-सत्येंद्र रंजन
सत्येंद्र रंजन |
"...दरअसल, भाजपा को बहुमत मिलने का कारण यह है कि उसके मजबूत आधार वाले राज्यों (गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और झारखंड) में भी उसकी एकतरफा आंधी चली। उधर उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में उसके वोटों में जबरदस्त उछाल आया। वहां दूसरे तमाम दलों का लगभग सफाया हो गया। लेकिन ऐसा होने का एक कारण यह भी रहा कि भाजपा ने सहयोगी दल चुनने में बुद्धिमत्ता दिखाई।..."
यह निर्विवाद है कि लोकसभा चुनाव के नतीजे अप्रत्याशित और चौंकाने वाले रहे। इससे भारतीय राजनीति को लेकर पिछले ढाई दशकों में बनी कुछ धारणाएं अवश्य ध्वस्त हुईं। मसलन, यह राय कि अभी लंबे समय तक केंद्र में बगैर गठबंधन के कोई सरकार नहीं बन सकती। लेकिन इससे ऐसी तमाम समझ गलत साबित हो गई है, ये कहना अतिशयोक्ति होगी। मसलन, यह दावा करना कि चूंकि इस बार एक दल (भारतीय जनता पार्टी) ने पूर्ण बहुमत जरूर हासिल लिया है, तो इसका अर्थ यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में जातीय या सांप्रदायिक गोलबंदी की भूमिका समाप्त हो गई है। अथवा यह कि राज्य-व्यवस्था के संघीयकरण की परिघटना पर विराम लग गया है। मतदाताओं ने जाति और संप्रदाय की भावना से ऊपर उठ कर वोट डाला, इस धारणा को साबित करने या उसे चुनौती देने के लिए अभी अधिक गहरे अध्ययन की जरूरत है। मगर इस मुद्दे पर बाद में आएंगे। पहले यह देखते हैं कि क्या राज्य-व्यवस्था के उत्तरोत्तर संघीयकरण (जिसे क्षेत्रवाद भी कहा जाता है) का रुझान अब पलट गया है?
ध्यान दीजिए। 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस को 206 और भाजपा को 116 सीटें मिली थीं, जिनका योग 322 बनता है। इस बार भाजपा को 282 और कांग्रेस 44 सीटें मिली हैं, जिनका योग 326 होता है। यानी पांच वर्ष पहले 221 सीटें बाकी दलों को गई थीं, इस बार ये आंकड़ा 217 है। 2006 में कांग्रेस ने 28.6 और भाजपा ने 18.82 फीसदी वोट हासिल किए थे। इसका जोड़ 47.42 प्रतिशत बनता है। इस बार भाजपा ने 31 और कांग्रेस ने 19.3 प्रतिशत वोट प्राप्त किए। यानी दोनों को मिला कर 50.3 फीसदी वोट मिले। मतलब यह कि दोनों राष्ट्रीय दलों के सम्मिलित वोटों में 2.88 फीसदी का इजाफा हुआ। उनकी चार सीटें बढ़ीं। क्या इस आधार पर यह कहने का आधार बनता है कि 1989 के बाद से राज्य-व्यवस्था के संघीयकरण (Federalization of Polity) की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह 2014 में निर्णायक रूप से पलट गई है?
दरअसल, भाजपा को बहुमत मिलने का कारण यह है कि उसके मजबूत आधार वाले राज्यों (गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और झारखंड) में भी उसकी एकतरफा आंधी चली। उधर उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में उसके वोटों में जबरदस्त उछाल आया। वहां दूसरे तमाम दलों का लगभग सफाया हो गया। लेकिन ऐसा होने का एक कारण यह भी रहा कि भाजपा ने सहयोगी दल चुनने में बुद्धिमत्ता दिखाई। इसी कौशल से आंध्र प्रदेश में भी उसे सफलता मिली। असम में उसने अनपेक्षित कामयाबी हासिल की। परंतु ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर जगहों पर उसे सफलता कांग्रेस की कीमत पर मिली। क्षेत्रीय दलों के वोटों में वह ज्यादा सेंध नहीं लगा पाई। तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, ओडीशा आदि में मोदी लहर का असर दिखा, लेकिन यह इतनी ताकतवर नहीं थी कि भाजपा को सीटों का महत्त्वपूर्ण लाभ होता।
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को कोई सीट नहीं, लेकिन उसे वोट 2009 की तुलना में ज्यादा मिले। समाजवादी पार्टी ने ज्यादा वोट पाने के बावजूद अपनी 18 सीटें गंवाई। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (यू) के वोटों को जोड़ दें, तो यह भाजपा गठबंधन से पूरे 15 प्रतिशत ज्यादा ठहरता है। ये आंकड़े क्या कहते हैं? यही कि ऊपरी तौर पर देश की राजनीतिक सूरत में भारी बदलाव के बावजूद जमीन पर कहानी बहुत नहीं बदली है। असल में जमीन पर जो गोलबंदी हुई, उसमें जाति और संप्रदाय की भूमिका नहीं रही, यह भी सिर्फ अयथार्थ सदिच्छाओं के आधार पर ही कहा जा सकता है। मोदी लहर के केंद्र में असल में हिंदुत्व समर्थक समूह ही थे। भाजपा ने बड़ी चालाकी से इस मूल समर्थन आधार के साथ उन वर्गों को जोड़ने का कथानक बुना जो यूपीए सरकार से नाराज और जो रोजमर्रा की मुश्किलों से आजीज थे। इन समूहों के बीच ‘अच्छे दिन’ लाने के वादे की मार्केटिंग करने में पार्टी सफल रही। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी को बार-बार खुद के पिछड़ी जाति से आने की याद दिलानी पड़ी। क्यों? अगर समग्रता से देखें तो समझ यह बनती है कि भाजपा की टोकरी में सबको संबोधित करने वाली चीजें मौजूद थीं। जाति, मजहब और विकास- सब कुछ।
मगर इसके साथ ये विसंगति भी खुल कर उभरी है कि कैसे कुछ इलाकों में संकेंद्रित समर्थन आधार के जरिए कम वोट पाकर भी अधिक सीटें जीत लेने का चलन अपने देश में बढ़ता जा रहा है। भाजपा सिर्फ 31 प्रतिशत वोट पाकर पूर्ण बहुमत पाने में सफल रही है। इसके पहले के 15 आम चुनावों में कभी ऐसा नहीं हुआ जब किसी पार्टी को 40 फीसदी से कम वोट पर स्पष्ट बहुमत मिला हो। इसके पहले सबसे कम 41.3 फीसदी वोट पर जनता पार्टी को 1977 में पूरा बहुमत मिला था। दरअसल, यह राजनीति के लगातार होते विखंडन का ही परिणाम है कि वोटों और सीटों के बीच विसंगति बढ़ती जा रही है। बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव (2010) में जनता दल (यू)-भाजपा गठबंधन को सिर्फ 39 फीसदी वोट मिले, जबकि उसे 80 फीसदी भी ज्यादा सीटें मिल गईं थीं। उत्तर प्रदेश में पिछले दो विधानसभा चुनावों (2007 और 2012) से 30 प्रतिशत या उससे कम वोट पाने वाली पार्टी पूर्ण बहुमत प्राप्त कर रही है। क्या अब फर्स्ट पास्ट द पोस्ट की चुनाव प्रणाली से मिल रहे नतीजे बेतुके स्तर पर नहीं पहुंच गए हैं? इस प्रणाली के तहत उस उम्मीदवार को विजेता माना जाता है, जिसको किसी सीट पर सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं, भले वो वोट कितने ही कम क्यों ना हों। ऐसे में जहां मुकाबला बहुकोणीय हो वहां पर किसी सीट पर सिर्फ 20 या उससे कम फीसदी वोट मिलने वाला उम्मीदवार भी विजेता बन सकता है, क्योंकि बाकी वोट अलग-अलग उम्मीदवारों में बंट जाते हैं। इस चुनाव प्रणाली का लाभ सिर्फ भाजपा को ही मिला हो, ऐसा नहीं है। लेकिन क्या ये कहा जा सकता है कि इससे जनमत की सही अभिव्यक्ति हो रही है?
क्या चुनाव प्रणाली में परिवर्तन पर विचार होना चाहिए, यह अलग चर्चा का विषय है। फिलहाल, उपरोक्त वर्णन का मकसद सिर्फ स्थापित करना है कि 2014 के जनादेश के स्वरूप पर निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिए। इसमें नयापन जरूर है, लेकिन उतना नहीं कि देश की राजनीतिक संरचना की समझ आमूल रूप से बदल जाए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल
जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.