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अक्षरा थियेटर में दर्शकों से मुखातिब महीदा |
आप लंबे समय से अपने देश पाकिस्तान में नाट्य आंदोलन में सक्रिय हैं। क्या लगता है आपको रंगमंच जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों से दोनों देशों की तस्वीर बदल सकती है?
तस्वीर बदल भी सकती है और नई तस्वीर बनाई भी जा सकती है। सांस्कृतिक कार्यक्रम बहुत गहरी छाप छोड़ते हैं। इसके चाहने वाले दोनों ओर (भारत-पाकिस्तान) हैं। दोनों ओर के मुद्दे लगभग एक जैसे ही हैं। भारत के कई थियेटर हैं, जिनको पाकिस्तान में बहुत पसंद किया जाता है। यही स्थिति भारत की भी है। हम यहां कई नाटक कर चुके हैं। हमारा हर बार बहुत ही गर्मजोशी से यहां स्वागत किया जाता है। ड्रामे के जरिए आप लोगों के जज्बातों से हम भी जुड़ जाते हैं। मैं मानती हूं कि सीमाओं पर चाहे जितना तनाव हो, लेकिन सांस्कृतिक आदान-प्रदान की पहल जारी रहनी चाहिए। क्योंकि दोनों तरफ की आवाम तो मोहब्बत ही करना चाहती है।
कई सालों से देखने को मिल रहा है कि दोनों देशों के रिश्ते बीच-बीच में दरकने लगते हैं। इसके पीछे आवाम और सत्ता की क्या भूमिका समझती हैं?
जी, बात बनते-बनते कई बार बिगड़ी है, जरूरत इस समस्या के तह तक जाने की है। सच्चाई यह है कि पाकिस्तान और भारत में दोनों ओर ही नफरत की आग पर रोटियां सेंकने वालों की कमी नहीं है। जहां तक आवाम की बात है, तो वह अमन पसंद है। लेकिन सत्ता के स्तर से भी अच्छे प्रयास हुए हैं और सफल भी हुए हैं। आज अगर हम भारत में आकर यहां की सरकार के ऐतराज के बाद भी अपना ड्रामा दिखा पाए हैं, तो सिर्फ यहां की आवाम की वजह से। कुछ गलत लोगों की सियासी चालों के कारण हम एक-दूसरे के दुश्मन तो नहीं बन सकते।
आप तो पिछले तीन दशकों से महिला अधिकारों के लिए संघर्ष करती आई हैं। अब वहां की तस्वीर कितनी बदलती दिख रही है?
पाकिस्तान में हमारे जैसे कई संगठन हैं, जो महिलाओं के हक के लिए जूझकर काम कर रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद वहां महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। जनरल जियाउल हक के शासन में महिलाओं का बहुत दमन किया गया। उस समय की बनाई गई अवधारणाएं अभी तक पूरी तरह से बदली नहीं हैं। इस दिशा में काम किया जा रहा है। फिर भी छोटे-छोटे प्रयासों को देखते हुए उम्मीद तो की ही जा सकती है कि आने वाले समय में तब के मुकाबले हालात और बेहतर होंगे।
बेनजीर, जैसी कई महिलाएं बड़े पद संभाल चुकी हैं और भी कई महिलाएं बड़ी जिम्मेदारियां संभाल रही हैं। फिर भी पाकिस्तान में महिलाओं की तस्वीर ठीक नहीं समझी जा रही है। वहां कट्टरवादी ताकतें तेजी से उभर रही हैं। महिलाओं के लिए यह स्थिति कितनी बड़ी अग्नि परीक्षा है?
हालात काफी मुश्किल भरे हैं। यह बात सही है। बेनजीर भुट्टो भी बहुत मुश्किल हालात में उस मुकाम तक पहुंच पाई थीं। हकीकत यह है कि महिलाओं के मामले में बुनियादी सोच के बदलाव की जरूरत है। जिसके लिए इस्लामिक कानून को दुरुस्त किया जाना चाहिए। इसके बिना कोई बड़ा बदलाव मुमकिन नहीं है। कट्टरवादी ताकतें इस्लामिक कानून की आड़ में देश पर हावी होने की कोशिश करती हैं। इसी के चलते महिलाओं पर तमाम पाबंदियां लाद दी जाती हैं। यह सब इस्लाम के नाम पर किया जाता है। सबसे खराब बात तो यही है।
हाल में तालिबानी जमातों का भी प्रभाव पाकिस्तान में बढ़ा है। आप जैसी खुले सोच वाली नाट्यकर्मियों के सामने इससे कितनी मुश्किलें आ रही हैं?
तालिबानी ताकतें, तर्क नहीं समझतीं। वे सिर्फ अपने आदेश थोपना चाहती हैं। ये कट्टरवादी अपने खिलाफ किसी तरह की आवाज नहीं सुनना चाहते। हम अपने ड्रामों के जरिए इस समस्या को उठाते हैं। कई बार हमें बड़ी तीखी आलोचनाओं को सुनना पड़ता है। औरतों का थियेटर में काम करना, वो लोग ठीक नहीं मानते। फिर भी हम लोग काम कर रहे हैं। परेशानी तो जरूर होती है, लेकिन सांस्कृतिक क्षेत्र से जुड़े लोग लगातार इन ताकतों के दबाव का सामना करे रहे हैं। हमारी कोशिश होती है कि हमारे साथ ज्यादा से ज्यादा आम आवाम जुड़े, ताकि कट्टरवादी ताकतें ज्यादा कामयाब न हों। हमारी यह जद्दोजहद जारी है। हमें कामयाबी ही मिलती जा रही है।
आपने पिछले वर्षों में पाकिस्तान के कई हिस्सों में लगातार नाटक किए। लेकिन, बलूचिस्तान में नहीं जा पार्इं। आखिर, बलूचिस्तान कट्टर जमातों का ‘टापू’ कैसे बन गया?
पूरे पाकिस्तान में हमने थियेटर किए हैं। जहां तक बलूचिस्तान की बात है, तो वहां पर एक भी नाटक नहीं किया जा सका। क्योंकि वहां की जो हालत है, उसे देखते हुए वहां से किसी ने बुलाया भी नहीं। फिर भी हम अपने स्तर पर बलूचिस्तान में वर्कशॉप कराते रहते हैं। वहां पर अलकायदा का पूरा प्रभाव रहता है। कट्टर इस्लामी ताकतों के लिए बलूचिस्तान सबसे मुफीद जगह है। हमने वहां ‘भगत सिंह’ पर एक ‘प्ले’ किया, जिसके खिलाफ बहुत आवाजें उठीं। क्या बताएं! बहुत ही मुश्किल हालात हैं, उस इलाके के।
पिछले दिनों मलाला यूसुफजई की बहादुरी खास चर्चा में रही है। इस मासूम बच्ची को तालिबानी कट्टरपंथियों ने निशाना बनाया था। लेकिन बहादुर मलाला को वहां खूब सपोर्ट मिला। मलाला प्रकरण का पाकिस्तान के अंदर क्या संदेश गया है?
इस पूरे मामले के बाद तालिबान का एक और क्रूर चेहरा सामने आया है। वे ज्यादा आक्रामक होने की कोशिश में हैं। लेकिन, इसके मुकाबले के लिए भी लोग हौसला दिखा रहे हैं। पाकिस्तानी आवाम में कट्टरपंथियों के खिलाफ एक मजबूत सोच बन रही है। लोगों को अब समझ में आने लगा है कि सिर्फ सहने से कुछ बदलने वाला नहीं है। कुछ करना जरूरी है। लोगों ने किया भी, आज मलाला कट्टरपंथियों के खिलाफ पूरे देश में एक रोल मॉडल बन कर उभरी है।
भारत में भी कई सामाजिक संगठन महिलाओं के पहनावे पर सवालिया निशान लगाते हैं। लेकिन, उनकी बातों का यहां जमकर प्रतिरोध भी होता है। आपके यहां पर स्थिति क्या है?
भारत के मुकाबले वहां की स्थिति बिल्कुल ठीक नहीं है। भारत में सबसे अच्छी बात यह है कि यहां सिविल सोसायटी बहुत मजबूत है। ग्लोबलाईजेशन के दौर में भी पाकिस्तान में मॉडलिंग जैसे पेशे को अपनाने की आजादी नहीं है। पहनावे को लेकर विरोध करने वालों का पाकिस्तान में भी विरोध होता है। लेकिन बहुत छोटे पैमाने पर कई बार तो रस्मी तौर पर। इस मामले में ग्लैमर की दुनिया से जुड़े लोग ही कुछ बोल पाते हैं। लेकिन, सोचने समझने वाला आम आदमी भी यहां खुलकर अपनी आवाज नहीं उठा पाता। क्योंकि सिस्टम भी उसको किसी तरह का संरक्षण नहीं देता।
आप तो जनरल जियाउल हक के दौर से जुनूनी सांस्कृतिक आंदोलन चला रही हैं। तब से अब तक स्थिति में कितना बदलाव आया है?
‘अजोका’ उसी जमाने में शुरू हुआ था। हमारे थियेटर ने जनरल जियाउल हक की संकीर्ण विचारधारा के खिलाफ जमकर काम किया। हम इस जुनून में जुटे हैं। यही कह सकते हैं कि हालात कुछ बेहतर हैं। लेकिन, अभी बहुत काम करना बाकी है। सच्चाई तो यह है कि महिलाओं को ही नहीं आम लोगों को भी आज भी पूरी आजादी नहीं है। अगर आप सिस्टम और कट्टरवादी ताकतों के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो आपका कत्ल भी किया जा सकता है। ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैं। मौजूदा हालात में जो कुछ भी हो पा रहा है, उसके लिए भी हमें खास रणनीति बनानी पड़ती है। नाटक का विषय ऐसा चुनना पड़ता है कि उसका सत्ता के स्तर पर ज्यादा विरोध न हो, फिर भी अलकायदा जैसी कट्टरपंथी ताकतों का विरोध, तो आज भी सहन करना पड़ता है। आवाम का सपोर्ट ही हमारी सबसे बड़ी ताकत बनती जा रही है। हम मुश्किलों में काम जरूर करते हैं, लेकिन ना-उम्मीद नहीं हैं।
आपने तो एक बार यहां तक कहा था कि पाकिस्तान में महिलाओं के मुकाबले जानवरों की कहीं ज्यादा इज्जत होती है। आपके नजरिए में अब इस स्थिति में कोई बदलाव आया है?
मैंने बताया ना, महिलाओं के मामले में बहुत बदलाव नहीं आया है। लोग जानवरों पर पैसे खर्च करते हैं, लेकिन महिलाओं को आजादी और सम्मान देने में कंजूसी करते हैं। क्योंकि उनकी सोच नहीं बदली है। सो, वे बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहते।
दिल्ली में पिछले दिनों एक गैंगरेप की बहुत चर्चा रही है। गैंगरेप के बाद महिलाओं की सुरक्षा को लेकर पूरे देश में आवाज उठी। इसकी गूंज आपके देश पाकिस्तान भी जरूर पहुंची होगी। आपके यहां बड़े शहरों में महिलाओं के प्रति अपराधों की क्या स्थिति है? भारत में हुए विरोध-प्रदर्शनों से क्या पाकिस्तान में महिला संगठनों को उम्मीद की कोई किरण दिखाई पड़ी है?
देखिए, महिला अपराधों के मामले में भारत और पाकिस्तान दोनों में बहुत अंतर नहीं है। अंतर बस इतना है कि भारत में प्रत्यक्ष रूप से महिला अपराधों के खिलाफ महिलाओं के साथ-साथ पुरुष वर्ग भी सामने आता है। दिल्ली में हुए गैंगरेप के बाद जिस तरह से पूरे भारत में विरोध हुआ, उसकी चर्चा पाकिस्तान में खूब हुई। पूरे प्रकरण के बाद पाकिस्तान में भी लोगों के बीच एक समझदारी बनी है। लोग कम से कम सोशल मीडिया के जरिए आवाज उठा रहे हैं। साथ ही छोटे पैमाने पर लोग सड़कों पर भी उतर रहे हैं। यह एक नया ट्रेंड देखने में जरूर आया है।
साझा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए एक-दूसरे के कितना करीब आया जा सकता है? क्या इस पहल से भारत-पाक के बीच की कटुता कुछ कम हो सकती है? आप क्या उम्मीद करती हैं?
अगर, भारत और पाकिस्तान के लोग तमाम कटुताओं के बाद भी एक-दूसरे से जुड़े हैं, तो वह सांस्कृतिक कार्यक्रमों की ही ताकत है। पाकिस्तान के संगीत की एक अलग पहचान है, इसके बावजूद वहां पर भारतीय संगीत बहुत पसंद किया जाता है। भारत की फिल्मों के लिए पाकिस्तानियों में गजब का जुनून बना रहता है। हम यही कह सकते हैं कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान सही मायने में जारी रहे, तो नफरत कराने वाली ताकतें एक दिन जरूर शिकस्त खा जाएंगी।
भारत में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की जो स्थिति और स्तर है, उस पर आपकी क्या राय है?
यहां पर बहुत वेरायटी है। तरह-तरह के मुद्दे हैं। लोगों का सपोर्ट है। भारत में कला और कलाकारों की बहुत इज्जत है। सबसे बड़ी बात है कि यहां पर सरकारी स्तर पर भी बहुत सराहनीय कार्यक्रम होते हैं। यहां लोग खुद स्वेच्छा से थियेटर से जुड़ते हैं। लड़कियों को भी बहुत तवज्जो दी जाती है। सबसे अच्छी बात यह है कि कहीं भी इसका विरोध नहीं होता।
अरुण पांडे फैजाबाद के हैं और दिल्ली में एक दैनिक अखवार से जुड़े हैं।