विनय सुल्तान |
-विनय सुल्तान
"...इस मामले को समझने के लिए हमें फ़ोर्ब्स पत्रिका के 16 सितम्बर को छपे लेख ‘India's War On Intellectual Property Rights May Bring With It A Body Count’ के तर्कों को समझना जरुरी है. इस लेख में तरह-तरह तर्कों के जरिए जिरह की गई थी कि किस प्रकार भारत के बौद्धिक सम्पदा कानून अमेरिकी दवा कंपनियों को नुकसान पहंचा रहे हैं.…"
सितम्बर के आखिरी सप्ताह में नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा से गालिबन एक सप्ताह पहले राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने रात को जारी किए गए एक आदेश के जरिए उन 108 दवाओं पर से अपना नियंत्रण हटा लिया जिसे उसने दो महीने पहले ही नियंत्रित दवाओं की श्रेणी में रखा था. एनपीपीए ने इस बारे इसके इतर कोई जानकारी नहीं दी कि वो इन 108 दवाओं से नियंत्रण हटा रहा है. इस बाबत छपे समाचारों में सूत्रों के हवाले से कहा गया था कि कोई ‘अमेरिकी लॉबी’ जीवन रक्षक दवाओं की कीमत में बढ़ोत्तरी के लिए जिम्मेदार है.
इससे पहले रसायन और उर्वरक मंत्री निहाल चंद मेघवाल ने 18 जुलाई को राज्यसभा में दवाओं की कीमत तय करने के बाबत दिए गए लिखित जवाब में कहां था कि ‘मधुमेह और हृदय रोग के उपचार से संबंधितगैर-अधिसूचित 108 दवाओं के संदर्भ में अधिकतम खुदरा कीमत की सीमा तय करनेके लिए राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) की दखल केपरिणामस्वरूप इन दवाओं की कीमतों में लगभग 01 प्रतिशत से लेकर 79 प्रतिशततक कमी आयी है. ये 108 दवाएं आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची में शामिलनहीं हैं और औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 के पैरा 19 के अधीन इनकी कीमतोंमें कमी की गयी है.’तो आखिर दो महीने में ऐसा क्या हुआ कि सरकार को इन दवाओं की कीमत तय करने के मामले में यू-टर्न लेना पड़ा. इन 108 दवाओं में एड्स, मधुमेह, रक्तचाप और कैंसर जैसे रोगों की दवाएं हैं.
निहाल चंद मेघवाल के जवाब से यह बिलकुल साफ़ था कि दवाओं की कीमतों के नियमन में किसी भी प्रकार की कानूनी प्रक्रिया को नहीं तोड़ा गया था. औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 के पैरा 19के अनुसार यदि जरुरी हो तो ‘जनहित’ के आधार पर उन दवाओं की कीमत को भी नियंत्रित किया जा सकता है जो ‘आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची से बाहर है. ऐसे में NPPAका बिना कारण बताए अचानक नियंत्रण हटाना किसी बाहरी दबाव की ओर संकेत करता है.
इस मामले को समझने के लिए हमें फ़ोर्ब्स पत्रिका के 16 सितम्बर को छपे लेख ‘India's War On Intellectual Property Rights May Bring With It A Body Count’ के तर्कों को समझना जरुरी है. इस लेख में तरह-तरह तर्कों के जरिए जिरह की गई थी कि किस प्रकार भारत के बौद्धिक सम्पदा कानून अमेरिकी दवा कंपनियों को नुकसान पहंचा रहे हैं. लेख के अनुसार भारत Global Intellectual Property Centerकी सूची में सबसे आखिरी पायदान पर है.
पत्रिका के अनुसार भारत का बौद्धिक सम्पदा कानून पर हमला पिछले दो साल में तेजी से बढ़ा है. भारत ऐसा अपने जेनरिक दवा उद्योग को बढ़ावा के लिए कर रहा है. लेख में अमेरिकी राष्ट्रपति को मोदी से मुलाकात के दौरान इस मुद्दे को अहम तौर पर उठाने की हिदायत दी गई थी. आपको बता दें भारत दुनिया का सबसे बड़ा जेनरिक दवा निर्यातक देश है. भारत सहित तीसरी दुनिया की बड़ी गरीब आबादी अपनी जान बचाने के लिए इन्ही जेनरिक दवाओं पर निर्भर है. फ़ोर्ब्स द्वारा यह हास्यास्पद तर्क तब दिए जा रहे हैं जब अमेरिकी कांग्रेस में जेनरिक दवाओं की कीमतों में हो उछाल के बाबत जांच चल रही है.
अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट कानून के अनुसार अगर आवश्यक हो तो कोई भी देश किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के पेटेंट को ताक पर रख कर अन्य उत्पादकों को पेटेंटशुदा उत्पाद को बनाने की इजाजत दे सकती है. इस व्यवस्था को ‘अनिवार्य लाइसेंसिंग’ का नाम दिया गया है. भारत के अपने पेटेंट कानून हैं. अब तक भारत तमाम अतर्राष्ट्रीय दवाओं को नकारते हुए अपने पेटेंट कानूनों को स्वीकार करता आया था. नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के बाद यह समीकरण बदल गए हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के बाद जारी संयुक्त बयान में उच्च स्तरीय आईपी वर्किंग ग्रुप बनाने की बात कही गई. इसके बारे में अन्दर के पन्नों में विस्तार से जानकारी देते हुए कहा गया है, “भारत ने अब तक कॉपीराईट के संरक्षण के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए हैं. भारत अपने पेटेंट कानून को खासतौर पर इनोवेटिव अमेरिकी फार्मा कंपनियों के खिलाफ पक्षपाती ढंग से लागू करता है, जिससे घरेलू फार्मा उद्योग को मदद पहुंचाई जा सके.” इस करार के जरिए भारत के रॉकस्टार प्रधानमंत्री ने अमेरिकी एजेंसियों को भारतीय पेटेंट कानून में सीधे तौर पर नाक घुसाने की छूट दे दी. मोदी की अमेरिका यात्रा से पहले इन 108 दवाओं की कीमत में हुए 100 गुना तक के उछाल को इसी सन्दर्भ में देखे जाने की जरुरत है.
आपको बता दें अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियां पेटेंट कानून को अपनी मोनोपोली बनाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं. ब्रिटिशसरकार द्वारा बौद्धिक संपदा कानून पर एक आयोग गठित किया गया था. आयोग नेअपनी 2002 की रिपोर्ट में कहा है कि लंबी अवधि तक पेटेंट संरक्षण देने की तुलनामें कम समय तक संरक्षण देना लाभप्रद रहा है. 2008 में संयुक्त राष्ट्र केएक संस्थान ने भारत तथा चीन के पेटेंट कानूनों का तुलनात्मक अध्ययन कियाथा. चीन में डब्ल्यूटीओ के अनुरूप पेटेंट व्यवस्था 1993 में कर दी गई थी, जबकि भारत में यह 2005 में लागू हुई. चीन में दवा की उपलब्धता भारत कीतुलना में कम थी. निष्कर्ष निकाला गया कि पेटेंट संरक्षण का चीनी दवाउद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा.
भारत में बड़ी आबादी स्वास्थ्य सेवाओं की जद से दूर है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश की दो-तिहाई आबादी स्वास्थ्य सेवाओं की जद से बाहर है. पचास फीसदी गांवों में किसी किस्म की मेडिकल सुविधा हम अब तक उपलब्ध नहीं करवा पाएं हैं. 10 फीसदी बच्चे अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते. बच्चों में कुपोषण की दर पचास फीसदी है. जबकि भारत दवा उत्पादन में विश्व के अग्रणी देशों में से एक है. भारत में स्वाथ्य सेवाओं के हालत इस तथ्य से स्पष्ट हो जाते हैं कि यहां 1700 की आबादी पर एक डॉक्टर ऊपलब्ध है. अधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक देश में मधुमेह के 4.1 करोड़, दिल संबंधी बिमारियों के 4.7 करोड़, टीबी के 22 लाख, 11 लाख कैंसर और 25 लाख एड्स के मरीज हैं. इन 108 दवाओं में इन रोगों सम्बंधित दवाएं भी शामिल हैं. इसके अलावा संक्रमण रोधी उच्च क्षमता वाली एंटी बायोटिक भी शामिल हैं. सरकार के इस फैसले से ये रोगी सीधे तौर पर प्रभावित होने जा रहे हैं. दवा कंपनियों को फायदा देने के लिए सरकार जिस तरह से लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया है उससे पब्लिक हेल्थ के ‘अच्छे दिनों’ के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं.
नरेंद्र मोदी अपने ‘मेक इन इंडिया’ प्रोग्राम को सफल बनाने के तलब में जिस तरीके से देश की संप्रभुता को अंकल सैम के सामने गिरवी रख के आये उसके नतीजे सामने आ रहे हैं. अक्तूबर के दूसरे सप्ताह में यूएस ट्रेड रिप्रजेंटेटिव (USTR) ने भारतीय IPR के सम्बन्ध में नए सिरे से जांच शुरू कर दी है. इसकी रिपोर्ट इस साल में अंत में आने की संभावनहै. इस प्रसंग को मोदी की तथाकथित आक्रामक विदेश नीति का लिटमस टेस्ट के रूप मेंदेखा जा सकता है.
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