-रजनीश
"...भ्रष्टाचारको "उसकी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद कैसे" की तर्ज़ पर देखने वाले इन लापरवाह समाजशास्त्रियों में इतनी भी क्षमता नहीं कि यह देख सकें कि इस लोकतंत्र के सभी खम्भों में अपने वाजिब हक से महरूम दलित, पिछडे और आदिवासियों के भ्रष्टाचार का "लेवल" कितना बड़ा होगा।..."
आशीष नंदी |
यहीनहीं, इनका बौद्धिक "जमीर" उस वक़्त भी नहीं जागता जब दलित युवकों को "उच्च" जाति की युवतियों से प्यार करने के "जुर्म" में निर्दयता के साथ काट डाला जाता है और दलित, पिछडे और आदिवासी वर्ग की महिलाओं को "डायन" बताकर सरेआम नंगा घुमाया जाता है। इनकी कलम तो तब भी नहीं चलती जब गीतिका और भंवरी जैसी महिलाओं को "अति महत्वाकांक्षी" करार देकर गोपाल कांडाओं और महिपाल मदेरणाओं को सम्मानित "समाज-सेवक" मान लिया जाता है।
भ्रष्टाचारको "उसकी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद कैसे" की तर्ज़ पर देखने वाले इन लापरवाह समाजशास्त्रियों में इतनी भी क्षमता नहीं कि यह देख सकें कि इस लोकतंत्र के सभी खम्भों में अपने वाजिब हक से महरूम दलित, पिछडे और आदिवासियों के भ्रष्टाचार का "लेवल" कितना बड़ा होगा। अपने तर्कों में लालू, मुलायम, मायावती, ए राजा और मधु कोड़ा का नाम रटने वाले ये "मेरिटवादी" समाजशास्त्री अगर ईमानदारी बरत सकते, तो जरूर बता देते कि सामाजिक व्यवस्था पर काबिज प्रभु वर्ग ने दलित-पिछड़ा "उभार" को कुंद करने के लिए कैसे अपने आजमाए हुए "ट्रिक" (याद करें बौद्ध धर्म का हश्र ) के साथ पहले "हितैषी" का नकाब ओढ़कर सत्ता की "मलाई" चाटी और फिर पैरों के नीचे "गड्ढे" खोद दिए। इस "हकीकत" को कुतर्क ठहराने से पहले यह याद रखने की जरूरत है कि अन्याय की ज़मीन पर नैतिकता की फसल नहीं उगा करती।
खैर, "आयोडीन की कमी" की तर्ज़ पर तार्किकता की कमी के शिकार इन "साइंटिस्टों" से यह अपेक्षा तो नहीं ही की जा सकती कि वे इस बात की विवेचना करें कि हिन्दुस्तानी कॉरपोरेट जगत के किस "घराने" ने कितनी "मात्रा" में किसको अपना "नमक" खिलाकर अपना "एम्पायर" बढाया और वंचित जमात, खासकर आदिवासियों, को जड़ से उखड़ने को मजबूर किया है। इन "बुद्धिजीवियों" को मालूम है कि खेल के साथ "खेल" (कामनवेल्थ गेम्स घोटाला ) करनेवाले से लेकर कोयले से अपना हाथ "काला" करनेवाले "उद्यमियों" पर बोलने से ऊँची "उड़ान" भरता उनका "करियर" एक ही झटके में "जमींदोज" हो जायेगा। और तो और, "ईमानदारी" को "प्रोत्साहित" करने के लिए ऐसे "उद्यमियों" द्वारा बांटे जानेवाले कुछ "अवार्ड" तो इन "बुद्धिजीवियों" के "स्टेटस" में चार चाँद ही लगाते हैं।
लेकिनदोस्तों, "लेवल प्लेयिंग फील्ड" से मुकरकर गणतंत्र का "घी" (वो भी कम्बल ओढ़कर) पीना अब कतई संभव नहीं।
रजनीशअंग्रेजी पत्रिका "यूटी वॉयस" के संपादक हैं।
इनसे संपर्क का पता rajps25@gmail.comहै।