"...अब लोग कलाकार को पक्षकार नहीं मानते, चीजों के प्रस्तोता भर में रिड्यूस कर देते हैं। विशाल याद दिलाते हैं एक फिल्मकार का अपना पक्ष होना जरूरी है। फिल्म के अलग-अलग फ्रेम फिल्मकार के अलग-अलग पक्षों की कहानी बयां करते हैं। कुछ लोग गलत कहते हुए इसे ’संतुलन की कवायद का नाम’ दे देते हैं।..."
मोटे तौर पर यह माना जाता है कि फिल्म के पेशे से जुड़े लोगों को उनके वक्त की फिल्मों के बारे में राय जरूर रखनी चाहिए, पर उन्हें उन पर कोई लिखित निर्णय या उसकी विस्तृत विवेचन मीमांसा करने या फिल्मी पत्रकारिता करने से बचना चाहिए। फिल्म लिखना-बनाना और फिल्मी पत्रकारिता करना दोनों दो जुदा चीजें हैं उन्हें आपस में मिक्स ना किया जाए, यही बेहतर है। वरना फिल्म समीक्षा कर फिल्मी जनसंपर्क बढ़ाने या वाजिब बात या सच लिख कर संबंधित पक्षों से बिगाड़ मोल लेने वालों की कोई कमी नहीं है। यही बातें सोच कर इन पंक्तियों के लेखक ने फारवर्ड प्रेस पत्रिका में अपना सिनेमा का कॉलम करीब पांचेक माह में ही बंद कर दिया कि अपना काम फिल्म लिखना है ना कि फिल्म पर लिखना। वैसे भी फिल्म लिख लेने या लिखने का मौका पाने के जद्दोजहद के इस वक्त में अपने मूल काम में ही अपनी सारी ऊर्जा लगानी व्यावहारिकता है। पर, कुछ फिल्में होती हैं जो आपसे आपको कौल तुड़वा देतीं हैं। हैदर उन्हीं चंद फिल्मों में से है।यहमानने से कोई गुरेज नहीं है कि इंटरटेनमेंट सिनेमा का एक प्रमुख दायित्व है। पर वह सिनेमा का इकलौता दायित्व नहीं है। पर इधर हिंदी सिनेमा इंटरटेनमेंट के नाम पर जिस तरह बेसिरपैर की कॉमेडी के पीछे जिस पागलपन से पड़ा हुआ है, हम भूल गऐ थे कि सिनेमा का एक काम सवाल उठाना भी है। हैदर सिनेमा के सवाल उठाने के इस बिसरा दिए गए गुण-धर्म की याद दिलाती है। वह ऐसे सवाल उठाती है जो असुविधाजनक हैं, जोखिम भरे हैं, जिसका जवाब अभी हमारे समय के दर्शन, राजनीति और व्यवस्था के पास नहीं हैं। कुछ सवालों के जवाब सैकड़ों साल बाद मिलते हैं। पर उस कालखंड का सवालशून्य होना दरअसल संवदेनाशून्य होना है। फिल्म का नायक हैदर फिल्म की नायिका से संवाद में जो दरअसल उसका आत्मालाप ही है, में कहता भी है कि सवाल का जवाब भी एक सवाल ही है। निष्कर्ष पर पहुंचने की जल्दबाजी ना हो और फौरी निर्णय देने का लोकप्रियतावादी लोभ ना हो, तो हम सवाल के जवाब में असल में एक दूसरे सवाल पर ही पहुंचते हैं।
फिल्ममें एक शब्द बार-बार आता है- डिसएपीयर! कश्मीर में हजारों औरतों के दिलकश शौहर, बूढे मां-बाप़ों की जवां-अधेड़ औलादें डिसएपियर हैं। फिल्म के वे तमाम पात्र जिन्हें थोड़ी सी सत्ता या व्यवस्था या दलाली की ताकत हासिल है के पास असुविधाजनक और नागवार लोगों के लिए एक आसान और प्रिय धमकी है- डिसएपीयर करा दूंगा! फिल्म में डिसेपीयर कराने की धमकी ऐसी दी जाती है जैसे फेसबुक पर कुछ सिरफिरे असहमतों को ब्लॉक करने की धमकी देते हैं। जैसे फेसबुक पर एक बटन या एक कमांड भर से किसी को ब्लॉक किया जा सकता है उससे रत्ती भर भी जादा मुश्किल उनके लिए कश्मीर में किसी को डिसेपीयर करवाना नहीं है। ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा’ के राष्ट्रवादी मंत्र के जाप को नजरअंदाज कर दें तो असल हिंदुस्तान ने वास्तव में पूरे कश्मीर को ही अपने लिए डिसेपीयर मान लिया है। ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है’ के अलावा कश्मीर की किसी भी वाक्य के रूम में हमारे लिए मौजूदगी हमें पवित्र भाषाई व्याकरण को कबूल नहीं है। क्या यह अनायास है कि अभी कुछ दिन पूर्व उज्जैन विश्वविद्यालय के कश्मीरी पंडित कुलपति पर इस लिए राष्ट्रवादी लड़ाकों ने हमले किए क्योंकि उनने बाढ़ की भयानक विभीषिका से गुजर रहे कश्मीर के लिए राहत सामग्री जुटाने की ‘देशद्रोही’ अपील कर दी थी!
जबऐसे कश्मीर की पृष्ठभूमि पर फिल्म बनेगी और इन सवालों से कन्नी काटेगी तो वह एक बेईमान फिल्म ही होगी। पर कश्मीर का सवाल यहां केंद्रीय सवाल नहीं है। केंद्रीय है हैदर का द्वंद्व! क्या करूं और क्या ना करूं?? कश्मीर जैसा रक्तरंजित हो चुका उसका जीवन, जिसे प्रतिशोध की आग जला रही है और नायिका आशी अपने प्रेम के ठंडे छीटों से हैदर के दिलो-दमाग के ताप को बुझा कर उसे शीतल कर देने की मासूम ख्वाहिश पाली हुई है। पर आग के गोलों के सामने पानी की छीटें कितने नाकाफी होते हैं ना!!!
हैदरका द्वंद्व बर्फ की वादी कश्मीर को उसके लिए रेगिस्तान बना देता है जिसमें वह दर-दर भटकता है। कुछ नहीं कर पाने की विवशता में उसका पूरा जीवन ही फिल्म में गीतकार का क्रेडिट पाए शायर फैज अहमद फैज की इस शायरी सरीखा हो गया है- मकाम फैज कोई राह में जंचा ही नहीं, जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले! हैदर के कूचा ए यार और सू-ए-दार के बीच है उसकी मां को प्यार, ताकत और फरेब से हड़प चुके उसके चचा जान खुर्रम का षडयंत्र। नायिका के पिता और जम्मू- कश्मीर पुलिस के ऑफिसर और श्रीनगर के एसपी का वार। नायिका के पुलिस ऑफिसर का पिता एक दृश्य में कुछ कथित आतंकवादियों को किसी बिना के बगैर यह कहते हुए अचानक गोलियों से भून देता है कि मरा हुआ आतंकवादी भी लाख रूपये का होता है। हैदर तो फिर आतंकवादी सरीखा भी है और उसकी बेटी का प्रेमी भी, जो अपनी लपटों में उसकी बेटी की जिंदगी भी ख़ाक कर डालेगा। उसके क्या तो क्रूर और शातिर वार होंगे! इन सबके बीच पुलिस में अदद नियुक्ति पा लेने का ख्वाहिशमंद बचपन के दोस्त सलमान द्वय का हैदर के साथ विश्वाशघात। हैदर कहां जाए कहां ना जाए! क्या वह अपनी प्रेमिका आशी के सीने में अपना सर छुपाकर शतरमुर्ग हो जाए?? अपनी मां की गोद में छुप के अपने जख्म सहला ले?? पर वही गोद एक वक्त के बाद उसे उसकी पिता के हत्या की सेज लगने लगती है!!
अमूमनहिंदी सिनेमा में व्यंग्य हंसने-हंसाने या बहुत हुआ तो तंज करने की ही चीज रहा है। पर व्यंग्य भी तो एक प्रतिरोध है। इस प्रतिरोधी व्यंग्य में आफस्पा यहां चुत्सफा हो चुका है! प्रचलित शब्दावली में कहें तो चुत्सफा असल में व्यवस्था का अपने नागरिकों के साथ किया गया केएलपीडी है। आस्फपा में जितनी अमानवीय क्रूरता है चुफत्सा में उतना ही कहीं का ना छोड़ने वाला स्खलन। कश्मिरियों के साथ हर कदम पर उस बच्चे की तरह चुत्सफा किया जा रहा है जिसे कहा गया था कि उसके गान में गाना सुनाया जाएगा और जब उसने अपना कान बढ़ाया तो उसका कान ही काट लिया गया!
फिल्मने कश्मीरी जीवन की सभी प्रमुख विसंगतियों को उसकी पूरी मार्मिकता के साथ पकड़ने की कोशिश की है। तलाशियों के दृश्य दिखाते हैं कि किस कदर कश्मीरी लोग अपने पहचान पत्र को अपने शरीर के अनिवार्य अंग की तरह अपने से लगाए रखते हैं। हाथ-पैर-आंख जैसे शरीर के अंग ना हो तो कश्मीरियों का जीवन चल सकता है आईकार्ड ना हो तो चार कदम भी नहीं चल सकता।
निरूपा राय जैसी मांओं के आदी भारतीय पट्टी के लिए गजाला के रूप में तब्बू नए किस्म की मां है। जिसमें इच्छा है वासना है साथ ही स्नेह और वात्सल्य भी है। अपने पति डॉक्टर साहब से एक निर्लिप्त किस्म की प्यार, शिकायत और दूरी है और अपने देवर की वासना को प्रेम समझने का तरूणियों या किशोरियों वाला भटकाव भी। वह इस बाहरी अदालत में अपने लिए रहम नहीं, बस अपनी नजर से चीजों को एक बार देखने की मिन्नत ही करती है। वह जानती है कि ‘विलन’ वही होगी चाहे वह इस तरफ रहे या उस तरफ। पर उसमें प्यार और वात्सल्य से ज्यादा पश्चाताप है। फिल्म के अंत में जिसकी आग में जलकर वह खाक हो जाती है। पर क्या वह सिर्फ इसलिए खाक हुई कि उसे बुरी नहीं, अच्छी औरत के रूप में याद किया जाए?? फिर से वही बात एक बार फिर कि सवाल का जवाब भी दरअसल एक सवाल ही है। फिल्म की दूसरी नायिका किरदार आशी अपने बुने गए सुर्ख लाल मफलर जो उसके ख्वाब बुनने का प्रतीक है, उससे जकड़कर अपनी मौत को गले लगा लेती है। जाहिर है पुरूषों के इस आपसी रंजिश, तीनतिकड़म और गुणा गणित में सबसे पहले औरतों की जिंदगी ही होम होती है।
अब लोग कलाकार को पक्षकार नहीं मानते, चीजों के प्रस्तोता भर में रिड्यूस कर देते हैं। विशाल याद दिलाते हैं एक फिल्मकार का अपना पक्ष होना जरूरी है। फिल्म के अलग-अलग फ्रेम फिल्मकार के अलग-अलग पक्षों की कहानी बयां करते हैं। कुछ लोग गलत कहते हुए इसे ’संतुलन की कवायद का नाम’ दे देते हैं।
इस फिल्म से पहले तक व्यापक जनता यह मानती थी कि कश्मीर जमीन का एक टुकड़ा है जिसे हमेशा हिंदुस्तानी मानचित्र के सीखचे में होना चाहिए। कश्मीरी उस पर रह सकते हैं सिर्फ रह सकते हैं। कब्जा कैसे कर लेंगे?? उस बारे में कोई फैसला लेने का उनका कोई हक नहीं बनता। गोया कश्मीर हमारा मकान हो और कश्मीरी महज किरायेदार। फिल्म को देखने के बाद संवेदनशील जन महसूस करेंगे कश्मीर जमीन का महज एक टुकड़ा नहीं है। उस पर जिंदा लोग रहते हैं। उन लोगों कें अपने दुखदर्द हैं। जिसे इस या उस तरफ की सत्ता-व्यवस्था ने अपने हित में और गाढ़ा किया है उसे आंच ही दी है। उस पर मरहम नहीं लगाया। इंतकाम से इंतकाम को भड़काया। नतीजा यह हुआ कश्मीर में जितनी बस्तियां वीरान हुई हैं उससे कहीं ज्यादा कब्रिस्तान आबाद हुआ है। ऐसे में फिल्म का क्लाईमेक्स का कब्रिस्तान में घटित होना हैदर की सहज परिणति थी ना कि फिल्मकार के ड्रामा को क्रिऐट करने का दबाव।
फिल्मदेखते हुए बाज दफा कश्मीर के मसले पर बनी, शेक्सपीयर के ‘हैमलेट’ की तरह ही लंबी संजय काक की ‘जश्ने आजादी’ नाम की डॉक्यूमेंट्री फिल्म की सहसा याद आती है। हैदर को भी अर्काइब के शॉटों से कई जगह प्रमाणिक बनाया गया है। पर, अगले ही पल विशाल अपने दर्शकों की अंगुली पकड़ कर उन्हें कश्मीर से निकालकर अपने पात्रों के दुख, दर्द और द्वंद्व में शरीक कर लेते हैं। फिल्म में एक कोई किरदार, एक कोई दृश्य यहां तक कि एक कोई शॉट गैरजरूरी नहीं है। फिल्म में यूज हुई प्रापर्टी तक सिर्फ खाली जगहों को भरने के लिए व्यवहार में नहीं लाई गई हैं वे अपने साथ गहरे अर्थ भी रखती हैं। फिल्म की एक उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि वह जटिल चीजों के सरलीकरण के लोकप्रियतावाद में नहीं पड़ती है। यह जटिल यथार्थ का जटिल बयान है इसलिए तह के करीब है। हैदर के एकालाप नुमा लंबे संवाद भी तो वैसे ही हैं। गालिब के ‘बक रहा हूं जुनूं में क्या कुछ, कुछ ना समझे खुदा करे कोई’ की मानिंद। वैसे भी ऐसी फिल्में जुनूं और साहस से ही पर्दे पर उतरती है।
विशाल फिल्म के निर्देशक होने के साथ जानेमाने कश्मीरी पत्रकार बशारत पीर के साथ फिल्म के पटकथाकार हैं। संवाद लेखक हैं। साथ ही संगीतकार भी हैं। पर उनका संगीत शब्दों और भावनाओं के बीच में नहीं आता है। इसलिए वह शोर नहीं लगता। यहां कब्र खोदते कुदाल शब्दों से ताल मिलाते हैं। चलन के खिलाफ मगर फिल्म के साथ चलते इस संगीत को अनसुना करना संगीत प्रेमियों का अपना नुकसान कराना ही है।
निवेदन:पॉपकार्न खाने के साथ सिनेमा देखने वाले, पापकॉर्न खाने की तरह सिनेमा देखने वाले, अपने व्हाटसएप और फेसबुक के मैसेज को तुरंत जवाब देना जरूरी समझने वाले, अपने प्रेमी या प्रेमिका के साथ किनारे की सीट तलाशेने वाले युगल या नवजात बच्चों के साथ आउटिंग करने की तरह सिनेमा देखने वाले इस फिल्म को थियेटर में ना देखें। ऐसा करके वे फिल्म के कलेक्शन में रत्ती भर का असर जरूर डालेंगे पर सिनेमा को पाठ की तरह, हमारे वक्त के हलफ की तरह पढ़ने वाले दर्शकों पर बड़ा एहसान करेंगे।
उमाशंकरलेखक हैं.कहानी और फिल्मों की पटकथा लिखते हैं.इनसे uma.change@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।