जन इतिहासकार डॉ. राम सिंह को श्रद्धांजलि
डॉ. राम सिंह से मेरा परिचय उनके बड़े बेटे भरत (स्व. भारत बंधु) के मार्फ़त हुआ था. हाईस्कूल के आगे की पढ़ाई के लिए मैं 1978 में पिथौरागढ़ पहुंचा था और हमारा परिवार उनके करीब ही रहने लगा. यह संयोग ही था कि एक जैसी रुचियों के कारण हम दोनों के पिताओं की भी अच्छी छनने लगी. हमारे घर के बगल से गुजरने वाली सड़क पर कॉलेज से आते-जाते डॉ. राम सिंह लगभग रोज दिखाई पड़ते थे. वह अकसर खादी का कुर्ता और सफ़ेद धोती पहनते थे. होठों को ढके रहने वाली अधपकी मूंछें उनके चेहरे को और भी ज्यादा गंभीर बना देती थीं. जब उन्हें मैंने पहली बार देखा तो वे मुझे मुंशी प्रेमचंद जैसे लगे थे. वे हमारी किशोरावस्था के दिन थे, जब बेटे अपने पिताओं से थोड़ा दूरी बनाकर चलना पसंद करते हैं. तब मुझे कहाँ पता था कि इस गंभीर मुखमुद्रा के पीछे एक कोमल हृदय नटखट बच्चा भी रहता है.
उन दिनों डॉ. राम सिंह स्थानीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक थे. मेरी बड़ी दीदी उनकी विद्यार्थी थीं और उनके बारे में बताया करती थीं. उनकी कर्मठता के क़िस्से मशहूर थे. आस-पास के लोग कहते थे कि डॉ. राम सिंह ने अपना दो-मंजिला घर खुद अपने हाथों से बनाया है. पता नहीं इस क़िस्से में कितनी सच्चाई थी, मगर जब भी वह घर पर होते तो कठोर श्रम करते हुए उन्हें देखा जा सकता था. शहर में उनका लोहे का एक कारखाना था, जहां अलमारियां, बक्से, गेट, ग्रिल वगैरह बनते थे. कॉलेज के बाद वह सीधे अपने कारखाने पहुंचते और वहां का कामकाज देखते थे.
तब मैं विज्ञान का सामान्य विद्यार्थी था. साहित्य व इतिहास की ओर झुकाव पैदा होना अभी बाकी था. इसलिए डॉ. राम सिंह के व्यक्तित्व के अकादमिक व बौद्धिक आयामों तक दृष्टि नहीं पहुंचती थी. अलबत्ता हम बच्चों के बीच इस बात की चर्चा ज़रूर होती थी कि वह नास्तिक हैं और ईश्वर को नहीं मानते हैं. प्रगतिशील आन्दोलनों से अछूते दूर-दराज इलाके में रहने वाले हमारी उम्र के बच्चों के लिए तब नास्तिकता के मायने और महत्त्व को समझ पाना आसान न था. हमारे लिए यह घोर आश्चर्य की बात थी कि ईश्वर की सत्ता को कोई भला कैसे नकार सकता है!
यह बात बहुत देर से समझ में आई कि डॉ. राम सिंह की नास्तिकता प्रायोजित या चालू फैशन के हिसाब से दिखावे के लिए नहीं थी. मैंने उन्हें किसी की आस्था का मज़ाक उड़ाते हुए कभी नहीं देखा और न ही वह अपनी मान्यताओं का प्रचार करते थे. यह उनका निजी मामला था और वह इसे बड़ी सहजता से जीते व इसकी क़ीमत भी चुकाते थे. उनके बड़े बेटे और होनहार छोटी बेटी की सड़क दुर्घटनाओं में हुई असामयिक मृत्यु के बाद कुछ लोगों ने दबी जुबान में उनकी अनास्था को इसकी वजह बताया. कुछ लोगों ने इसे ईष्ट देवताओं की नाराजगी का परिणाम भी घोषित कर किया. एक पिता के लिए इससे कठिन समय और क्या हो सकता है! लेकिन वह अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से कभी नहीं डिगे.
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डॉ. राम सिंह से मेरा व्यक्तिगत संसर्ग 1992 में उनके बड़े पुत्र भरत के देहांत के बाद शुरू हुआ. इस दौर में मुझे इतिहास सम्बन्धी उनके काम को समझने और उस पर चर्चा करने का भी मौका मिला. यद्यपि वह हिंदी के प्राध्यापक थे लेकिन इतिहास और पुरातत्व में उनकी गहरी दिलचस्पी थी. पुरातात्विक साक्ष्यों को सहेजने के कौशल में भी वह प्रवीण थे. कुमाऊं की पुरातात्विक धरोहरों के कई दुर्लभ प्रमाण मूल अथवा प्रतिकृति के रूप में उनके निजी संग्रह में मौजूद थे. बड़े जतन से उन्होंने न जाने कितने ताम्रपत्रों और शिलालेखों की नक़लें तैयार कीं और उनका अनुवाद किया. यह संग्रह उनके उम्र भर के परिश्रम का परिणाम था. शिलालेखों और ताम्रपत्रों की नक़लें दिखाते वक्त वह यह बताना नहीं भूलते थे कि कैसे उन्हें तैयार किया जाता है.
स्थानीय इतिहास के साक्ष्यों के विश्लेषण की जैसी समझ डॉ. राम सिंह को थी, वैसी उनके समकालीन अन्य स्थानीय इतिहासकारों में कम ही दिखाई देती है. तथ्यों और मिथकों की उलझी हुई ऊन में से इतिहास के तर्कसम्मत रेशों को खींच निकालने का गज़ब का हुनर उनमें था. राग-भागों, पारंपरिक आख्यानों, वीर गाथाओं व जागरों के घने मिथकीय कुहासे के बीच वह वास्तविक इतिहास की धुंधली पगडंडियों को खोज निकालते थे. 'पहाड़'प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उनकी चर्चित पुस्तक- 'राग-भाग काली कुमाऊँ'- में प्राचीन बाणासुर के किले के बारे में उनका यह विश्लेषण गौरतलब है:
"... 'कोट का पय्या'के आधार की प्राकृतिक संरचना ही ऐसी है कि उसे दुर्ग के रूप में विकसित करने का विचार इस उपत्यका में पहले-पहल बसने वाले महत्वाकांक्षी लोगों के मन में यहां प्रविष्ट होने के साथ ही आ गया होगा. इस प्रकार यह उतना ही प्राचीन हो सकता है, जितना इस उपत्यका की उपजाऊ द्रोणी में बसने वालों की बस्तियां. फलतः इनके साथ स्थानीय राग-भाग, पौराणिक कल्पनाओं और इतिहास का अद्भुत सम्मिश्रण हो गया है. कुछ पुरातन को गौरवान्वित करने की इच्छा से प्रेरित पढ़े-लिखे लोग इसे बाणासुर का किला कहने लगे हैं. प्रत्येक स्थान को किसी न किसी पुराण कथा से जोड़कर स्थानीय मूल स्वरूप व इतिहास को मिटा देने की प्रवृत्ति ने इसको बाणासुर का किला घोषित कर दिया है....."
'राग-भाग काली कुमाऊँ'उनकी वर्षों की मेहनत का परिणाम थी. काली कुमाऊँ (वर्तमान जिला चम्पावत) के गांव-गांव पैदल घूमकर वह वहां के बुजुर्गों से उनकी 'राग-भाग'पूछते और मौखिक परंपरा में मौज़ूद सदियों पुराने क़िस्सों को डायरी में नोट करते रहते थे. यह काम उन्होंने 1966 में शुरू किया था, जिसे आखिरकार सदी के अंत में जाकर पुस्तक का आकार दिया. इस काम के साथ-साथ वह लगातार ऐतिहासिक व पुरातात्विक दस्तावेजों को भी इकठ्ठा करते रहे. देखा जाय तो फोकलोर से जन इतिहास बीनने वाले डॉ. राम सिंह अपनी तरह के अनोखे सबाल्टर्न इतिहासकार थे.
ऐसा वह इसलिए कर पाए क्योंकि एक इतिहासकार से संस्कृति के प्रति जिस किस्म की अकादमिक तटस्थता की अपेक्षा की जाती है, वह उनमें कूट-कूट कर भरी थी. आचरण में खांटी पहाड़ी शख्सियत होने के बावजूद डॉ. राम सिंह संकीर्ण क्षेत्रीयतावाद से सर्वथा अछूते रहे. पहाड़ की संस्कृति, लोक और परम्पराओं के क्षरण का अनवरत रोना रोने वाले भावुक बुद्धिजीवियों की उत्तराखंड में कमी नहीं है. लेकिन इन बातों को लेकर डॉ. राम सिंह जैसी समझ कम ही लोगों में होगी. सांस्कृतिक बदलावों पर मैंने कभी भी उन्हें छाती पीटते नहीं देखा. वह मानते थे कि भौतिक जीवन में होने वाले बदलावों के बरक्स संस्कृति स्वाभाविक रूप से बदल जाती है. पिछले दो-तीन दशकों के दौरान हुए वैश्विक बदलावों ने हमारे दूर-दराज के गांवों को भी अपने आगोश में लिया है. हमारी आजीविका और रहन-सहन के तौर-तरीके बदल गए हैं. टेक्नोलॉजी ग्रामीण जीवन के अब तक अछूते हिस्सों तक पहुँच गयी है. ऐसे में भाषा-बोली और परम्पराओं का बदलना लाजमी है. डॉ. राम सिंह इतिहासकार के रूप में इन बातों को गहराई से समझते थे.
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छात्र जीवन में हम उनके बाहरी व्यक्तित्व को देखकर थोड़ा सहम जाते थे. धोती-कुर्ते में सजी लम्बी छरहरी शालीन काया और होंठों को ढकती हुई गहरी मूंछें. लेकिन तब हमें पता नहीं था कि इस गंभीर आवरण के पीछे एक बेहद मज़ाकपसंद किस्सागो छुपा बैठा है. उनकी स्पष्टवादिता और बातें करने का ठेठ सोर्याली अंदाज़ गज़ब का था. पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी वह यदाकदा लिखते थे. लेकिन ये लेख डॉ. राम सिंह के बजाय 'राम जनम परजा'के नाम से छपते थे. एक दिन मैंने उनसे इस तरह छद्म नाम से लिखने की वजह पूछी. उनके आमोदपूर्ण जवाब ने स्थानीय इतिहास को देखने की मेरी दृष्टि ही बदल डाली. वह कहते थे- राम उनका नाम है और यहां के अन्य पढ़े-लिखे लोगों की तरह वह राजवंशी नहीं है बल्कि जन्म-जन्मातरों से 'प्रजा'हैं. यानी उनके पिता और तमाम पूर्वज भी प्रजाजन ही थे. इसलिए वह राम जनम परजा के नाम से लिखते हैं.
उत्तराखंड के अधिकतर भद्रजन उनका मूल स्थान/पुरुष के बारे में पूछे जाने पर बड़े गर्व से बताते हैं कि उनका सम्बन्ध फलां राजा या राज पुरोहित के खानदान से है. मसलन पंडितजी कहेंगे कि वे फलां राजपुरोहितों के वंशज हैं और उनके पुरखे मुग़लों की प्रताड़ना से बचने के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल या राजस्थान से यहां आकर बसे थे. इसी तरह ठाकुर साहबान भी महाराणा प्रताप या किसी और राजपुरुष से अपना सम्बन्ध जोड़ने में देर नहीं लगाते. पहाड़ से पलायन कर गए श्रेष्ठियों का मन तो ऐसी बातों में और भी रमता है. ऊंची शिक्षा और अच्छी पोजीशन वाले उत्तराखंडी इन बातों पर खूब तवज्जो देते हैं. घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध, यानी बाहर से आने वाला श्रेष्ठ ही होता है, यह धारणा हमें अग्रेजों से मिली. इस तर्क के सहारे वे अपनी जातिगत श्रेष्ठता और शासन का औचित्य सिद्ध करते थे. औपनिवेशिक शासन-प्रशासन का हिस्सा बनने वाले पहली पीढ़ी के स्थानीय समुदायों को भी यह तर्क खूब जंचा. उन्होंने खुद को आप्रवासी (और इसलिए श्रेष्ठ) और अपने कमजोर व गरीब सहोदरों को कमतर श्रेणी का स्थानीय बताना शुरू किया. धीरे-धीरे इस धारणा को इतिहास बताकर पेश किया जाने लगा. कालांतर में स्वघोषित इतिहासकारों ने योजनाबद्ध ढंग से इस धारणा को आगे बढ़ाया और अब यह इतनी रूढ़ हो चली है कि आम पर्वतवासी इसे अपनी ऐतिहासिक विरासत मानते हैं.
डॉ. राम सिंह प्रभुत्वशाली जातियों के 'बाहरी'होने की अवधारणा को पूरी तरह अतार्कित और अविश्वसनीय मानते थे. उनके मुताबिक़ ऐसा कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य (प्राचीन शिलालेख, दानपात्र, ताम्रपत्र, बही आदि) उपलब्ध नहीं है जो अतीत के किसी ख़ास कालखंड में बाहरी समुदायों (पड़ोसी नेपाल को छोड़कर) के यहां आ बसने की पुष्टि करता हो. उनका कहना था, अगर ऐसा होता तो खुद को बाहरी बताने वाली कथित ऊंची जातियों के लोग कमतर समझे जाने वाले स्थानीय खस समुदायों के रीति-रिवाजों, पूजा पद्धतियों और भाषा बोली को कतई नहीं अपनाते. यदि वे शासक थे तो उनके सामने पिछड़ी स्थानीय संस्कृति को अपनाने की कोई मजबूरी भी नहीं थी. वे अपनी कथित श्रेष्ठ संस्कृति को बचाए रख सकते थे. आखिर क्यों उन्होंने उन जातियों की भाषा-बोली को अपनाया और उनके अवैदिक देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों को अपना आराध्य मानना शुरू किया, जिन्हें वे आज भी हीन मानते हैं? मुग़ल प्रताड़ना (ख़ास तौर पर औरंगजेब कालीन जबरिया धर्मांतरण) से पहाड़ों पर आकर बसने की बात तो और भी हास्यास्पद है. ऐसा होता तो वास्तव में ज्यादा प्रताड़ना झेलने वाले राजधानी दिल्ली के नज़दीकी इलाकों- जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, रुहेलखंड, रामपुर, मुरादाबाद आदि से आकर लोग यहां बसते! लेकिन कोई भी इन इलाकों को अपने पूर्वजों की मातृभूमि नहीं बताता है बल्कि गैर-मुग़ल शासित दूर-दराज राज्यों का मूलवासी होने का दावा किया जाता है.
उत्तराखण्ड का अतीत हमेशा से पिछड़ा नहीं रहा. खास तौर पर कत्यूरी काल स्थापत्य और अन्य विधाओं में अपेक्षाकृत उन्नत प्रतीत होता है. लगभग इसी दौर तक हिमालयवासी धातुशोधन सीख चुके थे. प्रख्यात पुरातत्वविद प्रो. डी.पी. अग्रवाल के अनुसार इस काल में गंगा-यमुना के मैदानी राज्यों को लोहा और तांबा हिमालयी इलाकों से ही भेजा जाता था. पहाड़ के लोग दूसरी शताब्दी से जलशक्ति का यांत्रिक इस्तेमाल करने लगे थे. आज घराट (पनचक्की) हमें तकनीकी दृष्टि से जरूर मामूली लग सकता है, लेकिन दूसरी शताब्दी के हिसाब से इसे एक बड़ी तकनीकी उपलब्धि कहा जाएगा. कत्यूरी काल के मंदिर स्थापत्य के लिहाज से परवर्ती चंदकाल से कहीं ज्यादा उन्नत हैं. यह दौर शानदार काष्ठकला का भी रहा है. यदि कथित सभी श्रेष्ठ जातियां चन्द सदियों पहले बाहर से आकर बसीं तो ज्ञान-विज्ञान की इस समृद्ध विरासत के असली वारिस कौन हैं?
डॉ. राम सिंह यह भी मानते थे कि उत्तराखंड में ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था ने अपेक्षाकृत बाद में पैठ बनाई. वह इसे शंकराचार्य के आगमन से जोड़ते थे. उनकी दलील थी कि यहां की सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं पर जमी वर्ण व्यवस्था की धूल को अगर झाड़-पोंछ दिया जाय तो भाईचारे पर आधारित पुरातन आदिवासी संस्कृति को बड़ी आसानी से पहचाना जा सकता है. अगर ऐसा न होता तो दलितों को देवताओं के आवाहन की जिम्मेदारी कैसे मिलती? जागर गायक के रूप में वास्तव में वे आज भी पुजारी की भूमिका ही तो निभाते हैं. सनातन ब्राह्मण संस्कृति में क्या इसकी कल्पना भी की जा सकती है?
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डॉ. राम सिंह ने इतिहास के नाम पर फैलाई जाने वाली वैमनस्यपूर्ण भ्रांतियों के निवारण का भी प्रयास किया. कुमाऊं में मनाये जाने वाले 'खतडुआ'त्योहार के बारे में व्यापक रूप से प्रचलित है कि यह गढ़वाल के राजा पर कुमाऊं के राजा की विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है. डॉ. राम सिंह कहते थे कि पहले तो गढ़वाल की राज वंशावली में खतड़ सिंह नाम का कोई राजा नहीं हुआ. दूसरे, गढ़वाल के राजवंश के साथ कुमाऊं के राजवंश के सम्बन्ध पूरी तरह शत्रुवत कभी नहीं थे बल्कि उतार-चढ़ाव भरे थे. कभी दोस्ती तो कभी प्यार और कभी रिश्तेदारी भी. लगभग ऐसे ही सम्बन्ध कुमाऊं और डोटी (पश्चिमी नेपाल) के बीच भी थे. गौरतलब है कि खतडुआ कुमाऊं में ही नहीं पश्चिमी नेपाल में भी मनाया जाता है, जिनका गढ़वाल के राजा की हार-जीत से कोई नाता नहीं. डॉ. राम सिंह के मुताबिक़ खतडुआ शुद्ध खेतिहर त्योहार है, जिसके साथ औपनिवेशिक काल में किसी कथित इतिहासकार ने हार-जीत की यह कथा जोड़ दी.
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डॉ. राम सिंह का जन्म माता श्रीमती पार्वती देवी और पिता श्री मोहन सिंह के घर पिथौरागढ़ के निकट कफलानी (गैना) गांव में 17 जुलाई 1937 को हुआ था. उनकी स्कूली शिक्षा पिथौरागढ़ के विद्यालयों में पूरी हुई. आगे की पढ़ाई के लिए वह लखनऊ विश्वविद्यालय चले आये. हिंदी में एम.ए. करने के बाद उन्होंने पीएच.डी. में प्रवेश लिया. उनका शोध प्रबंध कुमाऊं की कृषि एवं ग्रामोद्योग शब्दावली के भाषाशास्त्रीय अध्ययन पर केन्द्रित था. शिया डिग्री कॉलेज लखनऊ से एक शिक्षक के रूप में उन्होंने अपना पेशेवर जीवन शुरू किया. बाद में विभिन्न राजकीय विद्यालयों में प्रवक्ता, रीडर व विभागाध्यक्ष रहने के बाद वह 1997 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए. उत्तराखंड के मशहूर खोजी पं. नैनसिंह की यात्राओं पर डॉ. राम सिंह ने "पं. नैन सिंह का यात्रा साहित्य"नामक पुस्तक लिखी. अनेक ऐतिहासिक व पुरातात्विक अध्ययनों के अलावा उन्होंने जागरों का संग्रह 'भारत गाथा'भी तैयार किया, जो अब तक अप्रकाशित है.
अपने अंतिम वर्षों में अल्जाइमर्स की बीमारी के कारण डॉ. राम सिंह की याददाश्त कमजोर हो गयी थी. जीवन पर्यंत वह बड़े जतन से उत्तराखंड के ऐतिहासिक साक्ष्यों का संग्रह व संरक्षण करते रहे. पिछले दो-तीन दशकों में उत्तराखंड विकास की जिस राह पर आगे बढ़ा है, उसमें इन साक्ष्यों के बड़े स्तर पर मटियामेट होने का सिलसिला शुरू हुआ. इस लिहाज से डॉ. राम सिंह का काम बड़े महत्त्व का है. उन्होंने न सिर्फ ऐतिहासिक साक्ष्यों को संजोया बल्कि एक इतिहास दृष्टि भी हमें दी. वे एक कर्मयोगी की तरह चुपचाप अपना काम करते रहे मगर अपने काम का ढोल नहीं पीटा. अपने कर्म एवं विचारों से वह पूरी तरह बौद्धिक श्रमिक थे. वह सचमुच प्रजाजन थे और सत्ता संरचनाओं से हमेशा दूरी बनाकर रखते थे. उनकी बौद्धिकता भी इसीलिए सहज, श्रमसाध्य और आतंकविहीन थी. एक समाज के बतौर अपने कर्मवीरों को याद रखने व उन्हें यथोचित सम्मान देने के मामले में हमारा रिकॉर्ड ख़ास अच्छा नहीं है. डॉ. डी.डी. पन्त जैसे वैज्ञानिक और शेर सिंह बिष्ट 'अनपढ़'जैसे लोक कवि इस उपेक्षा के ज्वलंत उदाहरण हैं. डॉ. राम सिंह भी इस दुर्लभ मणि शृंखला की एक और कड़ी हैं.
डॉ. राम सिंह शारीरिक श्रम को सर्वोपरि मानने वाले जाति-भेदविहीन और समतावादी राज्य के हिमायती थे. वह कहते थे कि अतीत में इन्हीं मूल्यों के आधार पर हिमालय के कठिन भूगोल में हमारे पुरखों का बसना संभव हो पाया था. आज जब हम इन मूल्यों को नज़रअंदाज़ करने का खामियाजा भुगत रहे हैं, डॉ. राम सिंह और उनका इतिहास बोध अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करते नज़र आते हैं.