-राजीव यादव
"...यह कोई भूल नहीं बल्कि सत्ता व पुलिस का गठजोड़ है जो एक दूसरे के मनोबल के प्रति इतना फिक्रमंद होता है कि आम नागरिक का मनोबल सर न उठा सके। इस पूरे मनोबल को बचाने में विवेचनाधिकारी लगा रहता है, जो सबूतों का आभाव खड़ा कर उन्हें बरी करवाने की कोशिश करता है। फिलहाल यह मामला सीबीआई के पास है, देखते हैं कि क्या वह असली दोषियों को सजा दिलावा पाती है। पर यहां यह सवाल है कि ऐसे कितने मामलों की जांच सीबीआई कर रही हैं या करेगी?..."
उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में एसआई अरुणा राय द्वारा आईपीएस अधिकारीडीपी श्रीवास्तव पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने के बाद जिस तरह से यहमामला सामने आया कि विवेचनाधिकारी ने मुकदमें से गैरजमानती धाराओं कोहटाकर श्रीवास्तव की जमानत का रास्ता साफ किया, उसने पुलिस विवेचना पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। आरोपी आईपीएस को जमानत दिलाने वालों कोअरुणा ने सहअभियुक्त कह कर उनके साथ हुए अन्याय में विवेचनाधिकारी को भीबराबर का दोषी माना है। पुलिस पर यह आरोप लगातार लगता रहता है कि वहरिश्वत लेकर या समाज में रसूख रखने वाले व्यक्तियों के दबाव में ऐसा करतीहै। वहीं इस मामले ने साफ कर दिया है कि जब एक महिला पुलिस अधिकारी कोअपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के मामले में एफआईआर दर्ज कराने में इतनीमशक्कत करनी पड़ी तो एक सामान्य महिला की पुलिस कितना सुनती होगी।इससवाल को सिर्फ यूपी तक सीमित करना या महिला उत्पीड़न तक सीमित करने केबजाए इसको व्यापकता में देखने का जरुरत है कि, यह कौन सी जेहनियत है जोऐसा करने की विवेचना कार्यप्रणाली की परंपरा बन चुकी है। खासकर महिला केसाथ होने वाली हिंसा वह भी जब वह दलित व अल्पसंख्यक समाज की हो तब तो यहकुत्सित इंसाफ विरोधी परंपरा अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है। पिछलेदिनों बदांयू में दो लड़कियों के साथ बलात्कार मामले में भी हम देख सकतेहैं कि जब इस घटना की पूरीदुनिया में निंदा हो रही थी तो पुलिस मौके सेसबूतों को मिटाने या फिर उसे उपेक्षित कर बलात्कार में संलिप्त दोषीपुलिस कर्मियों को बचाने की फिराक में थी। लड़कियों का शव गांव में एकखेत में पेड़ से टंगा मिला था पर लड़कियों के साथ जिस स्थान पर बलात्कारहुआ था उस स्थान को उपेक्षित कर सबूतों को खत्म करने का प्रयास किया गया।
यहकोई भूल नहीं बल्कि सत्ता व पुलिस का गठजोड़ है जो एक दूसरे के मनोबलके प्रति इतना फिक्रमंद होता है कि आम नागरिक का मनोबल सर न उठा सके। इसपूरे मनोबल को बचाने में विवेचनाधिकारी लगा रहता है, जो सबूतों का आभावखड़ा कर उन्हें बरी करवाने की कोशिश करता है। फिलहाल यह मामला सीबीआईकेपास है, देखते हैं कि क्या वह असली दोषियों को सजा दिलावा पाती है। परयहां यह सवाल है कि ऐसे कितने मामलों की जांच सीबीआई कर रही हैं याकरेगी?
इसी तरह सितंबर 2013 में मुजफ्फरनगर-शामली व आस-पास के जिलों मेंसांप्रदायिक हिंसा के दौरान मुस्लिम महिलाओं के साथ हुए बलात्कार केमामलों को हम तीन हफ्ते से अधिक समय बाद थाने में दर्ज होता पाते हैं।बलात्कार जैसे जघन्यतम अपराध जिसमें पीडि़ता की तहरीर के बाद प्रथम सूचनारिपोर्ट दर्ज करते हुए 24 घंटे के भीतर पीडि़ता का चिकित्सकीय परीक्षणकराने का निर्देश है, वहां पर हफ्तों की जाने वाली पुलिस की यह देरीबलात्कारी को बचाने की हर संभव कोशिश होती है। आखिर सवाल यह उठता है किमुजफ्फरनगर ही नहीं देश में ऐसे तमाम दलित व अल्पसंख्यक विरोधी हिंसाओंमें पुलिस की इस आपराधिक कार्यशैली को क्या विवेचनाधिकारी अपनी विवेचनामें शामिल करता है, तो इसका जवाब नहीं होगा। ऐसा इसलिए कि विवेचनाधिकारीभी उसी पुलिस विभाग का होता है
अरुणा राय मामले में जिस तरह विवेचना अधिकारी सवरणजीत कौर हैं, जो सीओरैंक की अधिकारी हैं और वह आईपीएस रैंक के पुलिस अधिकारी श्रीवास्तवद्वारा यौन उत्पीड़न की जांच कर रही हैं, यहां पर इंसाफ नहीं बल्कि उच्चपद का विभागीय दबाव काम करता है, जो निष्पक्ष विवेचना को प्रभावित करताहै। क्योंकिइस मामले में डीपी श्रीवास्तव द्वारा हमला या आपराधिक कृत्य,जिससे महिला की लज्जा भंग होती है, कोमानते हुए भी उन्होंने गैरजमानतीयइस कृत्य की धारा को समाप्त करके आईपीएस को बचाने की कोशिश की। इससे यहबात भी खारिज होती है कि महिला, महिला प्रकरण की निष्पक्षता से जांचकरेगी। जबकि सुप्रिम कोर्ट विवेचनाधिकारी को एक स्वंतंत्र जांच अधिकारीके बतौर कार्य करने की बात कहता है। अक्सरहां देश में पुलिस द्वारा की गईफर्जी मुठभेड़ों की जांच चाहे वो यूपी के सोनभद्र में रनटोला कांड, जहांइलाहाबाद विश्वविद्यालय के दो छात्रों को डकैत बताकर की गई हत्या कामामला हो या फिर उत्तराखंड केरणवीर हत्याकांड इन सभी में विवेचनाधिकारीने पुलिस अधिक्षक का नाम न लेकर उसे बचाने का कार्य किया है। जबकि सजापाने वाले पुलिस कर्मियों ने सार्वजनिक तौर पर कहा है कि ऐसा उन्होंनेएसपी के कहने पर किया था।
निष्पक्षविवेचना न्याय का आधार होती है। ऐसे में छत्तीसगढ़ में सोनीसोरी के गुप्तांगों में पत्थर डालने वाले पुलिस अधिकारियों जिसमें एसपीअंकित गर्ग जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा स्वर्ण पदक से सम्मानित किया जाताहै, वह हमारे तंत्र की निष्पक्षता और इंसाफ दिलाने नहीं बल्कि उसको बाधितकरने वाले विवेचनाधिकारी के अस्तित्व पर सवालिया निशान है। इशरत जहांफर्जी मुठभेड़ कांड को कौन भूल सकता हैं, जिसमें राज्य के पुलिसअधिकारियों पर राज्य सरकार के संरक्षण में हत्या का आरोप है, वहां पर भीइसे साफ देखा जा सकता है। वहीं उत्तर प्रदेश में आतंकवाद के नाम पर फर्जीतरीके से गिरफ्तार किए गए तारिक-खालिद की गिरफ्तारी पर गठित निमेष कमीशन,गिरफ्तारी को संदिग्ध मानते हुए पुलिस के अधिकारियों को दोषी मानता है,वहीं इस मामले के विवेचनाधिकारी ने पुलिस की गिरफ्तारी को सही माना है।
आतंकवादऔर नक्सल उन्मूलन के नाम पर चलाए जाने वाले अभियानों में तोविवेचनाधिकारी पुलिस के सहयोगी अंग के बतौर कार्य करता है। 16 मई, जिसदिन भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को पूर्ण बहुमतमिला, उसी दिन अक्षरधाम मंदिर पर हमले को लेकर आए फैसले में सुप्रिमकोर्ट ने उस दौर के मौजूदा गृह मंत्री और विवेचनाधिकारियों के विवेक औरकार्यशैली पर सवाल उठाया है। विवेचनाधिकारी सिर्फ पुलिस द्वारा समाज केवंचित तबके पर लगाए गए आरोपों को सिर्फ सही साबित करने की न सिर्फ कोशिशकरता है बल्कि वह उसको ऐसा करके अन्याय करने के लिए प्रेरित भी करता है।यह पूरा तंत्र मिलकर समाज के सत्ता संपन्न वर्गों, जातियों, धर्मों केपक्ष व उनके हित में कार्य करता है।
अरुणाराय के आरोपों के बाद पुलिस महा निदेशक उत्तर प्रदेश और मुख्य सचिवका हवाला देते हुए डीपीश्रीवास्तव ने बात को खत्म करने की बात कही। वहींपुलिस का रवैया ‘हां दुव्यवहार तो हुआ तो है लेकिनइसमें ऐसी कोई खास बातनहीं’ जैसे भाव की अभिव्यक्ति से आकलन किया जा सकता है कि जब कोईदलित-आदिवासी महिला के साथ उत्पीड़न होता है तो पुलिस का रवैया क्या होताहै, अरुणा राय आज इस परिघटना की चश्मदीद है।ऐसे में सवाल लाजिमी हो जाता है कि सिर्फ विवेचनाधिकारी को बदलने भर सेइसका हल नहीं है, बल्कि उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाई की गारंटी की जाए।वहीं आपराधिक विवेचना कीजांच के लिए पुलिस प्रशासन से अलग एक विवेचनाईकाई का गठन किया जाए। इस विषय में पुलिससुधार आयोग की भी यही सिफारिशहै।
द्वारा- मोहम्मद शुऐब (एडवोकेट)
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