-कविता कृष्णपल्लवी
"...1980के दशक तक भारत फिलिस्तीनी मुक्ति का समर्थक माना जाता था। इस्रायल से उसने राजनयिक सम्बन्ध तक नहीं बनाया था। नरसिंह राव सरकार के शासनकाल के दौरान नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत हुई। सोवियत संघ का विघटन हुआ तथा अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का लाभ उठाने की स्थिति समाप्त हो गयी। ऐसी स्थिति में भारतीय बुर्जुआ शासक वर्ग अमेरिका के सामने और अधिक झुकने के लिए मज़बूर हुआ। इन्हीं स्थितियों में 1992 में इस्रायल के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित हुआ और देखते ही देखते वह भारत का घनिष्ठ व्यापारिक और सामरिक साझीदार बन गया।..."

अबइस गहरी यारी और फिलिस्तीन के साथ भारतीय शासक वर्ग की गद्दारी से जुड़े कुछ और तथ्यों पर निगाह डालें। रूस के बाद इस्रायल आज भारत को हथियारों का दूसरा सबसे बड़ा सप्लायर है। भारत इस्रायल से सालाना दो अरब डालर के हथियार खरीदता है। दोनों के बीच सालाना 5 अरब डालर का व्यापार होता है। भारत में इस्रायल ने बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश किया है। यह निवेश गत दो दशकों से लगातार जारी है, लेकिन सबसे अधिक पूँजी एन.डी.ए. के गत शासनकाल के दौरान आयी। इस्रायल की सबसे अधिक पूँजी गुजरात में लगी है और यह सारी पूँजी नरेन्द्र मोदी के शासनकाल के दौरान आयी। भारत सरकार के खुफियातंत्र को उन्नत बनाने में मोसाद एक विशेष समझौते के तहत तकनीक एवं प्रशिक्षण की सुविधाएँ मुहैया कराता है। इसकी शुरुआत वाजपेयी सरकार के शासनकाल के दौरान हुई।
1980के दशक तक भारत फिलिस्तीनी मुक्ति का समर्थक माना जाता था। इस्रायल से उसने राजनयिक सम्बन्ध तक नहीं बनाया था। नरसिंह राव सरकार के शासनकाल के दौरान नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत हुई। सोवियत संघ का विघटन हुआ तथा अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का लाभ उठाने की स्थिति समाप्त हो गयी। ऐसी स्थिति में भारतीय बुर्जुआ शासक वर्ग अमेरिका के सामने और अधिक झुकने के लिए मज़बूर हुआ।
इन्हींस्थितियों में 1992 में इस्रायल के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित हुआ और देखते ही देखते वह भारत का घनिष्ठ व्यापारिक और सामरिक साझीदार बन गया। भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता के क्रमश: ज्यादा से ज्यादा निरंकुश प्रतिक्रियावादी होते जाने की प्रक्रिया के साथ इस्रायल के साथ बढ़ती घनिष्ठता की पक्रिया जुड़ी रही है। हिन्दुत्ववादी भाजपा ने इसी प्रक्रिया को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचा दिया है।

भारतसरकार ब्रिक्स सम्मेलन में भी गाजा(ग़ज़ा)-इस्रायल के बीच शांति बहाली सम्बन्धी पारित प्रस्ताव के हवाले देती है। उसकी असलियत भी जान लें। उक्त प्रस्ताव में सिर्फ आपसी बात-चीत के द्वारा शांति बहाली की अमूर्त और रस्मी चर्चा है, गाजा पर इस्रायली बमबारी रोकने और गाजा (ग़ज़ा) पट्टी की घेरेबन्दी हटाने की कोई चर्चा नहीं है। जाहिर है कि रूस और चीन के वर्तमान बुर्जुआ शासकों और ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के शासक वर्ग की आज दुनिया के मुक्ति संघर्षों और मुक्तिकामी जनता के साथ कोई वास्तविक हमदर्दी नहीं रह गयी है। मण्डेला और लूला के वारिस भी फिलिस्तीनी जनता के साथ वैसे ही दगा कर चुके हैं जैसे भारत का शासक वर्ग।