोशिश में शायद यह बात उनकी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गयी कि जिस- मेरा दागिस्तान-को वे अपनी सबसे प्रिय पुस्तक बताते हैं,उसमें तो कहीं पर भी ना घृणा है और ना ही उन्माद. वो तो दागिस्तान और उसके रहने वालों की, उनके सुख-दुःख और संघर्षों की बेहद खूबसूरत दास्तान है. 'मेरा दागिस्तान' हर बाहरी व्यक्ति को खदेड़ने का तालिबानी फतवा नहीं देती. बल्कि इसके ठीक विपरीत इसके पहले ही पन्ने पर लिखा है:

मेरे घर की अगर उपेक्षा,कर तू जाए राही ,
तुझ पर बादल-बिजली टूटेंतुझ पर बादल-बिजली !
मेरे घर से अगर दुखी मन हो, तू जाए राही,
मुझ पर बादल-बिजली टूटेंमुझ पर बादल-बिजली

कहाँ सब बाहर वालों को खदेड़ने का राज ठाकरे मार्का उन्माद और कहाँ ये अवार जाति की कामना कि यदि कोई मेरे घर से दुखी हो कर जाए तो मुझ पर वज्रपात होइन दोनों का क्या मेल?

रसूलहमजातोव कहता है कि मैं हर जगह खुद को अपने दागिस्तान का विशेष संवाददाता मानता हूँ.” लेकिन साथ ही यह जोड़ना नहीं भूलता कि मगर अपने दागिस्तान में मैं समूची मानवजाति का विशेष संवाददाताअपने सारे देश(यानि रूस)यहाँ तक कि सारी दुनिया का प्रतिनिधि बनकर लौटता हूँ.” (मेरा दागिस्तान,खंड-एक,पृष्ठ-32). कहाँ रसूल हमजातोव की ये व्यापक और खुली दृष्टि और कहाँ राज ठाकरे वाली तंगनजरी. टोडरिया जी देश के दूसरे हिस्से से लौटे थे. उनके पैर रसूल हमजातोव के नक्शेकदम पर भी जा सकते थे. लेकिन जिस लेनिन के क्रांतिकारी विचार ने रसूल हमजातोव को तराशा था,उस लेनिन के विचार को तो वे कबका अलविदा कह चुके थे. इसलिए जबान पर रसूल हमजातोव होते हुए भी उन्होंने रास्ता राज ठाकरे वाला ही पसंद आया.

टोडरियाजी टिहरी बाँध विरोधी आंदोलन में भी सक्रीय रहे थे. लेकिन पिछले कुछ सालों से वे जलविद्युत परियोजनाओं के आक्रामक समर्थक हो गए थे. एक जमाने में टिहरी को डुबोए जाने के खिलाफ उन्होंने ये बेहतरीन कविता लिखी थी :

किसी शहर को डुबोने के लिए,
काफी नहीं होती है एक नदी,
सिक्कों के संगीत पर नाचते,
समझदार लोग हों,
भीड़ हो मगर बटी हुई,
कायरों के पास हो तर्कों की तलवार,
तो यकीन मानिये,
शहर तो शहर,
यह काफी है,
देश को डुबोने के लिए ।

टिहरीबाँध के खिलाफ कविता में आक्रोश प्रकट करने वाले टोडरिया जी कुछ समय से उन लीलाधर जगूड़ी के साथ जलविद्युत परियोजनाओं के समर्थन में आक्रामक अभियान चलाये हुए थे,जिन्होंने टिहरी को जल्द डुबोए जाने की कामना करती,लंबी उत्सवी कविता लिखी :

बिना डरे इसे डूब जाने दो
कुछ ज्यादा ही धीरे-धीरे डूब रहा है टिहरी
श्रीदेव सुमन को चौरासी दिन और पिचासी रातों में मारा गया था
इसे डूबने में चौरासी महीने और लगें तो भी इसे डूब जाने दो
टिहरी के चेहरे पर पानी आने दो
बिना डरे इसे डूब जाने दो
...................................................
गंगा और भिलंगना के मुहाने पर पहली बार न्याय का संगम हुआ
इसे ऊपर तक छलछलाने दो
..................................................
टिहरी डूबेगा तो देश उबरेगा

यदिआप दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ें तो दोनों कवितायेँ, एक-दूसरे के खिलाफ आमने-सामने खड़ी दिखाई देती हैं. जहां टोडरिया की कविता विकास के विनाशकारी मॉडल को खारिज करती हैवहीँ लीलाधर जगूड़ी की कविता दरअसल किसी कवि से ज्यादा व्यवस्था के पक्के आदमी के उदगार हैंजिसके लिए लोगों काशहरों का डूबना भी उत्सव हैजिस उत्सव को वो बार-बारअधिक से अधिक बार मनाना चाहता है.

विडम्बनादेखिये कि पिछले कुछ सालों में ये दोनों कविता लिखने वाले एक साथ थेहर हाल में परियोजनाएं बनेंकिसी भी कीमत परइस नारे के साथ. टोडरिया की छोटी लेकिन धारधार कविता की धार जगूड़ी की व्यवस्थापरस्ती वाली कविता से लोहा ना ले सकी. दोनों एक ही सुर में-इसको भी डूब जाने दोउसको भी डूब जाने दोये डूबेगा तो उत्तारखंड उबरेगावो डूबेगा तो उत्तराखंड उबरेगा-का सरकारी सपना लोगों को दिखाने  लगे. टोडरिया तो न केवल लीलाधर जगूड़ी से,बल्कि अवधेश कौशल से भी अपने जैसे लड़ाकू तेवरों की उम्मीद कर रहे थे. उन्होंने दोनों से ये घोषणा भी करवा दी कि जलविद्युत परियोजनाएं शुरू ना हुई तो वे 15 अगस्त 2012 को अपनी पद्मश्री वापस लौटा देंगे. पर ये दोनों टोडरिया ना थेजो गलत या सही जो भी होलड़ना जानता था. ये तो व्यवस्था के पाले-पोसे लोग थेजिन्हें छींकने के लिए भी सरकारी सरपरस्ती चाहिए होती हैउनका  जीवन दर्शन लड़ाई नहींजोड़-तोड़ है. इसलिए आज टोडरिया तो दुनिया में नहीं हैं पर पद्मश्री दोनों के पास महफूज है.

उग्र पहाड़ीवाद और आक्रामक परियोजना समर्थन के बीच भी कई और मुद्दों पर टोडरिया जी का रुख बेहद प्रगतिशील था.प्रमोशन में आरक्षण के खिलाफ चले कर्मचारी आंदोलन को उन्होंने अपने लेखों में सवर्णवादी उन्माद करार दिया.ये इसलिए काबिले गौर है क्यूंकि आरक्षण के मामले में तो अच्छे भले प्रगतिशीलों की प्रगतिशीलता धरी रह जाती है और उनके भीतर का सवर्ण उछल कर मैदान में उतर पड़ता है,आरक्षण के बहाने दलितों की ऐसी-तैसी करने. राज ठाकरे के साथ मोर्चा बनाने की खुल्लमखुल्ला घोषणाओं के बावजूद मोदी और मोदी मार्का धर्मान्धता की राजनीति के खिलाफ उन्होंने खूब लिखा. भारत-पाकिस्तान के बीच युद्धोन्माद पैदा करने की कोशिशों की खिलाफत भी उनके लिखे हुए में दिखती है.

यह थोड़ा चौंकाता है कि एक ही व्यक्ति जो कि अच्छा-भला पढ़ा लिखा हैविभिन्न विचारधाराओं और विमर्शों से वाकिफ हैवह एक ही साथ कुछ मामलों में प्रगतिशील और कुछ मामलों में अंधक्षेत्रीयतावादी नजरिया अपनाता है. उत्तराखंड बनने के बाद इस राज्य में संसाधनों की लूट बढ़ी है और जिनके लिए राज्य की बात थीवे सब हाशिए पर हैंये बिलकुल सही बात थी. टोडरिया अगर इस बात को चिन्हित कर रहे थे तो ठीक ही कर रहे थे. लेकिन इसका जो समाधान वो तजवीज कर रहे थेवो दिक्कत तलब था. जिस बाल ठाकरे-राज ठाकरे मॉडल को वे पहाड़ के लिए आवश्यक मान रहे थेवो तो अपने मूल राज्य-महाराष्ट्र में भी संसाधनों पर आम आदमी के अधिकार के लिए नहीं था. वो तो वहाँ के ट्रेड यूनियन आंदोलन को,मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई को नेस्तनाबूद करने के लिए था. ये उस विघटनकारी राजनीति ने कर दिखाया और इसी सेवा के ऋण से उऋण होने के लिए व्यवस्था ने मरने के बाद भी बाल ठाकरे को राजकीय सम्मान बख्शा.

गौर से देखें तो टोडरिया जी का उग्र पहाड़ीवादपहाड़ के संकट के साथ ही उनके अपने अस्तित्व के संकट को भी प्रकट करता था. आखिर एक पढ़े-लिखे और महत्वाकांक्षी व्यक्ति के लिए वर्तमान व्यवस्था में तरक्की काआगे बढ़ने का क्या रास्ता हैसमझदार लोग ये ही समझाते रहते हैं कि आगे बढ़ना है तो विचार कोजनपक्षधरता को खूँटी पर टांग दोतभी कोई बंद दरवाजा खुलेगा. एक पत्रकार जो शासन-सत्ता चलाने वालों को करीब से देखता है और पाता है कि ये तो खोखले और जड़मूर्ख हैं. तो उसके भीतर ये महत्वाकांक्षा जाग ही सकती है कि इस जगह पर तो उसे होना चाहिए. उनकी जगह पाने के लिए वो उनके साथ एकमेव तो नहीं होताअपनी तरह से अपना अलग रास्ता बनाने की कोशिश करता हुआ दिखता हैअपने पर चिपके पुराने वामपंथी लेबल को खुरच-खुरच कर मिटाने की कोशिश भी करता है. लेकिन अफ़सोस अंततः उनका अलग रास्ता भी, उन्हीं जड़मूर्खों की व्यवस्था की सेवा का  रास्ता था. व्यवस्था चलाने वाले कितने ही जड़मूर्ख क्यूँ ना दिखाई  देंअपने बुद्धिमान विरोधियों को अपनी सेवा में लगे नफीस दस्ताने में बदलने में उनका कोई सानी नहीं है.

लड़ाकूहोना एक महत्वपूर्ण गुण हैलेकिन इसके साथ-साथ आप जनता के योद्धा है या फिर व्यवस्था के हाथ की तलवारये जानना भी जरुरी होता है. अफ़सोस टोडरिया जी ये बात तमाम बहसों मेंआपके साथ हो ना सकी और अब कभी हो भी ना सकेगी.
सलाम,आख़री सलाम  .......


इन्द्रेश भाकपा (माले) के सक्रिय कार्यकर्ता हैं. 
इनसे इंटरनेट पर indresh.aisa@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

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