अवैध धन के मुद्दे पर एनडीए सरकार इसलिए घिरी है, क्योंकि उसने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा कि वह उन नामों को नहीं बता सकती, जिनके पास विदेशी बैंकों में खाता होने की जानकारी उसके पास आई है। इसके लिए सरकार ने दोहरे कराधान बचाव संधि (डबल टैक्सेसन एवॉयडेन्स ट्रीटी- DTAT) का तर्क दिया, जो 1995 में पीवी नरसिंह राव के जमाने में हुई थी। सरकार ने कहा कि अगर उसने नाम बताए तो वह इस संधि का उल्लंघन होगा, और उसके बाद जो नाम दूसरे बैंक बताने वाले हैं, वे मुकर जाएंगे।
ध्यानार्थ है कि इस वर्ष अप्रैल में लीच्टेंनस्टीन (Liechtenstein) के बैकों में जिन भारतीयों के खाते हैं, उनके बारे में जानकारी आई थी। तब यूपीए सरकार ने भी यही कहा था कि DTAT के कारण नाम नहीं बताए जा सकते।
लेकिन इन तर्कों को सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में हलफनामा दायर करने वाले वकील राम जेठमलानी ने सिरे से खारिज कर दिया है। उन्होंने कहा है कि सरकार DTAT का बहाने की तरह इस्तेमाल कर रही है। वित्त मंत्री अरुण जेटली को लिखे उनके पत्र की निम्नलिखित लाइनें महत्त्वपूर्ण हैं-
"The Germans never spoke of the DTAT. Our people deliberately brought it in as a certain method of rendering the entire investigation futile and making our corrupt rulers escape arrest and prosecution,"
भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में सारा अवैध धन वापस लाने का वादा किया था। जेठमलानी ने जेटली से कहा है कि नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान के दौरान जो (सद्भाव) निर्मित किया था, उसे आप बर्बाद कर रहे हैँ।
केंद्र के पिछले हफ्ते दिए हलफनामे के बाद से मीडिया, सोशल मीडिया और जनता के स्तर पर सरकार की कड़ी आलोचना हुई है। इसे भाजपा का यू-टर्न बताया गया है। जेटली के इस बयान से सरकार के लिए और परेशानी खड़ी हुई कि नाम सामने आए तो कांग्रेस के लिए शर्मिंदगी पैदा होगी। कांग्रेस का इस पर जवाब है कि जेटली ब्लैक मनी से ब्लैक मेल पर उतर आए हैं। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि नाम सामने आने पर किसी व्यक्ति को तो शर्मिंदगी पैदा हो सकती है, लेकिन पार्टी के लिए क्यों परेशानी खड़ी होगी?
1-सरकार क्यों घिरी है?
- ताजा विवाद इसलिए भड़का क्योंकि विदेशी बैंकों में खाता रखने वाले लोगों के नाम उजागर करने के प्रश्न पर वर्तमान सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ठीक वही दलील पेश की, जो पूर्व यूपीए सरकार देती थी। यानी दोहरे कराधान से बचने संबंधी करार के कारण ये नाम नहीं बताए जा सकते। क्या इस पर आम जन और मीडिया की आक्रोश भरी प्रतिक्रिया लाजिमी नहीं है?
- आखिर यह बात अभी जन-स्मृतियों में ताजा है कि पिछले आम चुनाव से पहले और प्रचार अभियान के दौरान भाजपा नेताओं ने कितने आक्रामक ढंग से ये मुद्दा उठाया था। तब उन्होंने नाम ना बताने को पूर्व सरकार की अनिच्छा से जोड़ा था। जब वही तर्क वर्तमान सरकार ने दिए, तो क्या यह कहना उचित नहीं है कि वह भी देश का धन विदेशों में जमा कराने वाले लोगों के नाम सामने नहीं आने देना चाहती?
- सरकार के हलफनामे के बाद भाजपा पर आरोप लगा कि उसने इस मुद्दे पर जनता को गुमराह किया? क्या सच नहीं है?क्या भाजपा इतनी भोली या ना-जानकार है कि उसे DTAT के बारे में पता नहीं था?
- अगर यह पता था तो उसने 150 के दिन के अंदर सारा अवैध धन लाने और दोषियों के नाम उजागर करने के वादे क्यों किए?उसने यूपीए को तब कठघरे में खड़ा करने की कोशिश क्यों की?
- स्पष्टतः इस घटनाक्रम से बने माहौल से भाजपा सरकार परेशान नजर आती है। लेकिन बचाव में उसके मंत्री जो बातें कह रहे हैं, क्या उससे स्थिति स्पष्ट होने के बजाय और उलझ नहीं रही है?
- वित्त मंत्री अरुण जेटली का यह कहना अनेक लोगों के गले नहीं उतरा कि नाम सामने आने से कांग्रेस के लिए शर्मिंदगी खड़ी होगी। आखिर भाजपा सरकार को इस बात को एक धमकी के रूप में क्यों कहना चाहिए?
- मुश्किल यह है कि सरकार से सवाल देश पूछ रहा है, जबकि वह कांग्रेस को जवाब देती लगती है? क्या भाजपा और कांग्रेस दोनों को यह नहीं समझना चाहिए कि यह उनके आपस का मामला नहीं है?
- इस मामले में पूरी सच्चाई सामने रखने के बजाय एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करके ये दोनों पार्टियां क्या आम जन के मन में पूरी राजनीतिक व्यवस्था के प्रति बैठे संदेह को और गहरा नहीं कर रही हैं?
- कुछ खबरों में जिक्र हुआ है कि आलोचनाओं को टालने के लिए सरकार सुप्रीम कोर्ट में पूरक हलफ़नामा देख कर कुछ नामों की जानकारी उसे देगी। लेकिन क्या यह एक और गलत कदम नहीं होगा?
- क्या इससे यह संदेश नहीं जाएगा कि सरकार अपनी सुविधा से कुछ लोगों की करनी सार्वजनिक कर रही है, जबकि वह कुछ लोगों को बचा रही है?
- क्या सरकार के लिए एकमात्र बेहतर विकल्प यह नहीं है कि उसके पास जितने नाम हैं, वह उन्हें एक साथ बताए? इससे कौन फंसेगा और किसके लिए मुश्किल खड़ी होगी, इसकी चिंता वह क्यों कर रही है?
2-क्या वर्तमान सरकार झूठे श्रेय ले रही है?
- भाजपा और सरकारी प्रवक्ता बार-बार कहते हैं कि वर्तमान मंत्रिमंडल ने अपनी पहली ही बैठक में अवैध धन की जांच के लिए एसआईटी (विशेष जांच दल) बनाने का निर्णय किया। लेकिन क्या ये सच्चाई नहीं है कि यह दल बनाने का निर्देश सुप्रीम कोर्ट का था और सर्वोच्च न्यायालय ने इसके लिए समयसीमा भी तय कर दी थी?
- यह ठीक है कि जब तीन साल पहले कोर्ट ने पहली बार यह निर्देश दिया, तो यूपीए सरकार उसे दबाए बैठी रही। मगर इस वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीरता से लिया और समयसीमा तय की। लेकिन तब तक लोकसभा चुनावों के नतीजे आने की तारीख करीब आ चुकी थी और यूपीए सरकार ने यह निर्णय अगली सरकार पर छोड़ दिया। इस तरह न्यायिक आदेश का पालन कर खुद पर श्रेय लेना कितना सही है?
- सरकार और भाजपा के प्रवक्ता बार-बार स्विट्जरलैंड से अवैध धन संबंधी खातों की जानकारी के आदान-प्रदान के समझौते को अपनी सरकार की सफलता बता रहे हैं। मगर क्या ये सच नहीं है कि टैक्स चोरी के अड्डों के दिन अब लद रहे हैं? दुनिया के सबसे प्रभावशाली 20 देशों के मंच ग्रुप-20 में सहमति बनी थी कि इसके सदस्य सभी देश 2017 से हर साल उनके पास मौजूद बैंक सभी सूचनाएं स्वतः जारी किया करेंगे?
- दरअसल, जी-20 की सहमति से 47 धनी देशों के संगठन- ऑर्गनाइजेशन ऑफ इकॉनोमिक कॉ-ऑपरेशन एवं डेवलपमेंट (ओईसीडी) ने जो समझौता किया था, उसे वैश्विक स्तर पर लागू करने का रास्ता साफ हुआ। ओईसीडी के समझौते में प्रावधान था कि सरकारें सभी प्रकार की वित्तीय सूचनाओं का आपस में आदान-प्रदान करेंगी। इन जानकारियों में बैक खातों में जमा रकम, उस पर मिले डिविडेंड, ब्याज, पूंजीगत-लाभ कर की गणना के लिए इस्तेमाल बिक्रय प्राप्तियां आदि शामिल हैं। इस प्रक्रिया के तहत, जिसमें पूर्व यूपीए सरकार भी शामिल थी, ये बात आगे बढ़ी है। वर्तमान सरकार इसका श्रेय लेना कितना तथ्यात्मक (factual) है?
- हकीकत यह है कि ओईसीडी के समझौते पर दुनिया की 85 प्रतिशत अर्थव्यवस्था के मालिक जी-20 का वरदहस्त आने के बाद काले धन के किसी अड्डे के लिए पहले की तरह गोपनीयता बरतना संभव नहीं रह जाएगा। चूंकि यह प्रावधान समझौते में शामिल है कि तमाम बैंकों को पांच से छह साल पहले तक की जानकारियां भी देनी होंगी, अतः अब अगर किसी टैक्स चोर ने अपने खाते बंद करवा लिए, तब भी उससे जुड़ी पुरानी सूचनाएं सामने आ जाएंगी। इस बात को इसी रूप में आम जन को क्यों नहीं बताया जा रहा है?
- जी-20 के मंच पर काले धन को पर्दाफाश करने की कारगर व्यवस्था बनाने के लिए पिछले कई वर्षों से भारत भी प्रयासरत् था। परंतु इसका वास्तविक प्रेरक कारण 2007-08 से अमेरिका में आई मंदी रही। इसके बाद देश से बाहर जाने वाला धन अमेरिका के लिए भी महत्त्वपूर्ण हो गया। तब बराक ओबामा प्रशासन ने टैक्स चोरी के अड्डों पर दबाव बनाने की रणनीति अपनाई, जिसके परिणाम अब सामने आ रहे हैँ। क्या वर्तमान सरकार ये बता सकती है कि इसमें उसका क्या खास योगदान है?
3-क्या असली समस्या देश के अंदर नहीं है?
- वैसे काले धन पर पूरे नियंत्रण के लक्ष्य को अगर ध्यान में रखें, तो विदेशों में हो रहे समझौते सीमित संतोष की बात ही होंगे। क्या ये सच नहीं है कि असली समस्या विदेशी बैंक नहीं, बल्कि देश के अंदर है?
- क्या यह हकीकत नहीं है कि देश का धन विदेशी बैंकों में इसलिए गया, क्योंकि देश में काले धन पैदा होने के अनुकूल स्थितियां रहीं?
- और ऐसा इसलिए संभव नहीं हुआ कि हमारी टैक्स निगरानी और कानून लागू करने वाली एजेंसियां ईमानदारी तथा कुशलता से काम नहीं करतीं?
- रिएल एस्टेट जैसे कई क्षेत्र हैं, जहां काले धन का बोलबाला है। क्या असली चुनौती यह नहीं है कि इन सब पर रोक लगे?
- और जब तक यह नहीं होता, काले धन के विदेशी अड्डों से परदा हटने से देश को आंशिक लाभ ही होगा?
- इन सारे पहलुओं पर सरकार देश को भरोसे में क्यों नहीं लेती?
- क्या वो भूल गई है कि इस मुद्दे पर विश्वसनीय कदम ना उठा कर कांग्रेस जनता की अदालत में कठघरे में पहुंची थी। उसके इरादे संदिग्ध दिखे, तो उसे इसकी कितनी महंगी कीमत उसे चुकानी पड़ी, इसे हाल के हर चुनाव परिणामों पर गौर करते हुए समझा जा सकता है। क्या अब भाजपा अपने इरादे को संदिग्ध नहीं बना रही है? लोग पूछ रहे हैं कि क्या अवैध धन रखने वालों को बचाने में उसका कोई निहित स्वार्थ है?
- सरकार को यह अवश्य समझना चाहिए कि 2011 के अन्ना आंदोलन के समय से इस विषय में इतनी चर्चा हुई है कि आम जन उन लोगों का ब्योरा जानने के लिए बेसब्र हैं, जिन्होंने भारतीय कानूनों को धता बता कर देश का धन विदेशों में जमा कर रखा है। ऐसे लोग देश के कानून के तहत सजा के हकदार हैं। उनके प्रति नरमी बरतने वाले दल या सरकार जनाक्रोश का केंद्र बनेंगे। तो वह क्यों नहीं बताती कि पिछले पांच महीनों में उसने अवैध धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या खास पहल की है?
- कम अवधि का तर्क शायद इसलिए स्वीकार्य नहीं होगा, क्योंकि ये मुद्दा तीन वर्ष से देश के एजेंडे में ऊपर है और खुद भाजपा ने इसे तीव्र स्वर से उठाकर बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था। उसने इस कार्य को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता क्यों नहीं बनाई?