सत्येंद्र रंजन |
-सत्येंद्र रंजन
"…महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या नए मॉडल से सचमुच देश के वास्तविक विकास का रास्ता निकलेगा?इस बिंदु पर आकर यह प्रश्न अहम हो जाता है कि आखिर विकास का मतलब क्या है?क्या इसके अर्थ को फिर से महज सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर के रूप में समेटा जा सकता है?या इसे मानव एवं सामाजिक विकास सूचकांकों की कसौटी पर परखने और हर व्यक्ति की स्वतंत्रता में विस्तार के रूप में इसे देखने की दृष्टियां प्रासंगिक बनी रहेंगी?…"
यह तो साफ है कि नरेंद्र मोदी के शासनकाल में योजना आयोग हाशिये पर चला गया है। लेकिन जिस नेता (या पार्टी) ने ‘लघुतम सरकार, अधिकतम शासन’के नारे को सामने रख कर जनादेश प्राप्त किया हो, उसके राज में ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है। योजना आयोग और यह नारा दो विपरीत विचारों या सामाजिक आदर्शों के प्रतीक हैं। योजना आयोग देश के आर्थिक विकास को नियोजित ढंग से दिशा देने के मकसद से बना था। ‘लघुतम सरकार’की धारणा अर्थव्यवस्था में न्यूनतम सार्वजनिक हस्तक्षेप- यानी मुक्त अर्थव्यवस्था- के विचार को प्रतिबिंबित करती है।
भारत में नियोजित विकास का विचार जवाहरलाल नेहरू के प्रयासों व्यवहार में आया। इसके पीछे एक पृष्ठभूमि थी। नेहरू 1927 में तत्कालीन सोवियत संघ की यात्रा पर गए थे। उनकी यात्रा वहां समाजवादी क्रांति की दसवीं सालगिरह के मौके पर हुई थी। सोवियत संघ में जो अभिनव और अद्भुत प्रयोग हो रहे थे, उनसे नेहरू बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने लिखा- ‘अक्टूबर क्रांति निसंदेह विश्व इतिहास की सबसे महान घटनाओं में एक थी- फ्रांस की क्रांति के बाद यह महानतम घटना थी। मानवीय नजरिए और नाटकीयता के लिहाज से यह किसी कहानी या कल्पना से भी अधिक दिलचस्प है।’दरअसल, उन दिनों सोवियत संघ में जो रहा था, उससे प्रभावित ना होना किसी विवेकशील पर्यवेक्षक के लिए असंभव था। कवींद्र रवींद्रनाथ टैगोर 1930 में सोवियत संघ गए थे। वहां से लिखे पत्रों में उन्होंने वहां हो रहे विकास की तस्वीर खींची थी। एक पत्र में उन्होंने लिखा- ‘रूसी धरती पर कदम रखते ही जिस पहली बात ने मेरा ध्यान खींचा वह शिक्षा है। किसी भी कसौटी पर बीते कुछ वर्षों में किसानों और मजदूरों ने जो जबरदस्त तरक्की की है, वैसा हमारी यात्रा के पिछले डेढ़ सौ वर्षों में कभी नहीं हुआ।’
और यह सब संभव हुआ था नियोजित विकास से। पंचवर्षीय योजना के जरिए वहां जिस उन्नति एवं विकास को हासिल किया गया, वह अप्रतिम था। ऐसे में नेहरू नियोजित विकास की धारणा से प्रभावित होकर लौटे, तो उसमें कोई हैरत की बात नहीं थी। दरअसल, सोवियत संघ से आने वाली जानकारियों ने भारत में नियोजित विकास के प्रति सशक्त आकर्षण पैदा कर दिया था। इसी का परिणाम था कि 1938 में जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष बने, तो उन्होंने नेहरू की अध्यक्षता में देश के भावी विकास की रूप-रेखा तय करने के लिए राष्ट्रीय नियोजन समिति का गठन किया। बाद में जब नेहरू प्रधानमंत्री बने और अवाडी महाधिवेशन में विकास के समाजवादी रास्ते की अपनी विचारधारा पर कांग्रेस की मुहर लगवाने में सफल रहे, तो उन्होंने नियोजित विकास की अपनी धारणा को कार्यरूप दिया। इसी क्रम में योजना आयोग अस्तित्व में आया था। नेहरू ने कहा था- ‘स्पष्ट शब्दों में मैं स्वीकार करता हूं मैं समाजवादी और गणराज्यवादी हूं।’यानी उन्होंने समाजवादी दर्शन और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच समन्वय बनाने की कोशिश की थी।
जाने-माने विद्वान प्रोफेसर एमएल दांतवाला ने लिखा है- ‘आर्थिक रणनीति में नेहरू का सबसे बड़ा योगदान राष्ट्र को नियोजित आर्थिक विकास के प्रति वचनबद्ध करना था। किसी रूप में यह आसान कार्य नहीं था।... योजना आयोग की कार्यशैली के बारे में किसी के विचार चाहे जो भी हों, इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में इसका गठन देश की आर्थिक नीति और विकास में एक महत्त्वपूर्ण युगांतकारी घटना थी।’इसी आर्थिक रणनीति के तहत पब्लिक सेक्टर अस्तित्व में आया और आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में प्रगतिशील नीतियों की शुरुआत की गई।
इसके विपरीत लघुतम सरकार का विचार नव-उदारवाद के उदय से जुड़ा है। वैश्विक स्तर पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के जमाने यह जुमला सर्वाधिक प्रचलन में आया। इसमें यह अंतर्निहित है कि आर्थिक नीतियां तय करने में सरकार की भूमिका कम से कम की जाए। निवेशकों को खुली छूट मिले। दावा यह किया जाता है कि इससे आर्थिक वृद्धि दर में तेजी आएगी, तो समाज में अधिक धन पैदा होगा, जिसका लाभ धीरे-धीरे रिस कर सभी तबकों तक पहुंचेगा। जाहिर है, यह एक बिल्कुल अलग दृष्टि है। इसमें वंचित तबकों के लोग एक कथित नैसर्गिक प्रक्रिया के रहमो-करम पर हैं, जबकि नियोजित विकास में मानव हस्तक्षेप से सबकी प्रगति का रास्ता तैयार किया जाता है।
नेहरूवादी समाजवाद से हर व्यावहारिक रूप में 1991 में किनारा कर लिया गया। इसके बावजूद योजना आयोग की अहमियत बनी रही, तो इसीलिए पूर्व सरकारों में कल्याणकारी राज्य की धारणा को सीधे तौर पर ठुकराने का साहस नहीं था। यूपीए के दस साल के शासनकाल में सामाजिक एजेंडे के नाम से केंद्रीय कल्याण योजनाओं का विस्तार हुआ। उनके लक्ष्य निर्धारित करने, उनके लिए बजट तय करने और उन पर अमल की एक मोटी निगरानी करने की भूमिका योजना आयोग निभाता रहा। मगर 2014 के आम चुनाव ने उस दौर पर विराम लगा दिया।
योजना आयोग के हाशिये पर जाने की यही पृष्ठभूमि है। यहां ये उल्लेख अप्रासंगिक नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने अपना चुनाव अभियान नेहरू और उनके विचारों के खिलाफ राजनीतिक जंग छेड़ते हुए लड़ा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी की जो मूलभूत आस्थाएं हैं, उसको उन्होंने आगे रखा। इन आस्थाओं का नेहरूवाद से सीधा विरोध है। बल्कि कहा जा सकता है कि मोदी जिन विचारों का प्रतिनिधित्व करते हुए केंद्र में सत्तारूढ़ हुए, वह नेहरूवादी समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र की धारणाओं का प्रतिवाद (एंटी-थीसीस) है। चूंकि वे अपने इन विचारों के लिए भारी जनादेश जुटाने में सफल रहे, इसलिए यह आलोचना बेमतलब है कि उनकी सरकार विकास या राजकाज की पुरानी नीतियों या चलन को हाशिये पर धकेल रही है। इसके विपरीत इसे 2014 के जनादेश से उत्पन्न एक स्वाभाविक घटनाक्रम के रूप में देखा जाना चाहिए।
बहरहाल, महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या नए मॉडल से सचमुच देश के वास्तविक विकास का रास्ता निकलेगा?इस बिंदु पर आकर यह प्रश्न अहम हो जाता है कि आखिर विकास का मतलब क्या है?क्या इसके अर्थ को फिर से महज सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर के रूप में समेटा जा सकता है?या इसे मानव एवं सामाजिक विकास सूचकांकों की कसौटी पर परखने और हर व्यक्ति की स्वतंत्रता में विस्तार के रूप में इसे देखने की दृष्टियां प्रासंगिक बनी रहेंगी?दुनिया भर का अनुभव यही है कि इन मानदंडों पर उन्नति हमेशा उच्च आदर्शों से प्रेरित नियोजन से ही संभव हुई है। इसीलिए योजना आयोग की भूमिका या विकास के समाजवादी रास्ते की अवधारणा कभी अप्रासंगिक नहीं होगी। मुद्दा सिर्फ यह है कि फिलहाल अपनाए गए रास्ते की विफलताएं सामने आने में कितना वक्त लगता है। समाजवादी प्रयोग की रणनीतियां वक्त के साथ जरूर बदलेंगी, मगर यह सपना दफ़न नहीं होगा। इसीलिए फिलहाल नियोजित विकास और समाजवादी सपने की श्रद्धांजलि लिख रहे लोगों को इस संघर्षगाथा का अगला अध्याय पढ़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.