–संजय कुमार बलौदिया
"...सवाल ये है कि जब 2012-13 में यह 31 प्रतिशत था, तो 2013-14 में घटकर 17.30 प्रतिशत कैसे हो सकता है। जबकि 2010 से 2012 के बीच सिर्फ 10 फीसदी की गिरावट आई थी। तब महज एक साल में 13.50 फीसदी की गिरावट आ सकती है ? जबकि यह बात स्पष्ट है कि इस तरह के आंकड़ों में मामूली बढ़ोतरी होती है या फिर मामूली गिरावट आती है। इस वजह से लड़कियों के लिए अलग शौचालय के आंकड़ों में तेजी से आई गिरावट विश्वसनीय नहीं लगती है।..."
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इसीसाल जनवरी में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अपने आंकड़ों में बताया था कि 2009-10 में 41 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं थी, लेकिन 2012-13 में यह संख्या घटकर 31 फीसदी रह गई। लेकिन 2013-14 में 17.30 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं हैं और शौचालय काम नहीं कर रहे हैं (जिसे मीडिया में 19 फीसदी बताया गया है)।
सवाल ये है कि जब 2012-13 में यह 31 प्रतिशत था, तो 2013-14 में घटकर 17.30 प्रतिशत कैसे हो सकता है। जबकि 2010 से 2012 के बीच सिर्फ 10 फीसदी की गिरावट आई थी। तब महज एक साल में 13.50 फीसदी की गिरावट आ सकती है ? जबकि यह बात स्पष्ट है कि इस तरह के आंकड़ों में मामूली बढ़ोतरी होती है या फिर मामूली गिरावट आती है। इस वजह से लड़कियों के लिए अलग शौचालय के आंकड़ों में तेजी से आई गिरावट विश्वसनीय नहीं लगती है।
इसी रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली के सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था है और सभी शौचालय ठीक से काम कर रहे हैं। जबकि हाल ही में एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक साउथ दिल्ली के बदरपुर में मोलरबंद गवर्मेंट बॉयस सीनियर सेकेंड्ररी स्कूल में शौचालय बदबूदार मिले। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि आंकड़ों में कुछ न कुछ गड़बड़ है।
उत्तरप्रदेश में कुल सरकारी स्कूल 160763 है, जिनमें से सिर्फ 2355 स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है, जोकि 1.46 प्रतिशत है। जबकि 4634 स्कूलों में लड़कियों के शौचालय काम नहीं कर रहे हैं, जोकि 2.91 प्रतिशत है। इसी साल के प्रथम संस्थान के सेंटर "असर" (एनुवल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) के सर्वे के मुताबिक प्रदेश के विद्यालयों में 2013 में 80 फीसद स्कूलों में पेयजल की सुविधा हो चुकी है, 79.9 फीसद स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय पाया गया।
इसके बाद भी दुर्भाग्य की स्थिति रही कि 44 फीसद स्कूलों में ही शौचालय उपयोग करने के योग्य मिले। प्रथम की रिपोर्ट के मुताबिक 20 फीसदी में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है, जबकि राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के मुताबिक सिर्फ 1.46 फीसदी स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि असर के सर्वे में सरकारी और निजी दोनों स्कूलों शामिल है, लेकिन तब भी असर और राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों में काफी अंतर दिखता है। दो संस्थानों के अध्ययनों में 1-2 फीसदी अंतर तो हो सकता है, लेकिन यहां अंतर 18 फीसदी है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि यह सिर्फ आंकड़ो का खेल है।
इसीरिपोर्ट के गुजरात के आंकड़ों के मुताबिक 33713 स्कूल में से सिर्फ 87 स्कूलों लड़कियों के लिए अलग शौचालय नही है और 869 स्कूलों में लड़कियों के शौचालय ठीक से काम नहीं कर रहे है। जबकि बुनियादी अधिकार आंदोलन गुजरात (बाग) ने गुजरात के 249 स्कूलों प्राइमरी स्कूलों में सर्वे किया जिसमें कच्छ, बनासकांठा, सुरेन्द्रनगर, नर्मदा, दाहोद, पंचमहल, अहमदाबाद जिले शामिल किए गए। बनासकांठा के सात प्राइमरी स्कूलों, सुरेन्द्रनगर के तीन प्राइमरी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है। बाकी के पांच जिलों के कुछ स्कूलों में पानी के पानी की सुविधा भी नहीं है। बुनियादी अधिकार आंदोलन गुजरात ने 249 प्राइमरी स्कूलों में सर्वे किया जिसमें से 10 प्राइमरी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की सुविधा नहीं है, तब राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों को कैसे विश्वसनीय कहा जा सकता है।
एकसवाल यह भी है कि लड़कों के लिए भी शौचालय की व्यवस्था लड़कियों के मुकाबले कोई बेहतर नहीं है। क्योंकि कुल सरकारी स्कूल 10,94,431 में से 1,52,231 स्कूलों में लड़कों के लिए शौचालय सुविधा नहीं है। लेकिन मीडिया ने सिर्फ लड़कियों के लिए शौचालय न होने के आंकड़ों को लेकर ही खबर बनाई। जिससे ऐसा लगता है कि लड़कों के लिए शौचालय की समस्या ही नहीं है। स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था लड़के और लड़कियों दोनों के जरूरी है।
दरअसल सभी लोग आंकड़ों का इस्तेमाल अपनी सुविधानुसार करते हैं। सरकार आंकड़ों के जरिए अपनी उपलब्धियां बताती है, तो वहीं एक पत्रकार उन्हीं आंकड़ों से सरकार की उपलब्धियों की पोल खोल सकता है। सारा मामला यह है कि हम किस तरह से आंकड़ों को प्रस्तुत करते है। आंकड़ों का स्वयं में कोई महत्व नहीं है। अहम बात यह है कि हम आंकड़ों को किसलिए और किस तरह से तैयार कर रहे है। आंकड़ों के जरिए हम क्या बताना चाहते है।