“…यह किताब मुख्य रूप से जिन बिंदुओं पर चर्चा करती है उनमें पुलिस, सरकारी जांच एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों तथा निचली अदालतों और उच्च न्यायालय तक की कार्यप्रणालियों और सांप्रदायिक चरित्र का पता चलता है। यह भी दिखता है कि कैसे राज्य इन सभी प्रणालियों को हाइजैक कर सकता है और किसी एक के इशारे पर नचा सकता है।…”
“ऑपरेशन अक्षरधाम” हमारे राज्यतंत्र और समाज के भीतर जो कुछ गहरे सड़ गल चुका है, जो भयंकर अन्यापूर्ण और उत्पीड़क है, का बेहतरीन आलोचनात्मक विश्लेषण और उस तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा है।
24 सितंबर 2002 को गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हमले को करीब 13 साल बीत चुके हैं।
गांधीनगर के सबसे पॉश इलाके में स्थित इस मंदिर में शाम को हुए एक ‘आतंकी’ हमले में कुल 33 निर्दोष लोग मारे गए थे।
“ऑपरेशन अक्षरधाम” इस मामले में पकड़े गए सभी आरोपियों के पूरे मुकदमें की एक गहन पड़ताल है।
यह किताब मुख्य रूप से जिन बिंदुओं पर चर्चा करती है उनमें पुलिस, सरकारी जांच एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों तथा निचली अदालतों और उच्च न्यायालय तक की कार्यप्रणालियों और सांप्रदायिक चरित्र का पता चलता है।
यह भी दिखता है कि कैसे राज्य इन सभी प्रणालियों को हाइजैक कर सकता है और किसी एक के इशारे पर नचा सकता है।
यह किताब इस मामले के हर एक गवाह, सबूत और आरोप को रेशा-रेशा करती है। मसलन, जहां हमले के अगले दिन केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मारे गए दोनो फिदाईन का नाम और पता भी सार्वजनिक कर दिया, वहीं घटना के केंद्र गुजरात पुलिस के डीजीपी के चक्रवर्ती को भी उस वक्त तक इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
मजे की बात ये थी कि अक्षरधाम हमले के सिलसिले में 25 सितंबर 2002 को जी एल सिंघल द्वारा लिखवाई गई प्रथम सूचना रिपोर्ट में भी मारे गए दोनो फिदाईन के निवास और राष्ट्रीयता का कहीं कोई जिक्र नहीं था!
मुकदमें की सुनवाई म पुलिस का दावा और पुलिस की तरफ से पेश चश्मदीद गवाहों के बयान विरोधाभाषी रहे पर आश्चर्यजनक रूप से पोटा अदालत, जहां इस मामले का मुकदमा चल रहा था, ने इन सारी गवाहियों की तरफ से आंखें मूंदे रखी।
इस मामले की जांच भी काफी संदिग्ध परिस्थितियों में की गई। पहले करीब एक साल से इस हमले की जांच क्राइम ब्रांच कर रही थी लेकिन क्राइम ब्रांच इस मामले में कोई महत्वपूर्ण खोजबीन नहीं कर पाई।
लेकिन 28 अगस्त 2003 की रात आठ बजे इस मामले की जांच एटीएस को दे दी गई। जांच मिलने के 24 घंटों के अंदर ही एटीएस ने अक्षरधाम मामले को हल कर लेने और पांच आरोपियों को पकड़ लेने का चमत्कार कर दिखाया।
इस संबंध में जीएल सिंघल का पोटा अदालत में दिए बयान के मुताबिक – “एटीएस की जांच से उन्हें कोई खास सुराग नहीं मिला था और उन्होने पूरी जांच खुद नए सिरे से 28 अगस्त 2003 से शुरू की थी।“ और इस तरह अगले ही दिन यानी 29 अगस्त को उन्होने पांचों आरोपियों को पकड़ भी लिया। पोटा अदालत को इस बात भी कोई हैरानी नहीं हुई।
किताब में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि जिन इकबालिया बयानों के आधार पर 6 लोगों को आरोपी बना कर गिरफ्तार किया गया था, पोटा अदालत में बचाव पक्ष की दलीलों के सामनें वे कहीं नहीं टिक रहे थे।
लेकिन, अगर अदालत उस पर थोड़ा भी गौर करती या बचाव पक्ष की दलीलों को महत्व देती तो इन इकबालिया बयानों के आपसी विरोधाभाषों के कारण ही मामला साफ हो जाता, पर शायद मामला सुनने से पहले ही फैसला तय किया जा चुका था। किताब में इन इकबालिया बयानों और उनके बीच विरोधाभाषों का सिलसिलेवार जिक्र किया गया है।
इसी तरह हाइकोर्ट के फैसले में भी पूर्वाग्रह और तथ्य की अनदेखी साफ नजर आती है जब कोर्ट ये लिखती है कि “27 फरवरी 2002 को गोधरा में ट्रेन को जलाने की घटना के बाद, जिसमें कुछ मुसलमानों ने हिंदू कारसेवकों को जिंदा जला दिया था, गुजरात के हिंदुओं में दहशत फैलाने और गुजरात राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने की आपराधिक साजिश रची गई।”
जबकि गोधरा कांड के मास्टरमाइंड बताकर पकड़े गए मौलाना उमर दोषमुक्त होकर छूट चुके हैं और जस्टिस यूसी बनर्जी कमीशन, जिसे ट्रेन में आग लगने के कारणों की तफ्तीश करनी थी, ने अपनी जांच में पाया था कि आग ट्रेन के अंदर से लगी थी।
आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने क्रमवार 9 बिंदुओं पर अपना विचार रखते हुए सभी आरोपियों को बरी किया। सर्वोच्च न्यायलय ने यह भी कहा कि बयानों को दर्ज करने में तय नियमों की अनदेखी की गई। फिदाईन की पोस्टमार्टम रिपोर्ट का हवाला देते हुए सर्वोच्च अदालत ने कहा – “जब फिदाईन के सारे कपड़े खून और मिट्टी से लथपथ हैं और कपड़ों में बुलेट से हुए अनगिनत छेद हैं तब पत्रों का बिना सिकुड़न के धूल-मिट्टी और खून के धब्बों से मुक्त होना अस्वाभाविक और असंभव है।”
किताब पूरी तरह तथ्यात्मक है। इस पूरे मुकदमें से जुड़े एक-एक तथ्य को बटोरने में लेखकों को लंबा समय लगा है। मौके पर जा कर की गई पड़तालों, मुकदमें में पेश सबूतों, गवाहियों, रिपोर्टों और बयानों की बारीकी से पड़ताल की गई है और इन सारी चीजों को कानून सम्मत दृष्टिकोण से विवेचना की गई है। यह किताब, राज्य सरकार की मशीनरी और खुफिया एजेंसियों, अदालतों तथा राजनीतिक महत्वाकांक्षा की साजिशों की एक परत-दर-परत अंतहीन दास्तान है।
“आपरेशन अक्षरधाम”
(उर्दू हिंदी में एक साथ प्रकाशित)
लेखक – राजीव यादव, शाहनवाज आलम
प्रकाशक – फरोश मीडिया
डी-84, अबुल फजल इन्क्लेव
जामिया नगर, नई दिल्ली-110025