सत्येंद्र रंजन |
-सत्येंद्र रंजन
इन तबकों को शिकायत थी राइट्स बेस्ड एप्रोच के जरिए राजकोष का धन गरीबों पर लुटाया जा रहा है और उन्हें “निकम्मा” बनाया जा रहा है। मनरेगा जैसे कानूनों से ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन रुकने और मेहताना बढ़ने से सस्ते मजदूरों की कमी उनकी एक बड़ी शिकायत थी। उन्होंने मध्य वर्ग के सहयोग और मीडिया तंत्र के जरिए विकास के इस नजरिए की साख खत्म करने के लिए जोरदार अभियान चलाया। विकल्प के तौर पर विकास के “गुजरात मॉडल” का मिथ तैयार किया गया।
साभार- द हिन्दू |
कांग्रेस नेतृत्व वाला गठबंधन 2004 में एक खास परिस्थिति में सत्ता में आया। 14वीं लोकसभा के चुनाव में आम जन ने भारत उदय यानी इंडिया शाइनिंग के स्वांग को ठुकरा दिया था। दक्षिणपंथ और सांस्कृतिक रूढ़िवाद के खिलाफ ऐसा जनादेश सामने आया, जिसमें वामपंथी दलों के समर्थन के बिना सरकार बनना मुमकिन नहीं था। इन हालात में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए-1 सरकार बनी। उसके शासनकाल की खास पहचान विकास के प्रति अपनाए गए एक अलग नजरिए से बनी, जिसे rights based approach to development (विकास के प्रति अधिकार आधारित दृष्टिकोण) कहा गया। इसके तहत समाज के सबसे वंचित तबकों को जीवन की न्यूनतम परिस्थितियां उपलब्ध कराने के कानूनी प्रावधान किए गए। शुरुआत सूचना के अधिकार (आरटीआई) से हुई और फिर मनरेगा और वनाधिकार कानून अस्तित्व में आए। मुफ्त एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई), खाद्य सुरक्षा अधिनियम और नए भूमि अधिग्रहण कानून की नींव भी उसी दौर में पड़ी, हालांकि उन्हें अमली जामा यूपीए-2 के कार्यकाल में पहनाया गया।
यूपीए या कांग्रेस इस दृष्टिकोण में वास्तविक आस्था रखते थे, यह कहना कठिन है। इसके विपरीत मनमोहन सिंह और उनकी सरकार जीडीपी वृद्धि दर केंद्रित नीति पर ही चलना चाहते थे, जो ट्रिकल डाउन यानी विकास के फायदों के रिस कर सभी वर्गों तक पहुंचने की समझ पर आधारित है। मगर यूपीए सरकार राजनीतिक जरूरतों में राइट्स बेस्ड एप्रोच को आधे-अधूरे मन से चलाती रही। नया भूमि अधिग्रहण कानून और खाद्य सुरक्षा अधिनियम तो 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले चुनावी मकसदों से पास कराए गए। लेकिन तब तक आर्थिक वृद्धि दर गिर चुकी थी, दक्षिणपंथी शक्तियां ऐसा भ्रष्टाचार के कथानक से राजनीतिक चक्रव्यूह बुना कर उसमें कांग्रेस को उलझा चुकी थीं और उद्योग जगत तथा धनी-मानी तबके आम चुनाव के लिए अपना नया दांव चुन चुके थे। अनियंत्रित महंगाई ने उनका काम आसान बना दिया था।
इन तबकों को शिकायत थी राइट्स बेस्ड एप्रोच के जरिए राजकोष का धन गरीबों पर लुटाया जा रहा है और उन्हें “निकम्मा” बनाया जा रहा है। मनरेगा जैसे कानूनों से ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन रुकने और मेहताना बढ़ने से सस्ते मजदूरों की कमी उनकी एक बड़ी शिकायत थी। उन्होंने मध्य वर्ग के सहयोग और मीडिया तंत्र के जरिए विकास के इस नजरिए की साख खत्म करने के लिए जोरदार अभियान चलाया। विकल्प के तौर पर विकास के “गुजरात मॉडल” का मिथ तैयार किया गया। इसे इतने शोर के साथ प्रचारित किया गया कि कभी गुजरात ना गए और इस मॉडल की हकीकत से नावाकिफ लोग इसे अपनी हर समस्या का रामबाण समाधान मानने को प्रेरित हुए। कुल मिला कर पिछले लोकसभा चुनाव के परिणाम को तय करने में यह पहलू निर्णायक साबित हुआ।
तो अब देश और अनेक राज्यों में ऐसी सरकारें हैं, जो “गुजरात मॉडल” में यकीन करती हैं। सीधा परिणाम है कि राइट्स बेस्ड एप्रोच की जड़ें खोदी जा रही हैं। आरंभिक प्रयोग राजस्थान में हो रहे हैं। फिर राष्ट्रीय स्तर पर उसे लागू किया जा रहा है (या किया जाएगा)। वसुंधरा राजे की सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून के किसान समर्थक प्रावधानों को पलटने की पहल की है, श्रम सुधारों के नाम पर मजदूरों के बचे-खुचे अधिकारों को खत्म करने की तरफ गई है, आरटीई को सीमित करने का विचार रखा है, और अशोक गहलोत सरकार के दौर में अस्पतालों में मुफ्त दवा देने की शुरू की गई योजना पर लगभग विराम लगा दिया है। केंद्र सरकार ने मनरेगा को 200 जिलों में समेट कर और इसके बजट में मजदूरी का अनुपात घटा कर इसे निष्प्रभावी करने की पूरी तैयार कर ली है। खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर अमल लगातार टाला जा रहा है। इसके साथ पर्यावरण रक्षा प्रावधानों में दी जा रही ढील पर गौर करें, तो उद्योग और व्यापार क्षेत्र के लिए खुला मैदान तैयार करने की मौजूदा सरकार की प्राथमिकताएं खुद साफ हो जाती हैं।
सूचना के अधिकार कानून पर मंडरा रहे खतरों को इसी पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए। यूपीए के दौर में नए अधिकार देने वाले जो कानून बने, उनमें संभवतः यह अकेला था जो मध्य वर्ग में भी लोकप्रिय हुआ। शायद इसीलिए यह सबसे ज्यादा प्रभावी भी हुआ। इसकी वजह से सरकारों और प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही के एक नए दौर की शुरुआत हुई। कई मामलों में इसका स्वाभाविक परिणाम निर्णय प्रक्रिया के धीमी होने के रूप में आया। इस कारण निहित स्वार्थों द्वारा सरकारी निर्णयों को प्रभावित करना भी कठिन हो गया। इसलिए इस कानून को भोथरा करना उनकी प्राथमिकता बना रहा है। ऐसी कोशिशें यूपीए-2 के जमाने में भी हुईं, लेकिन तब के सियासी माहौल में वे कामयाब नहीं हो पाईं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जब अपना मामला आया है तो न्यायपालिका भी इस कानून को नियंत्रित करने में शामिल हो गई है। मद्रास हाई कोर्ट का हालिया फैसला (जिसमें कहा गया कि सूचना मांगने वाले को उसका कारण बताना होगा) इस बात की सिर्फ एक मिसाल है। न्यायपालिका के ऐसे रुख से जाहिरा तौर पर इस कानून से खफा शासन-व्यवस्था के दूसरे अंगों का मनोबल बढ़ा होगा।
वर्तमान माहौल को ये हिस्से अपनी अपनी मंशा पूरी करने के लिहाज से अनुकूल मानें, तो यह लाजिमी ही है। जब अर्थव्यवस्था और राजनीति में प्रगति की धारा उलट चुकी है, तो विकास को हर नागरिक के स्वतंत्रता के विस्तार के रूप में देखने वाले नजरिए का कायम रहना फिलहाल मुमकिन नहीं है। पिछले एक वर्ष में हुए तमाम चुनावों में उभरे जनादेश का पैगाम यह है कि राइट्स बेस्ड एप्रोच राजनीतिक बहुमत जुटाने के लिहाज से अप्रभावी है। इसके विपरीत “गुजरात मॉडल” के इर्द-गिर्द जो कथानक बुना गया, उसका आकर्षण जनता के एक बड़े हिस्से में लगातार कायम है। यह राइट्स बेस्ड एप्रोच से ही हुआ कि विश्व भूख सूचकांक में भारत ने सात पायदानों की छलांग लगाई, देश में प्राथमिक शिक्षा में दाखिला तकरीबन 95 फीसदी तक पहुंचा, पिछड़े ग्रामीण इलाकों से आबादी के पलायन की गति धीमी पड़ी, देहाती इलाकों में आमदनी बढ़ी और बड़ी संख्या में लोग गरीबी से ऊपर उठ कर नव-मध्य वर्ग का हिस्सा बने। दूसरी तरफ अलग मॉडल वाले गुजरात में वृद्धि दर औसत तथा मानव विकास सूचकांकों पर प्रगति निम्नतर रही है। लेकिन इस नजरिए से खफा वर्गों ने अपने धन और प्रचार-तंत्र के जरिए “गुजरात मॉडल” का ऐसा कहानी बनाई है, जो कारगर है। आरटीआई के खतरे में पड़ने की असली जड़ें इसी कहानी में छिपी हैं। प्रतीकात्मक तौर पर कहें कि अगर आरटीआई कानून राजनीति की प्रगतिशील दिशा का परिणाम था, तो राजनीतिक प्रति-क्रांति के इस दौर के नतीजों से वह बचा नहीं रह सकता, बशर्ते जनता का एक सशक्त हिस्सा उसके पक्ष में सक्रिय हस्तक्षेप करे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल जामिया मिल्लिया
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.