रोहित जोशी |
-रोहित जोशी
"...एनएसडी ने मंटो का सम्मान किया या अपमान? क्या एनएसडी और भारंगम से जुड़े लोगों/कलाकारों को यह नहीं सोचना चाहिए? और क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि एनएसडी द्वारा लिए गए इतने अलोकतांत्रिक फैसले के बाद भी भारंगम इतनी निर्बाध गति से क्यों चलता रहा? इस फैसले के विरोध में क्यों कलाकार सड़क पर नहीं उतरे और किसी अन्य थियेटर ग्रुप ने इस फैसले का विरोध करते हुये भारंगम का बॉयकॉट क्यों नहीं किया?..."
यूंतो, एनएसडी द्वारा भारंगम (भारत रंग महोत्सव) में प्रस्तावित इस नाटक का मंचन रद्द कर दिए जाने के निर्णय के बाद भी, जिस तरह शहर के प्रगतिशील लोगों के प्रयासों से इसका मंचन हो पाया, यह संदर्भ ही अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण हो गया है. लेकिन नाटक भी कम महत्वपूर्ण नहीं था. नाटक पर हम ज़रूर बात करेंगे, लेकिन पहले इस घटना की परिधि के कुछ सवालों पर भी बात करते चलें.
एनएसडी के कला-सरोकार और ‘कौन है यह गुस्ताख?’
नसीम अब्बास |
तथाकथिततौर पर प्रगतिशील मानी जाने वाली इस संस्था नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के असल कला सरोकार इस घटना के साथ सामने आ गए हैं. इसके प्रबंधन की ज़वाबदेही, कला या कला सरोकारों के प्रति कतई नहीं है जबकि सरकार और उसके इशारों के प्रति है. यह सिर्फ एनएसडी की ही बात नहीं है दरअसल सारे ही सरकारी संस्थानों का ढांचा ऐसी ही विवेकहीन चापलूसी की बुनियाद पर खड़ा है, जो सरकारी पुतली के इशारों पर ही काम करते हैं.
पिछलेदिनों सीमा पर बढ़े तनाव के बाद से भारत-पाक संबंधों में जो खट्टास आई है, उसी का खामियाजा पाकिस्तान के थियेटर ग्रुप ‘अजोका’ को भुगतना पड़ा. भारंगम में मंचन के लिए बुलाए गए इनके नाटक ‘कौन है यह गुस्ताख’ को एनएसडी ने रद्द कर दिया. गजब यह है कि इस नाटक का गुस्ताख, ‘सआदत हसन मंटो’ था. वही मंटो, जिसके जन्मशताब्दी वर्ष पर ही एनएसडी ने इस बार के भारंगम को उसे ही समर्पित किया था.
यह तो ‘मंटो’ का अपमान था
एनएसडीने मंटो का सम्मान किया या अपमान?क्या एनएसडी और भारंगम से जुड़े लोगों/कलाकारों को यह नहीं सोचना चाहिए? और क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि एनएसडी द्वारा लिए गए इतने अलोकतांत्रिक फैसले के बाद भी भारंगम इतनी निर्बाध गति से क्यों चलता रहा? इस फैसले के विरोध में क्यों कलाकार सड़क पर नहीं उतरे और किसी अन्य थियेटर ग्रुप ने इस फैसले का विरोध करते हुये भारंगम का बॉयकॉट क्यों नहीं किया?
जनता के लिए ‘नाटक भी, दर्शक भी' जनता ही जुटाती है
खैर! एनएसडी, इस नाटक के लिए ‘कमानी थियेटर’ में मुश्किल से २०० दर्शक ही जुटा पाता. लेकिन जब शहर के प्रगतिशील लोगों ने तत्काल इस नाटक को एनएसडी से इतर कराने की ठानी, तो तकरीबन हज़ार लोग इसे देखने जुटे. एक ही शाम में दो बार भावविभोर होकर पाकिस्तानी कलाकारों ने इसका मंचन किया. शाम ६ बजे से तुलनात्मक रूप से छोटे ‘अक्षरा थियेटर’ में पहला मंचन हुआ. बड़ी मुश्किल से १०० से १५० लोग ही इस थियेटर में अटा पाए. आयोजकों को ज्यादा की भीड़ को जगह की कमी के चलते बाहर से ही वापस लौटाना पड़ा. इसके बाद देर शाम जेएनयू के कन्वेंसन हॉल में नाटक का फिर मंचन किया गया. तकरीबन ५०० की क्षमता वाले खचाखच भरे इस हॉल में कुर्सियों के अलावा सैकड़ों दर्शकों को खड़े-खड़े ही नाटक देखना पड़ा.
निर्देशक-मदीहा गौहर |
कौन है यह गुस्ताख?
मोटेतौर पर ‘अजोका’ थियेटर के इस नाटक ‘कौन है यह गुस्ताख’ की बुनावट भरपूर कसी हुई थी, संवाद मज़बूत और प्रभावी थे, और अक्सर ही कलाकारों का अभिनय आकर्षित कर रहा था. भारत/पाक के आजाद होते ही अपना पुराना शहर बॉम्बे छोडकर लाहौर चले आने की गुलामी झेले मंटो के, विस्तृत जीवन की विषम परिस्थितियां, बजबजाते यथार्थ से उपजे उनके सटीक दर्शन और बेबाक, प्रतिबद्ध रचनाकर्म के कठोर अंतर्द्वंदों को दिखाने में नाटक कुछ हद तक सफल होता है.
नाटकका बड़ा हिस्सा मंटो के पाठक रह चुके दर्शकों के सामने ही, असल अर्थों में खुलता है. संभवतः जिसने मंटो को ना पढ़ा हो वो इस नाटक के एक बड़े हिस्से को समझे ही ना. दरअसल नाटक की निर्देशक/नाटककार मदीहा गौहर ने इस नाटक की कहानी को मंटो की कहानियों के छोटे-छोटे नाट्यरूपों में ही गुंथा है. ठंडा गोस्त, खोल दो, टोबा टेकसिंह सरीखी कहानियों को यहाँ चुना गया है.
अपनीरचनाओं में बार-बार उभरकर आते ‘नारीवादी मंटो’ की एक प्रतिछवि को नाटककार ने एक महिला के किरदार के ज़रिये दिखाया है. जो बार-बार ‘सआदत हसन’ से मिलने आती है और ‘मंटो’ से उलझती है, उसे टटोलती है, उसकी पड़ताल करती है और उसे सृजन की प्रेरणा देती है. नाटक का यह ‘किरदार’ अद्भुत बन पड़ा है. इस किरदार को निभाने वाली अभिनेत्री ‘’ का अभिनय सशक्त है. वह अपने साथी कलाकारों पर भारी पड़ती दिखती है.
“क्यातुमने कभी किसी अनचाही छुअन को किसी महिला की मनःस्थिति में जाकर महसूस किया है?” नाटक के एक दृश्य में मंटो अपने एक समकालीन रचनाकार से संवाद में उक्त बात कहते हैं (वहां संवाद उर्दू में था. शब्द हूबहू ये नहीं रहे होंगे लेकिन उसके भाव का यही तर्जुमा है.) मंटो यह बात इस लेखक के इस सवाल का ज़वाब देते हुये कहते हैं कि वे स्थापित नैतिकताओं और मर्यादाओं का परहेज किये बगैर इतना विवादास्पद क्यों लिखते हैं, जिससे समाज में उनकी स्वीकार्यता नहीं हो पाती?
मंटोकी यह बात मंटो के सृजनकर्म पर लगे फूहड़ता और अश्लीलता के सारे आरोपों को जबरदस्त तमाचा रसीदती है. दरअसल मंटो बार-बार इमानदारी से उस छुअन को महसूसते हैं और उतनी ही इमानदारी से, पुरुषवादी लिजलिजी नैतिकताओं की ओढ़नी के बगैर ही, इससे जुड़े यथार्थ को नग्न रूप में ही पाठकों के सामने ला पटकते हैं. नाटक में प्रयुक्त मंटो की नारीरूपी प्रतिछवि उनके उसी छुअन को महसूस करने को दर्शाती है. नाटककार/निर्देशक इस हिस्से में सबसे ज्यादा सफल नज़र आती हैं.
इसनाटक में, आज़ादी के बाद के पाकिस्तान के अंतर्द्वंदों की आलोचनात्मक पड़ताल भी है और व्यंग्यात्मक दृश्यों की मार भी. हिन्दी सिनेमा के सितारे रहे श्याम और मंटो की गहरी मित्रता के आत्मीय प्रसंगों को नाटक में शामिल कर भारत-पकिस्तान की राजनीतिक सीमा के दोनों ओर घुट रहे कई दोस्तों का एक रेखाचित्र भी खींचा गया है. मंटो की कहानियों के लिए उन पर चले मुकदमों को भी नाटक में शामिल किया गया है जिसमे वे मजबूती से अपना पक्ष रखते हैं. पूरा नाटक, बेकग्राउंड में चलते, १९४९ में आई हिंदी फिल्म ‘दुलारी’ में, लता मंगेशकर द्वारा गाये गए गाने, ‘कौन सुने फ़रियाद हमारी’ के मधुर संगीत में पिरोया गया है.
अदालतमें फैज अहमद फैज के साथ के एक संवाद में अस्पष्टता या कहें कि एक तरफ़ा बयानी के अलावा नाटक में सामान्यतः कुछ भी आपत्ति जनक नहीं है. लेकिन नाटक का सबसे कमजोर पक्ष आपके सामने तब खुलता है, जब आप नाटक की तुलना खुद मंटो के सृजनकर्म से करने की गुस्ताखी करें. नाटक में पिरोई गई मंटो की कहानियों का नाट्यरूप, ‘मंटो’ की अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त बिंदु पर फीका पड़ जाता है. (बहरहाल ‘ठंडा गोस्त’ को अभिनयकर्ता, फिर भी जी गए हैं) कहानियों का नाट्यरूप उन जगहों पर जा कर मारक नहीं हो पाता जहाँ कहानियों में मंटो ने उसे धारदार बनाया है. यह समाज की गढ़ी हुई पुरुषसत्तात्मक नैतिकताओं की सीमाओं को नहीं लांघ पाता, जो कि मंटो के रचना कर्म का मूल बिंदु है. ‘खोल दो’ कहानी के नाट्यरूपांतरण में एक प्रयोग जरूर है. तकरीबन पूरी कहानी को मंटो मंच में ही नरेटर की तरह पढ़ता चला जाता है और सहायक अभिनयकर्ताओं का एक दल कथावाचन से लयबद्ध होकर अभिनयरत है. लेकिन वही सीमा यहाँ भी खटकती है कि इसमें भी सीमाएं नहीं लांघी जा सकी हैं.
नाटकमें मंटो का किरदार ‘नसीम अब्बास’ ने निभाया है. तकरीबन डेढ़ घंटे के इस नाटक में ‘नसीम’ लगातार मंच पर रहते हैं और लंबे-लंबे संवादों को बखूबी निभाते हैं. अक्षरा और फिर जेएनयू, लगातार ही उन्होंने इस नाटक का दो जगह मंचन किया है. उनकी क्षमताएं काबिले तारीफ़ हैं. उनका अभिनय शानदार है. अन्य किरदार भी नाटक में अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाते दिखते हैं.
नाटकके बाद दर्शकों की अनवरत तालियों की गूँज के बीच ही कलाकारों की आँखें छलक उठती हैं. मंच से निर्देशक बोलती हैं कि अगर वे यह नाटक न कर पाते तो बहुत टूटे दिल से वापस लौटना होता. लेकिन एनएसडी में इसे रद्द किये जाने के बावजूद जितने उत्साह से भारत के लोगों ने इसका मंचन करवाया है इससे वे गदगद हैं. यहीं भविष्य में शान्ति और मुहब्बत की उम्मींद है.
रातके डेढ़ बजे हम नाटक देखकर जेएनयू कन्वेंसन सेंटर से बाहर निकलते हैं. पेड़ों-झाडियों से घिरा सर्पीला रास्ता हमें गंगा ढाबे की तरफ ले चलता है. मंटो की गुस्ताख कहानियों की स्मृतियाँ, एक नाटक के गुस्ताखी भरे मंचन के दृश्यों के साथ दिमाग में तैर रही हैं. लता मंगेशकर की आवाज कानों में गूँज रही है, “कौन सुने फ़रियाद हमारी... कौन सुने फ़रियाद.”
(इस पोस्ट में अभिषेक श्रीवास्तव की तस्वीरोग्राफी प्रयोग की गई है. उनकी फेसबुक वॉल से साभार)