सत्येन्द्र रंजन |
-सत्येंद्र रंजन
"...कहा जा सकता है कि अगर यूपीए सरकर ने जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी का गठन सिर्फ जन-प्रतिरोध को ठंडा करने के लिए नहीं किया था, तो अब कमेटी की सिफारिशों के रूप में उसके सामने महिलाओं पर अत्याचार रोकने के उपाय करने की अब एक संपूर्ण कार्यसूची उपलब्ध है। सरकार ने यह रिपोर्ट संसद की स्थायी समिति के पास भेजने की बात कही है। लेकिन इससे आशंका भी उपजती है कि कहीं सारी बात कमेटी दर कमेटी में भटकती ना रह जाए।..."
यह कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं है कि हाल का बलात्कार विरोधी प्रतिरोध सामाजिक विकास के लिहाज से भारत में हाल के वर्षों में हुई सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है। एक ऐसी घटना- जिसने अपना ठोस प्रभाव छोड़ा है। यह प्रभाव कितना व्यापक और दूरगामी होगा, यह कई बातों पर निर्भर करेगा। उनमें सबसे अहम पहलू यह होगा कि तेइस वर्षीय फिजियोथेरापिस्ट छात्रा के साथ बलात्कार की बर्बर घटना के बाद जो लोग- खासकर नौजवान- सड़कों पर उतरे, वे जागरूकता और विरोध जताने में कितनी निरंतरता बरतते हैं।
फिलहालयह जरूर है कि इस देशव्यापी स्वतः-स्फूर्त प्रतिरोध ने समाज- खासकर मध्य वर्ग, मीडिया और शिक्षित तबकों- में स्त्री संबंधी मुद्दों पर वैसा खुलापन पैदा किया है, जो भारतीय समाज के लिए एक नई चीज है। चूंकि इस प्रतिरोध को 2011के भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष में दिखी नौजवानों की भागीदारी से जोड़कर देखा गया है, इसलिए राजनीतिक वर्ग ने इसमें एक परिघटना के उभार के संकेत देखे हैं। इसकी झलक हाल में जयपुर में कांग्रेस पार्टी के चिंतन शिविर में भी देखने को मिली, जहां सोशल मीडिया युग के आंदोलन पर खास चर्चा हुई। इस प्रतिरोध से राजनीतिक व्यवस्था में हुई हलचल का ही यह परिणाम है कि बलात्कार संबंधी मामलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन जैसे उपाय हुए हैं। अन्य प्रशासनिक एवं न्यायिक उपाय करने पर भी सरकारें मजबूर हुईं। इन सबसे कितना टिकाऊ लाभ होगा, यह एक बार फिर इसी पर निर्भर करेगा कि लोग किस हद तक सचेत रहते हैं।
बहरहाल,एक उपलब्धि के टिकाऊ होने की उम्मीद अवश्य की जा सकती है। वह है बलात्कार या स्त्री के यौन-व्यक्तित्व से संबंधित मसलों से जुड़ी वर्जनाओं का टूटना। बलात्कार पीड़ित महिला के “जीवित लाश” नहीं होती इस तथ्य को जताने के लिए महिला कार्यकर्ताओं- तथा कुछ बलात्कार पीड़ित महिलाओं- ने जो तर्क पेश किए, स्त्री सिर्फ शरीर नहीं है इस बात को जितने जोरदार ढंग से कहा गया, और इन सब बातों पर परिवारों, मीडिया एवं सार्वजनिक स्थलों पर जो हिचक टूटी, वह नर-नारी समता की एक नई संस्कृति का आधार बनेगी, यह उम्मीद रखने के पर्याप्त कारण हैं।
यह ठीक है कि प्रतिरोध के दौरान प्रतिगामी मांगें भी जोर-शोर से की गईं। मसलन, बलात्कारियों को फांसी देने या नाबालिग मुजरिम की श्रेणी तय करने के लिए उम्रसीमा घटाने की मांग उठी। स्त्री की यौन-शुचिता के साथ उसकी एवं उसके परिवार की इज्जत जुड़ी होने जैसी मान्यताओं को भी कुछ हलकों से बल प्रदान करने की कोशिश हुई। लेकिन अंततः विमर्श की मुख्यधारा पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देने की दिशा में आगे बढ़ी, यह मानने का आधार मौजूद है। उसका सबसे ठोस रूप तो जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट ही है। जस्टिस वर्मा कमेटी ने अस्सी हजार ज्ञापनों पर गौर करते हुए एक प्रगतिशील रिपोर्ट तैयार की है। दरअसल, वर्मा कमेटी की इस बात के लिए तारीफ होनी चाहिए कि उसने एक महीने की निर्धारित समयसीमा के भीतर महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित गंभीर एवं व्यापक प्रश्न पर उचित संदर्भों में विचार करते हुए ऐसी रिपोर्ट पेश की है, जिसे कुछ कार्यकर्ताओं ने महिला स्वतंत्रता एवं सुरक्षा का घोषणापत्र कहा है।
इस रिपोर्ट की विशेषता यह है कि इसमें यौन हिंसा या यौन उत्पीड़न को व्यापक सामाजिक-आर्थिक- सांस्कृतिक परिस्थितियों के ढांचे में रख कर देखा गया है। समिति ने प्रशासन, कानून, राजनीति और सामाजिक नजरिए की समग्रता में इस प्रश्न पर विचार किया। उसने पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों की लाचारी को जड़ में रखते हुए इस समस्या को देखा और अपनी सिफारिशों को संवैधानिक तथा कानून की मानवीय व्याख्या के दायरे में प्रस्तुत किया। नतीजतन, बलात्कारियों के लिए फांसी की सजा और नाबालिग अपराधी की श्रेणी तय करने के लिए उम्रसीमा घटाने की मांग अस्वीकार कर दी गई है। इसके बावजूद कमेटी ने मुजरिमों के लिए सजा के प्रावधान को अधिक सख्त करने, बलात्कार की परिभाषा का विस्तार करने, बलात्कार पीड़िता की जांच के लिए स्पष्ट मेडिकल प्रोटोकॉल तैयार करने जैसे बेहद अहम सुझाव दिए हैं। साथ ही उसने कानूनों पर अमल में पुलिस एवं न्यायिक व्यवस्था की नाकामी के संदर्भ में पुलिस सुधारों का मुद्दा भी उठाया है। दिल्ली बलात्कार कांड के बाद अशांत क्षेत्रों में सुरक्षाकर्मियों के हाथों यौन उत्पीड़न का शिकार होने वाली महिलाओं का मुद्दा जोर-शोर से उठा। इस संबंध में वर्मा कमेटी ने यह बेहद अहम सिफारिश की है कि ऐसे आरोपों के घेरे में आने वाले सुरक्षाकर्मियों को सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून का संरक्षण नहीं मिलना चाहिए- यानी उनके खिलाफ कार्रवाई सामान्य कानूनी प्रक्रिया के तहत होनी चाहिए। कमेटी ने राजनीतिक व्यवस्था में महिला विरोधी पूर्वाग्रहों के प्रश्न को भी अछूता नहीं छोड़ा। हालांकि यह सुझाव विवादास्पद है, लेकिन वर्मा कमेटी ने बलात्कार के आरोपियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की सिफारिश की है।
कहाजा सकता है कि अगर यूपीए सरकर ने जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी का गठन सिर्फ जन-प्रतिरोध को ठंडा करने के लिए नहीं किया था, तो अब कमेटी की सिफारिशों के रूप में उसके सामने महिलाओं पर अत्याचार रोकने के उपाय करने की अब एक संपूर्ण कार्यसूची उपलब्ध है। सरकार ने यह रिपोर्ट संसद की स्थायी समिति के पास भेजने की बात कही है। लेकिन इससे आशंका भी उपजती है कि कहीं सारी बात कमेटी दर कमेटी में भटकती ना रह जाए। इसीलिए लोगों को जागरूक रहना होगा। पिछले सोलह दिसंबर की घटना के बाद प्रतिरोध में उतरे लोगों के लिए यह बड़ी चुनौती है। उनके आंदोलन के परिमाणस्वरूप बनी न्यायिक कमेटी का दस्तावेज उनकी ही थाती है। इन सिफारिशों पर अमल ही एक अद्भुत और अभिनव प्रतिरोध की स्थायी उपलब्धि होगी।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.