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स्टूडेंट-वर्कर्स काउंसिल की दिशा में...(पहली क़िस्त)

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लिंगदोह कमिटी की सिफारिशों के लागू होने के बाद जिस तरह पूरे देशभर में छात्र राजनीति की कमर टूट गई है, इससे पता चलता है कि यह सिफारिशें साकार हुई हैं. यह साकार इस संदर्भ में नहीं हुई हैं कि इसने छात्र राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगा दी हो. जबकि कमिटी अपने एक अघोषित मकसद में कामयाब हुई है. कमिटी की लागू सिफारिशों ने छात्रों की उस राजनीति को अधिक कमजोर किया है जो मुख्यधारा की भ्रष्ट राजनीति और नव-उदारवादी नीति-नियंताओं के साथ उसके गठजोड़ के खिलाफ मुकम्मल प्रतिरोध खड़ा कर सकती थी. इसकी एक बानगी जेएनयू है जिसका प्रतिरोध की राजनीती का लम्बा इतिहास रहा है. पिछले समय में यहाँ होने वाली बेहद लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया लिंगदोह के चलते बाधित हुई. और जब एक लम्बी कानूनी कार्रवाई के बाद लिंगदोह की सिफारिशों में मामूली रियायतों के साथ चुनाव दुबारा शुरू हुए तो वहां राजनीती के वे तेवर गायब होते गए हैं जिसके लिए जेएनयू जाना जाता रहा है. इससे चिंतित जेएनयू में राजनीति कर रहे छात्रों के एक स्वतंत्र गुट ने एक नई बहस आमंत्रित की है. जिसमें नए हालातों का विश्लेषण कर नई राह बनाने का आह्वाहन है. praxis के पाठकों के लिए आज हम यह बहस प्रकाशित कर रहे हैं-  संपादक  


“The tradition of the oppressed teaches us that the “state of emergency” in which we live is not the exception but the rule. We must attain to a concept of history that is in keeping with this insight. Then we shall clearly realize that it is our task to bring about a real state of emergency, and this will improve our position in the struggle against fascism”. Walter Benjamin.

नव-उदारवाद आपात स्थितियों की सामान्य व्यवस्था है. समाज का हर क्षेत्र आपात की ऐसी सामान्य स्थितियों में धकेल दिया गया है. समाज का कोई भी हिस्सा इस आपात से बाहर नहीं है. कोई भी बाहरी नहीं है. हम सब इस समाज रुपी फैक्ट्री के अन्दर हैं, हमसे ही ये फैक्ट्री चल रही है. मार्क्स ने कहा था कि ‘जब हम बुर्जुआ समाज को उसके लम्बे विकास और सम्पूर्णता में देखते हैं तो सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया का अंतिम परिणाम हमेशा ही खुद समाज के रूप में दिखाई देता है अर्थात अपने सामाजिक संबंधों में स्वयं मनुष्य (ह्युमन बीइंग). हर चीज़ जिसका कोई स्थिर रूप होता है, जैसे कि उत्पाद आदि, इस मूवमेंट में महज एक मोमेंट की तरह ,एक गायब होते पल की तरह प्रतीत होते हैं. ’इसलिए पिछले दिनों जब यादवपुर के छात्रों ने नारा दिया ‘नो वन इज आउट साइडर’, तो वह आज की वस्तुगत स्थिति को ही प्रकट कर रहे थे.

आज की नौजवान पीढ़ी ने इतिहास के सबसे तीव्र परिवर्तनों का अनुभव हासिल किया है. हम सब के अनुभवों में इस दौर की कहानी है. आपात की इस सामान्य व्यवस्था को, इस स्थायी संकट को मजदूर वर्ग ने अपने अनुभव में महसूस किया है. पिछले दो ढाई दशकों में ही धीरे-धीरे हमारे आसपास के सारे कार्य स्थलों में इमरजेंसी लागू हो गयी है. इमरजेंसी एक डरी हुई व्यवस्था की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. यह फैक्टरियों से लेकर कैम्पसों तक जारी है. 

नरेन्द्र मोदी का उभार ऐसी सामान्य स्थितियों का ही संसदीय उभार है. इसी तरह लिंगदोह को हमने कैम्पस इमरजेंसी के रूप में ही पहचाना था. जे.एन.यू छात्र संघ चुनाव पर रोक लगा कर इस व्यवस्था ने संकेत दे दिया था कि उसे उदारवादी संस्थानों और उसके लोकतांत्रिक रूपों की अब कोई ज़रुरत नहीं रह गयी है. जैसे मजदूर वर्ग के हर तबके के लिए अब ज्यादा और ज्यादा रेजिमेंटेसन ज़रूरी हो गया है उसी तरह ज्ञान-उत्पादन में लगे छात्रों के लिए भी यह ज़रूरी था. जिस तरह उदारवाद के गहरे अंतर्विरोध नवउदारवाद के रूप में सामने आते हैं उसी तरह कैम्पसों में छात्रसंघ चुनाव के गहरे अंतर्विरोध से ही लिंगदोह सामने आता है. 

जिस बिड़ला-अम्बानी रिपोर्ट के आधार पर ‘लिंगदोह’ को गठित किया गया था उसका उद्देश्य स्पष्ट था- नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के रास्ते में छात्र राजनीति के रूप में एक बड़ी बाधा को कंट्रोल करना. यह अकारण नहीं कि छात्र राजनीति में धनबल-बाहुबल को रोकने के कथित उद्देश्य वाली लिंगदोह कमीटी की सिफारिशों में जे.एन.यू. छात्र संघ चुनाव के मॉडल को आदर्श मॉडल बताया गया! सवाल यह है कि जे.एन.यू. के ख़ास मामले में लिंगदोह के खिलाफ और सामान्यतः इस नवउदारवादी इमेरजेंसी के खिलाफ संघर्ष का रास्ता क्या होगा? बेंजामिन जिसे ‘वास्तविक आपात’(Real Emergency) कह रहा है उसका वास्तविक अर्थ हमारे कैम्पस की ठोस स्थितियों में क्या हो सकता है?

सामान्यतः इस स्थायी आपात के खिलाफ संघर्ष के दो रास्ते हैं. पहला कहता है कि ऐसे समय में उदारवादी/नेहरूवियन समाजवादी सुधारों के लिए संघर्ष किया जाए. आमतौर पर यह सुनने में आता है कि मजदूर वर्ग ने जो सहूलियतें साठ और सत्तर के दशक में खुद ही लड़ कर हासिल की थीं अब वो भी उनसे छिनी जा रही है. मसलन उनके यूनियन बनाने के अधिकार से लेकर हाल में हुए श्रम कानूनों में परिवर्तन तक यह चारों और स्पष्ट है. ऐसी स्थिति में ‘सुधार ही क्रांतिकारी राजनीति है’.

लिंगदोह के मामले में भी यही दृष्टि पुराने छात्र-संघ संविधान की पुनर्बहाली की राजनीति को क्रांतिकारी राजनीति के रूप में प्रस्तुत करती है. इस पुनर्बहाली की राजनीति के केंद्र में एक अतीतमुखी इतिहास दृष्टि है. यह दृष्टि मुख्यतः छात्र-राजनीति के और सामान्यतः मजदूर वर्ग की राजनीति के पुराने फॉर्म को ही ‘क्रांतिकारी’ मानती है. इस स्थिति में हम दो गलतियां साथ साथ करते हैं. पहला हम मजदूर-वर्ग के संघर्ष को अतीत के किसी ख़ास अनुभव में जड़ कर देखते हैं. ऐसा करते ही हम उस संघर्ष की प्रगतिशील भूमिका को नयी वास्तविक स्थितियों में विकसित नहीं कर पाते. दूसरी ओर हम ये भी नहीं समझ पाते कि पूँजी कैसे उन पुराने फॉर्म्स को खुद अपने विकास के लिए इस्तेमाल करने लगती है. पूँजी वस्तुतः एक गतिवान अंतर्विरोध है. वर्ग-संघर्ष से ही पूँजी गतिशील है. इसलिए अगर वह है और सब जगह है तो यह तो तय है कि पुराने फॉर्म्स खुद उसकी गति में योग दे रहे हैं. यह अकारण नहीं कि छात्र-मजदूर के नए संघर्ष छात्र संघों या ट्रेड युनियनस से लगातार अपनी दूरी बनाए है. ‘सुधारवादी’ राजनीति के बरक्स मजदूर वर्ग अपने रोज़मर्रा के संघर्षों और नए आन्दोलनों से क्रांतिकारी संघर्ष के नए आधारों को स्पष्ट कर रहा है. यह संघर्ष का दूसरा रास्ता है . 

इसी दिल्ली शहर के भीतर चल रहे IMT मानेसर, वजीरपुर, ओखला के संघर्ष हों या सोलह दिसंबर के बाद का आन्दोलन हो. इन आन्दोलनों के भीतर से संघर्ष और सोलिडेरिटी के नए आधार निरंतर सामने आ रहे हैं. मजदूर वर्ग को विभिन्न खांचों में बांटती और उस बंटवारे से अपने को पुनुरुत्पादित करती इस व्यवस्था को डर है कि ये आन्दोलन अपने होने में इस बंटवारे को तोड़ रही है. चाहे वो सेगमेंटेशन परमानेंट और कॉन्ट्रैक्ट मजदूरों का हो , या महिला और पुरुष मजदूरों का हो या फिर छात्र और औद्योगिक मजदूरों का हो. ये सोलिडेरिटी कोई आरोपित सोलिडेरिटी नहीं है. इसे इस नवउदारवादी आपात में भयानक रूप से बढे सर्वहाराकरण के अनुभवों से छात्र भी जानते हैं और मजदूर भी जानते हैं. 

इसलिए ये आन्दोलन आने वाले समय में मजदूर –छात्र एकता के नए सामान्य रूप का निर्देश भी करता प्रतीत होता है. जादवपुर आन्दोलन भी, पिछले दशक के मजदूर वर्ग के आन्दोलनों की तरह ही पुनः इस बात को सामने रखता है कि प्रतिनिधित्व की पूरी व्यवस्था एक वास्तविक संकट में है. (Regime of Representation is in real crisis). जिस तरह पुरानी ट्रेड यूनियनस से मजदूर आन्दोलन निरंतर दूरी बनाए हुए है वैसे ही जादवपुर और कोलकाता के छात्र-मजदूर पुराने यूनियनस और संगठनों के नामों से बचते हुए, खुद अपने आप को प्रस्तुत करते हुए आन्दोलन में शामिल होते हैं. प्रतिनिधित्व का यह संकट एक ओर प्रतिनिधिमूलक संसदीय व्यवस्था से गंभीर मोहभंग की आहट है, दूसरी ओर मजदूरवर्ग के संगठन के नए रूप के निर्माण की पीड़ा भी है. संघर्ष के इस दूसरे रास्ते को ध्यान में रखते हुए हम वापिस लिंगदोह के खिलाफ राजनीति के जे.एन.यू. मॉडल को समझने की कोशिश करते हैं.

2008 में जब छात्र संघ चुनाव प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट ने लिंगदोह की आड़ में रोक लगाई तो हमने यु.जी.बी.एम. से पारित किया कि हमें पुराने संविधान की पुनर्बहाली करनी है. अर्थात अपने शुरुआत से ही ‘पुनर्बहाली’ के सुधारवादी मॉडल को उद्देश्य बना कर हमने अपने को सीमित कर लिया! कहा गया कि जे.एन.यू. में लोकतंत्र का एक विकसित मॉडल है और लिंगदोह उसपे हमला कर रहा है इसलिए यहाँ हम उसका पूरा विरोध करते हैं. लेकिन जिन विश्वविद्यालयों में किसी लोकतांत्रिक प्रतिनिधि का चुनाव नहीं होता वहाँ हम लिंगदोह से ही सही चुनाव करवाए जाने की मांग को लड़ाई का एक आधार बनायेंगे. दूसरी अन्य जगहों पर जहाँ लिंगदोह से चुनाव संपन्न होते है मसलन दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र-संघ चुनाव, वहाँ हम चुनाव में भागीदारी करते हुए लिंगदोह का विरोध करेंगे. 

लिंगदोह के खिलाफ संघर्ष के लिए एक जॉइंट स्ट्रगल कमिटी बनायी गयी. कहा गया कि यह कमिटी दो फ्रंटों पर लड़ाई लडेगी. एक राजनीतिक दूसरा कानूनी. राजनीतिक लड़ाई में उसे एक राष्ट्रीय प्लेटफॉर्म के रूप में विकसित करते हुए देश के अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र-संघों और संगठनों को लिंगदोह के खिलाफ एक मंच पर लाया जाएगा और उसे एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन में बदला जाएगा. कानूनी लड़ाई के अंतर्गत हम सुप्रीम कोर्ट में अपने संविधान के पक्ष में केस लड़ेंगे. शुरूआती प्रदर्शनों के बाद पूरी लड़ाई मुख्यतः कानूनी लड़ाई में बदल गयी. 

साझे मंच के निर्माण की कोशिशें बुरी तरह असफल रही. अन्य कारणों के अलावा इसका एक प्रमुख कारण देश के अन्य विश्वविद्यालयों में छात्रों की वस्तुगत स्थिति का नितांत भिन्न होना भी शामिल था. जैसे-जैसे कोर्ट केस आगे बढ़ता गया राजनीतिक संघर्ष की दिशा अस्पष्ट होती गयी. कानूनी प्रक्रिया को तेज कराने को ही राजनीतिक संघर्ष बताया गया. जब न्यायिक सक्रियता का मामला बता कर सुप्रीम कोर्ट ने अन्य मामलों के साथ इसे भी संवैधानिक पीठ के ठंढे बसते में डाल दिया तो राजनीतिक संघर्ष का पुराना मॉडल एक अंधे मुहाने के सामने आ गया.

कोर्ट के सामने प्रदर्शन से ले कर सोलिसिटर जनरल के सामने केस की त्वरित सुनवाई के लिए प्रदर्शन आदि स्वयं में अर्थहीन और टोकन प्रतिबद्धता ही साबित हुए . राजनीतिक संघर्ष ज़ुरिडिकल हो गया! अब चुनाव के लिए समझौते के अलावा कोई रास्ता नहीं था. ऐसी स्थिति में लिंगदोह की आत्मा को बनाये रखते हुए कुछ टोकन रियायत के साथ चुनाव शुरू हुए. पिछले चुनावों के  अनुभव यह स्पष्ट करते हैं कि सामूहिक प्रतिनिधित्व और जे.एन.यू. की छात्र राजनीति उसी आपात का शिकार हो नख-दन्त विहीन हो गयी है. लिंगदोह अपने उद्देश्य में सफल होता गया. यहाँ की स्थापित राजनीतिक दृष्टि न तो विश्वविद्यालय रुपी फैक्टरी के छात्र-मजदूरों की वास्तविक स्थिति को समझ रही है और न ही लिंगदोह रुपी आपात के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष की वास्तविक दिशा को ही.

मजेदार बात यह है कि पिछले चुनावों के ठीक पहले जब छिटपुट तरीके से लिंगदोह पर चर्चा शुरू हुई तो पुनर्बहाली की राजनीति की हारी हुई दो दृष्टियों के बीच ही धींगामुश्ती हुई .एक दृष्टि कह रही थी कि हम कानूनी लड़ाई की व्यर्थता को जानते हैं और इसलिए सीधे पुराना संविधान बहाल करेंगे. यह दृष्टि सीधी पुनर्बहाली को क्रांतिकारी बताती है! दूसरी ओर कहा गया कि यह हरकत बेवकूफाना है. फिर से स्टे का खतरा है. आपके पास कोई ‘रोडमैप’ नहीं है! अर्थात पुनर्बहाली केवल कानूनी तरीके से ही संभव है. उसी के लिए संघर्ष लिंगदोह के खिलाफ वास्तविक संघर्ष है! पुनर्बहाली के ये दो रास्ते खुद पुनर्बहाली की व्यर्थता को सामने नहीं आने देना चाहते हैं. यह अतीतमुखी राजनीतिक दृष्टि है. आपात के खिलाफ ‘सुधारवादी’ संघर्ष है!

पुनर्बहाली न हो तो क्या हो? हमने ऊपर जिस दूसरे रास्ते की बात की थी उस सन्दर्भ में अगर जे.एन.यू. की ख़ास और ठोस परिस्थितियों को देखें तो हमें छात्र-मजदूर काउंसिल की दिशा में प्रयास करना होगा. सवाल है कि हमें सरकारी यूनियन ही क्यूँ चाहिए? चाहे वो पुराने रूप में हो या फिर लिंगदोह के नए रूप में! अगर हम जे.एन.यू. कैम्पस के पूरे स्पेस को देखें तो यहाँ जिस तरीके से सेगमेंटेसन है, मजदूरों –छात्रों-शिक्षकों-कर्मचारियों के बीच, उसी के सहारे यह पूरा स्पेस पूँजी के सामाजिक संबंधों को उत्पादित-पुनरुत्पादित कर रहा है. ऐसी स्थिति में मजदूरों और छात्रों की लड़ाई को स्टूडेंट यूनियन और ट्रेड यूनियन की आरोपित एकता के सहारे नहीं लड़ा जा सकता. 

मजदूर वर्ग का संघर्ष दिखा रहा है कि इस सेग्मेंटेसन को तोड़ने की प्रक्रिया में ही क्रांतिकारी संघर्ष की दिशा है. हमें अनिवार्यतः स्टूडेंट-वर्कर्स कौंसिल की दिशा में , जनरल असेम्बली की दिशा में बढना होगा. इस आपात को पूँजी के संबंधों के वास्तविक आपात में बदलना होगा. इसी रास्ते हम प्रशासन-ठेकेदारी और दक्षिणपंथी-अस्मितावादी राजनीति को वास्तविक चुनौती दे पायेंगे. यह रास्ता ही नवउदारवादी आपात को वास्तविक चुनौती दे पायेगा. और इसी रास्ते हम माओ की सीख को नया सन्दर्भ दे पायेंगे, संघर्ष की एकता नहीं वरन ‘संघर्ष में एकता और एकता में संघर्ष’!
                                                               
(जारी...)   शून्य इतिहास.

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