16 मई के बाद केन्द्र में अच्छे दिनों का वादा कर आई नई सरकार ने जिस तरह से सांप्रदायिकता और काॅरपोरेट लूट को संस्थाबद्ध करके पूरे देश में अपने पक्ष में जनमत बनाने की आक्रामक कोशिश शुरु कर दी है उसके खिलाफ जनता भी अलग-अलग रूपों में अपनी चिन्ताओं को अभिव्यक्ति दे रही है।
जिस तरह चुनावों के दरम्यान सांप्रदायिक माहौल खराब किया जा रहा है, कहीं ‘लव जिहाद’ के नाम पर महिलाओं के अधिकारों का दमन कर सामंती पुरुषवादी ढांचे का विस्तार किया जा रहा है तो उसके बरखिलाफ हमारे रोज-मर्रा के सवालों से टकराता देश का कवि समाज भी मुखरता से आगे आया है।
ऐसे ही कविताओं को एक मंच पर लाने के लिए रविवार, 9 नवंबर 2014 को सीपीआई कार्यालय अमीरुद्दौला पब्लिक लाइब्रेरी के पीछे शाम 4 बजे से ‘कविता: 16 मई के बाद’ का आयोजन प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, इप्टा, जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसाइटी द्वारा किया जा रहा है।
इप्टा कार्यालय पर विभिन्न लेखक, रंगकर्मी और सामाजिक संगठनों ने इस आयोजन के संदर्भ में बैठक की। बैठक में वक्ताओं ने कहा कि सत्ता में आने के बाद भाजपा जिस अंधराष्ट्रवाद को भड़का रही है वह एक प्रकार का उन्माद है जो एक ओर बहुसंख्य जनता को आसन्न खतरे के प्रति सचेत नहीं होने देता वहीं दूसरी ओर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर कमजोर समुदायों को पहचान की राजनीति की ओर धकेल देता है।
पहचान की राजनीति एक साथ तीन काम करती है - अंध-राष्ट्रवाद की कारस्तानियों को उचित ठहराती है, नई चुनौतियों का सामना करने के लिए कमजोर समुदायों के हाथों में आधुनिक तर्क देने की जगह उसे अतीतोन्मुख कर देती है, उसे मिथकों में उलझा देती है, और इस तरह सामंती और मनुवादी वर्चस्ववादी संस्कृति को मजबूत होने का मौका देती है।
वक्तओं ने कहा कि यही वह समय है जब प्रतिरोध की संस्कृति भी अपने को और अधिक धारदार तरीके से अभिव्यक्त करती है। ‘कविता: 16 मई के बाद’ इस प्रतिरोध की संस्कृति को एक साझे मंच पर लाने की कोशिश है।
बैठक में राकेश, कौशल किशोर, अजीत प्रियदर्शी, आदियोग, राम कृष्ण, मो0 शुऐब, शाहनवाज आलम आदि शामिल हुए।