-सत्येन्द्र रंजन
"...हम सत्ता का एक हाथ में अति संकेंद्रण होते देख रहे हैं। इस परिघटना के समर्थक कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी ने चुनाव राष्ट्रपति शैली में जीता है, इसलिए उन्हें उसी ढंग से शासन करने का जनादेश है। मगर ऐसा कहते वक्त शक्तियों के अलगाव (separation of power)और अवरोध एवं संतुलन (check and balance)की दो महत्त्वपूर्ण सिद्धांतो की अनदेखी की जाती है, जो लोकतंत्र का मूल-आधार हैं।..."
प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की कार्य-शैली कैसी होगी, अब तक इसके पर्याप्त संकेत मिल चुके हैं। उनके संभावित परिणामों और व्यापक निहितार्थों की चर्चा से पहले बेहतर होगा, उनके कुछ प्रमुख निर्णयों पर ध्यान देना। ये तीन कदम गौरतलब हैं-
- मोदी ने अपने जिम्मे जो विभाग रखे हैं, उनमें ‘सभी महत्त्वपूर्ण नीतिगत विषय’भी शामिल है। (http://bit.ly/TgFmfW) ऐसा संभवतः पहली बार हुआ है। इसका मतलब यह समझा गया है कि नीतिगत मामलों में मंत्रियों को स्वतंत्रता नहीं होगी। यह कार्य प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के नियंत्रण एवं निर्देशन में रहेगा।
/अगर पूर्व मनमोहन सिंह सरकार की कार्य-शैली से तुलना करें, तो इस निर्णय के स्वरूप को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। तब पीएमओ ने मंत्रियों को अधिकांश मामलों में खुद फैसले लेने का अधिकार दे रखा था। प्रावधान यह था कि जहां मंत्री आवश्यक समझें, वे प्रधानमंत्री को सूचित करेंगे। यानी यह उनके स्वविवेक पर था कि किस मुद्दे या विषय को वे प्रधानमंत्री की जानकारी में लाएं। (http://bit.ly/1hAZ5SN)/आरोप यह है इससे यूपीए राज में कई मंत्रालय परस्पर विरोधी उद्देश्यों के लिए काम करते नजर आए। कॉरपोरेट मीडिया ने इस संदर्भ में पर्यावरण और आर्थिक तथा बुनियादी ढांचे से संबंधित मंत्रालयों के बीच के टकराव की चर्चा की है। चूंकि पर्यावरण मंजूरी में लगने वाले समय को निर्णय प्रक्रिया का लकवाग्रस्त होना बताया गया, इसलिए कहा गया है कि मोदी के नीतिगत मामले अपने हाथ में रखने से इससे निर्णय प्रक्रिया सरल होगी। सरकार के समान उद्देश्य के लिए काम करती नजर आएगी।/लेकिन क्या इससे पीएमओ के हाथ में अधिकारों का अत्यधिक संकेंद्रण नहीं होगा? संसदीय व्यवस्था में प्रधानमंत्री के बारे में समझ यह है कि वह समकक्षों बीच प्रथम होता है। (http://bit.ly/1tKCBP0) यानी उसका दर्जा मंत्रियों से ऊपर नहीं होता, बल्कि उसकी भूमिका सिर्फ अग्रणी की होती है। सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के तहत सभी मंत्री अपने-अपने विभागों में फैसले लेने के लिए अधिकार-प्राप्त माने जाते हैं। मोदी की कार्य-शैली क्या इस संसदीय जनतांत्रिक परंपरा का उल्लंघन नहीं कर रही है?
- नरेंद्र मोदी का दूसरा अहम प्रशासनिक फैसला नीतिगत या दूसरे महत्त्वपूर्ण मामलों में फैसला लेने के लिए मंत्रि-समूह (जीओएम) और अधिकार प्राप्त मंत्रि-समूहों (ईजीओएम) को भंग कर देना है। (http://bit.ly/1i4NbLD)
/जीओएम या ईओजीएम बनाने का चलन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौर में शुरू हुआ। मकसद महत्त्वपूर्ण निर्णयों के संदर्भ में विभिन्न मंत्रालयों के बीच समन्वय और उनके मतभेदों का निवारण करना था। जाहिर है, इस प्रक्रिया के तहत फैसलों तक पहुंचने में समय लगता है। लेकिन लोकतांत्रिक शासन के क्रम में- जहां अनेक हितों, विचारों और मांगों के बीच संतुलन बनाना होता है, इससे बचने का क्या तरीका हो सकता है?/यह बात ठीक है कि यूपीए के समय ऐसी धारणा गहराती गई कि ये मंत्रि-समूह फैसलों को टालने का जरिया बन गए हैं। एक समय ऐसा था जब जीओएम और ईजीओएम की संख्या 80 तक हो गई थी। कई जीओएम की तो कभी बैठक ही नहीं हुई। लेकिन इसे यूपीए की अकुशलता का प्रमाण माना जाना चाहिए। उसके आधार पर लोकतांत्रिक निर्णय की एक बनी-बनाई प्रक्रिया को सिरे से खत्म कर देना कितना उचित है?/अब निर्णय संबंधित मंत्रालय लेंगे और नीतिगत मामलों में उसे प्रधानमंत्री कार्यालय अंतिम रूप देगा। इसके अलावा मंत्रियों से कहा गया है कि किसी बिंदु पर उनके मंत्रालय कठिनाई महसूस करें तो वे कैबिनेट सचिवालय और प्रधानमंत्री कार्यालय की मदद वे ले सकेंगे। जाहिर है, एक बार फिर पूरी कमान प्रधानमंत्री के हाथ में है।
- अगले कदम के रूप में नरेंद्र मोदी ने विभिन्न मंत्रालयों के 72 सचिवों से सीधी मुलाकात की। अफसरों को उनका पैगाम था- ‘अपना काम करते समय डरने की जरूरत नहीं है, आपकी रक्षा के लिए मैं मौजूद हूं।’ (http://bit.ly/1iZR6cX) फिर उन्हें प्रेरित किया कि वे अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को गंभीरता से लें। काम तेजी से हो और शासन में सुधार हो, इसके लिए अधिकारी निर्णायक रुख अख्तियार करें। इस तरह एक नई परंपरा शुरू हुई।
/क्या इससे सत्ता का अति-संकेद्रन नहीं होगा?खासकर प्रश्न यह है कि सचिव सीधे प्रधानमंत्री से संपर्क में रहेंगे, तो मंत्रियों की क्या हैसियत रह जाएगी? (http://bit.ly/1hdTelS) नीतिगत एवं निर्णय प्रक्रिया में सचिवों को सशक्त करने का परिणाम कहीं मंत्रियों के शक्तिहीन होने के रूप में तो सामने नहीं आएगा?
/ध्यानार्थ है कि मंत्री विभिन्न जन समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी राय में समाज के बहु-स्तरीय हितों की झलक होती है। जबकि अधिकारियों की कोई जनतांत्रिक जवाबदेही नहीं होती। वे मंत्रियों के निजी सेवक काम ना बनें- यह सुनिश्चित करना तो अनिवार्य है, मगर इस क्रम में मंत्रिमंडल के सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का उल्लंघन हो तो इससे समस्याएं खड़ी होंगी।
संकेत क्या हैं?हम सत्ता का एक हाथ में अति संकेंद्रण होते देख रहे हैं। इस परिघटना के समर्थक कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी ने चुनाव राष्ट्रपति शैली में जीता है, इसलिए उन्हें उसी ढंग से शासन करने का जनादेश है। मगर ऐसा कहते वक्त शक्तियों के अलगाव (separation of power)(http://abt.cm/Swyvye)और अवरोध एवं संतुलन (check and balance) (http://bit.ly/1owHGcA) की दो महत्त्वपूर्ण सिद्धांतो की अनदेखी की जाती है, जो लोकतंत्र का मूल-आधार हैं। जिन देशों में राष्ट्रपति ढंग की प्रणाली है, वहां कार्यपालिका (राष्ट्रपति) का संसद से पूरा अलगाव रहता है। अमेरिका में राष्ट्रपतियों को बजट तक पास कराने में कितनी दिक्कत आई है, इसके अनगिनत उदाहरण हैं। वहां राष्ट्रपति के लिए अपने मनमाने कानून पास कराना टेढ़ी खीर बना रहता है।
गौरतलब है कि अमेरिका जैसे देश में सांसद पार्टी ह्विप से बंधे नहीं रहते। बल्कि अपनी समझ और विवेक से विभिन्न विधेयकों पर मतदान करते हैं। इसलिए किसी कानून को पास कराने में सहमति बनाने की दुरूह प्रक्रिया से सरकार को गुजरना पड़ता है। जबकि अपने यहां दल-बदल विरोधी कानून बनने के बाद सांसदों की स्वतंत्रता खत्म हो गई। अब पार्टी ह्विप के आगे वे लाचार रहते हैं। ऐसे में बहुमत प्राप्त सरकार जो बिल चाहे पास करा लेती है। अमेरिका या फ्रांस जैसे राष्ट्रपति प्रणाली वाले देशों में अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्था इतनी सख्त है कि किसी नेता के लिए सर्व-शक्तिमान बन कर उभरना लगभग असंभव है।
लेकिनभारत की स्थिति अलग है। यहां इमरजेंसी के दौरान आखिर क्या हुआ था?यही तो कि मंत्रिमंडल, संसद और प्रशासन-तंत्र सब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कालांतर में उनके बेटे संजय गांधी और उनकी चौकड़ी के प्रति जवाबदेह हो गए। संजय और उनकी चौकड़ी ने बेलगाम ढंग से उनका उपयोग किया। जो नतीजा हुआ, वह सामने है। तब कांग्रेस के भीतर इंदिरा गांधी/संजय गांधी का विरोध करने की किसी में हिम्मत नहीं थी। क्या आज वही स्थिति भारतीय जनता पार्टी में बनती नहीं जा रही है?
नईसरकार की नजर में कानून या संसदीय परंपरा की कितनी इज्जत है, यह तब जाहिर हो गया जब नृपेन मिश्र को प्रधानमंत्री का प्रमुख सचिव बनाने के लिए अध्यादेश का सहारा लिया गया। टेलीकॉम रेगुलेटरी ऑथरिटी ऑफ इंडिया का अध्यक्ष रहने के नाते मिश्र अब किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं हो सकते थे। ऐसा प्रावधान TRAI Act, 1997की धारा 5(8) में है। इससे उबरने के लिए सरकार ने निसंकोच अध्यादेश जारी कर दिया। यूपीए सरकार पर अध्यादेशों के जरिए संसदीय मर्यादा के उल्लंघन का आरोप लगाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने इस मामले में कैसा मानदंड अपनाया यह साफ है। (http://bit.ly/1owIgqM)
सारीसत्ता एक दफ्तर या व्यक्ति के हाथ में केंद्रित हो जाए और नियम-कानून का कोई बंधन ना रहे, तो कॉरपोरेट सेक्टर और दूसरे शासक वर्गों के लिए इससे बेहतर बात कोई और नहीं होगी। इसलिए लोकतंत्र के लिए हानिकारक प्रवृत्ति का अगर मेनस्ट्रीम मीडिया जयगान कर रहा है, तो उसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। मगर यह वक्त है जब तमाम जनतांत्रिक ताकतों के कान खड़े हो जाने चाहिए। मसीहा और सुपर हीरो का उदय हमेशा लोकतंत्र की कीमत पर होता है। इतिहास में इसकी अनगिनत मिसालें हैं।
स्वतंत्र लेखन के साथ ही
फिलहाल जामिया मिल्लिया
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में
फिलहाल जामिया मिल्लिया
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.