-सत्येंद्र रंजन
सत्येंद्र रंजन |
"...यह समझने की बात है कि आखिर वो भारतीय राष्ट्रवाद क्या है, और भाजपा क्यों उसकी एंटी-थीसिस (यानी प्रतिवाद) है? इसे हम भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के ऐतिहासिक क्रम और इसके मुख्य आधार बिंदुओं का उल्लेख करते हुए तथा भाजपा की मूलभूत मान्यताओं के बरक्स उन्हें रखते हुए आसानी से समझ सकते हैं। आधुनिक भारत का विचार- जिसकी अभिव्यक्ति हमारे संविधान में हुई- भारतीय जनता के आर्थिक हितों के साझापन की एक व्यापक समझ के साथ आगे बढ़ा।..."
वैसे हर आम चुनाव खास और अहम होता है, किंतु 16वीं लोकसभा के चुनाव को अगर सबसे अलग श्रेणी में रखा जा रहा है तो इसके दो प्रमुख कारण हैं। कारणों पर हम बाद में आएंगे। पहले 16 मई को आने वाले नतीजों के महत्त्व को समझने की कोशिश करते हैं। इस बार के चुनाव परिणाम को बेशक 1977 और 2004 के चुनाव परिणामों के बरक्स रख कर देखा जाएगा। वे दो वो आम चुनाव थे, जिन पर आधुनिक भारतीय राष्ट्र के बुनियादी उसूल दांव पर लगे थे। 1977 में कांग्रेस जीत जाती तो भारतीय संविधान का एक मूल आधार- यानी लोकतंत्र- पराजित हो जाता। 2004 में भाजपा नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) जीत जाता तो हमारे संविधान के एक दूसरे मूल आधार- यानी धर्मनिरपेक्षता- की शिकस्त होती। कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्ष भावना की हार 1998 और 1999 के लोकसभा चुनावों में भी हुई थी। मगर तब भाजपा ने अपने मुख और मुखौटे का फर्क कर यह भ्रम पैदा कर दिया था कि उसने अपने मुख्य मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है और चुनाव वह “शासन के राष्ट्रीय एजेंडे” के आधार पर लड़ रही है, जिस पर खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले उसके सहयोगी दल भी सहमत हैँ।
मगरएनडीए के छह वर्षों के शासनकाल में, जिस तरह सांप्रदायिक और उग्र अथवा अंध-राष्ट्रवादी मुद्दे हावी रहे उससे भाजपा के उदार होने की गलतफ़हमी टूट गई। 2002 के गुजरात के दंगों के जरिए नरेंद्र भाई ने दुनिया को हिंदुत्व का नमूना दिखाया। उसके बावजूद 2004 में भाजपा जनादेश पा लेती, तो बेशक यह इस ब्रांड की सियासत पर मुहर होती। मगर तब भारतीय मतदाताओं ने एक बार फिर 1977 जैसे विवेक का परिचय दिया। एनडीए हार गया। खुद अटल बिहारी वाजपेयी ने बाद में कहा कि उनके नेतृत्व वाले गठबंधन की हार का कारण गुजरात दंगे रहे।
अब न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धांत से उन दंगों को जायज ठहराने वाले नरेंद्र मोदी एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। छवि पर दंगों के कलंक के बावजूद मोदी का भाजपा और एनडीए का नेता चुना जाना कोई साधारण घटना नहीं है। ऊपर हमने इस चुनाव के सबसे अलग होने के जिन दो कारणों का जिक्र किया, उनमें पहला तो यही है कि इस चुनाव में मोदी सत्ता के सबसे प्रमुख दावेदार के रूप में सामने हैं। उनके इस हैसियत में पहुंचने के पीछे एक पूरा घटनाक्रम है। वे सिर्फ इसलिए भाजपा के सबसे बड़े नेता बन कर नहीं उभरे हैं कि उनके नेतृत्व में पार्टी ने गुजरात में तीन बार विधानसभा का चुनाव जीता। यह उपलब्धि तो शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के साथ भी है। मगर मोदी का उन दोनों से फर्क यह है कि भाजपा जिस राजनीतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, उसके जितने प्रखर प्रतीक मोदी हैं, संभवतः अतीत में कोई नहीं रहा। 1990 के दशक के आरंभिक वर्षों में लालकृष्ण आडवाणी ऐसे प्रतीक के रूप में जरूर उभरे थे। मगर (अयोध्या में) मंदिर “वहीं” बनाने के लिए भीड़ जुटाने और उसे उत्तेजित करने के बाद उसके परिणाम- यानी (बाबरी) मस्जिद के ध्वंस को उन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे अफसोसनाक दिन बताने का पाखंड उन्होंने किया था। यानी जो उनके कार्य का परिणाम था, उसे खुलेआम स्वीकार करने से वे पीछे हट गए। इसके बाद ही भाजपा में मुख और मुखौटे का पाखंड शुरू हुआ। इसका अंत मोदी के नेता चुने जाने के साथ हुआ है। दरअसल नरेंद्र मोदी के नेता चुने जाने की यही विशेषता है कि इसके साथ भाजपा अपनी जड़ों की तरफ लौटी है। भाजपा ने उसका जो मुख है, उसी को मुखौटा भी बना लिया है। इसके जरिए राजनीतिक जोर-आजमाइश का दांव उसने खेला है। यह कितना सफल होता है, यह 16 मई को पता चलेगा।
नरेंद्र मोदी को इस बात श्रेय जरूर दिया जाना चाहिए कि वे वही कहते हैं, जो उनकी समझ है और फिर उस पर ही अमल करते हैं। उसी आधार पर गुजरात में उन्होंने ऐसा मजबूत राजनीतिक बहुमत तैयार किया, जो भारतीय राजनीति में अनूठा है। कहा जा सकता है कि अपनी स्थापना के बाद भारतीय जनसंघ जो करना चाहता था, उसे नरेंद्र मोदी ने गुजरात में करके दिखाया। हिंदुत्व की विचारधारा को व्यवहार में उतारते हुए कैसे सत्ता पर कायम रहा जा सकता है, इसका उनसे बेहतर नमूना किसी और ने नहीं दिखाया है। मुक्त बाजार और पूंजी के अनुकूल नीतियों पर निर्बाध अमल का भी संभवतः सबसे प्रभावी मॉडल मोदी के राज में ही देखने को मिला। यह ऐसा मॉडल है, जिसकी तरफ कॉरपोरेट जगत, शहरी मध्यवर्ग और बहुसंख्यक वर्चस्ववादी समूहों का आकर्षित होना लाजिमी है। भाजपा इसी सामाजिक गठजोड़ के बूते इस बार चुनाव लड़ रही है।
क्या अब मोदी बदल गए हैं? अथवा क्या लोकतांत्रिक राजनीति की जरूरत ने उन्हें रणनीतिक रूप से नरम रुख अपनाने को मजबूर किया है? उगते सूरज को नमन करने वाले अनेक बुद्धिजीवी इन दोनों ही तर्कों का उपयोग करते हुए मोदी को भविष्य में एक नई भूमिका में देखने का प्रयास कर रहे हैं। यह सदिच्छा पूरी हो, तो उससे बेहतर कोई बात नहीं होगी। मगर सिर्फ इसलिए कि इस चुनाव अभियान में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने उग्र अल्पसंख्यक विरोधी भाषण नहीं दिए हैं, इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी हो सकती है। इस संदर्भ में दो बातें उल्लेखनीय हैं। पहली यह कि मोदी की उपस्थिति अपने-आप में एक पैगाम होती है। अतः अपने कट्टर समर्थकों के मन-माफिक वो बोलते रहें, यह मजबूरी उनके साथ नहीं है। इस चुनाव में उनका लक्ष्य मध्य-मार्ग पर आकर अपने प्रभाव-दायरे से बाहर के लोगों के आकर्षित करना है और ऐसा करने का कौशल उन्होंने दिखाया है। इसके बावजूद दूसरी बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। मांस निर्यात, कथित बांग्लादेशी घुसपैठियों और पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए हिंदुओं के मुद्दों पर मोदी ने बेलाग बयानी की है। पिंक रिवोल्यूशन की चर्चा छेड़ कर उन्होंन गौ-राजनीति को पुनर्जीवित किया, जो आरंभिक दिनों से भारतीय जनसंघ का मुद्दा था। बांग्लादेशी आव्रजकों के बीच हिंदू और मुसलमान का फर्क और पाकिस्तानी हिंदुओं के बारे में यह कह कर कि हिंदुओं के लिए अकेला देश भारत है, उन्होंने संघ परिवार की इस मूलभूत धारणा की पुष्टि की भारत असल में यहां के सभी बाशिन्दो का नहीं, बल्कि हिंदुओं का देश है। जबकि संघ की यही सोच असली समस्या है। ये वो सोच है, जिसका भारतीय संविधान की मूल भावना से सीधा अंतर्विरोध है। लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों की आधुनिक भावना पर आधारित सर्व-समावेशी संविधान के तहत बहुसंख्यक वर्चस्ववाद की कोई जगह नहीं हो सकती।
बहरहाल,इसके पहले कि हम मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की राजनीतिक जड़ों और उसमें आधुनिक भारतीय राष्ट्र के लिए निहित खतरों को समझने का प्रयास करें, उस दूसरे कारण पर गौर कर लेना उचित होगा, जिसकी वजह से 2014 का आम चुनाव सबसे अलग हो गया है। ये कारण कुछ जानकारों से शब्द उधार लेकर कहें, तो भारत का ‘रॉकफेलर मोमेन्ट (क्षण)’ है।जॉन डी रॉकफेलर 19वीं-20वीं सदी में अमेरिका के प्रमुख उद्योगपतियों में थे, जिन्होंने स्टैंडर्ड ऑयल कंपनी की स्थापना की थी। एक समय वे अमेरिका के सबसे धनी व्यक्ति माने जाते थे। उस युग में ही अमेरिकी कॉरपोरेट सेक्टर सबसे प्रभावशाली हुआ और अपने धन की ताकत से राजनीति को नियंत्रित करने लगा। कहा जाता है कि रॉकफेलर, कारनेगी आदि जैसे उद्योगपतियों का समूह चुनावों में विजेता का चयन करने लगा। वे जिसका समर्थन करते थे, उसके पक्ष में इतना धन और प्रचार शक्ति लगा देते थे कि उसके विरोधी मुकाबले से बाहर नजर आने लगते थे। क्या ‘अबकी बार मोदी सरकार’ के प्रचार अभियान के पीछे ऐसी ही परिघटना नजर नहीं आ रही है। मेनस्ट्रीम मीडिया में ऐसी बड़ी-बड़ी खबरें छपी हैं कि बड़े कॉरपोरेट महारथियों ने अपनी पूर्व प्रिय पार्टी कांग्रेस को इस बार नगण्य चंदा दिया है। उसने अपना सारा दांव मोदी पर लगा दिया है। तो क्या यह अकारण है कि नव-उदारवाद के हक में माहौल बनाने के मकसद से स्थापित रॉकफेलर फाउंडेशन और कारनेगी एन्डाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस जैसे थिंक टैंक जिस मिनिमन गर्वनमेंट, मैक्सिकम गवर्नेंस (लघुतम सरकार, अधिकतम शासन) के मंत्र को प्रचारित करते हैं, मोदी अपने टीवी इश्तहारों में उसे खुलेआम कह रहे हैं। इसका वास्तविक अर्थ कितने लोग समझते हैं, यह दीगर सवाल है।
असल में कॉरपोरेट सेक्टर के एक बड़े हिस्से और कम्यूनल पॉलिटिक्स में मेल की हालिया कथा, चार साल पीछे जाती है। 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में यूपीए सरकार ने कुछ कॉरपोरेट घरानों असंतुष्ट कर कुछ घरानों को अनुचित लाभ पहुंचाया। इससे अंसतुष्ट घरानों ने बदला लेने को ठानी। लगातार दो आम चुनावों में पराजय से हताश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार यूपीए की जड़े खोदने की पहले से फिराक में था। प्रमुख अखबारों में ऐसी खबरें छपी हैं, जिनका सार है कि इन दोनों के मिलन से इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की नींव पड़ी। 2011 का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन उसी का परिणाम था। वो आंदोलन ब्रांड मनमोहन को ध्वस्त करने और यूपीए (या कांग्रेस) को भ्रष्टाचार के समानार्थी के रूप में पेश करने में सफल रहा। उस आंदोलन से जुड़ी अनेक हस्तियां- मसलन, बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर, किरण बेदी आदि आज मोदी ब्रिगेड का हिस्सा हैं। कुछ ज्यादा महत्त्वाकांक्षी लोगों ने अपनी अलग पार्टी बना ली। इस कथित भ्रष्टाचार विरोधी पार्टी में भ्रष्ट छवि के लोगों की आज कोई कमी नहीं है। इसके बावजूद विडंबना देखिए कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर निशाने पर सिर्फ कांग्रेस है। जिस पार्टी में येदियुरप्पा, बी श्रीरामुलु जैसे नाम हैं, उसके प्रवक्ता टीवी चैनलों पर बैठ कर भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाते हैं। अन्ना आंदोलन से जुड़े लोग अपनी इस उपलब्धि पर जरूर फख्र कर सकते हैं!उन्होंने तीन साल पहले भाजपा के लिए रास्ता तैयार करने की जो मुहिम शुरू की थी, वह आज सफल होने के कगार पर है।
कुछ दिनों में इसका परिणाम यह हो सकता है कि भारतीय संविधान ने जिन उसूलों पर हमारे राष्ट्रवाद की नींव डाली उसकी सबसे प्रमुख विरोधी शक्ति अपने असली चेहरे के साथ दिल्ली के तख्त पर काबिज हो जाए। बहरहाल, राष्ट्रवाद का ये फर्क क्या है, इसे अधिक गंभीरता से समझने की जरूरत है। ध्यान दीजिए। नरेंद्र मोदी जब भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने की होड़ में थे, तब एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद को हिंदू नेशनलिस्ट कहा। इसका विस्तार किया कि चूंकि वे हिंदू हैं और राष्ट्रवादी हैं, इसलिए वे हिंदू राष्ट्रवादी हैं। क्या यह बात उतनी भोली है,जितनी मोदी ने दिखानी चाही? या इसके पीछे निहितार्थ कहीं गहरा है? दरअसल, जब हम ‘हमारे राष्ट्रवाद’ की बात करते हैं, तब यह विचार करना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि इस ‘हमारे’ में कौन-कौन शामिल है? एक हिंदू राष्ट्रवादी के नजरिए कौन-कौन ‘हम’ का हिस्सा है और उस भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा में ‘हम’ के दायरे में कौन-कौन आता है? अगर स्वतंत्रता आंदोलन के दौर से आज तक के भारतीय इतिहास पर हम गौर करें तो यह फर्क न सिर्फ साफ,बल्कि प्रतिस्पर्धी और काफी हद तक परस्पर विरोधी रूप में भी सामने आएगा। इस फर्क को समझे बिना हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ औऱ उससे प्रेरित भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को नहीं समझ सकते। तो आखिर ये फर्क कैसा है?
कुछवर्ष पहले 14 फरवरी को भाजपा शासित छत्तीसगढ़ के सरकारी स्कूलों में ‘मातृ-पितृ पूजन’ दिवस मनाया गया। सामान्य स्थितियों में इसमें वैसे बहुत आपत्ति की बात नहीं होती। मगर गौरतलब यह है कि ये दिन मनाने की योजना वेलेंटाइन दिवस के मुकाबले बनाई गई और अल्पसंख्यक स्कूलों की भावना का बिना ख्याल किए उनसे भी अपेक्षा की गई वे भी इस दिन को इसी तरह मनाएं। इसके पहले मध्य प्रदेश और गुजरात के स्कूलों में सूर्य नमस्कार और मध्य प्रदेश में गीता सार की पढ़ाई को इसी तरह अनिवार्य बनाने की कोशिश हुई थी। मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार ने जैसा सख्त गौ-हत्या निषेध कानून बनाया, वह खासा चर्चित रहा। गौ हत्या रोकने का एजेंडा हमेशा से भाजपा (पहले भारतीय जनसंघ) के एजेंडे में रहा है। मध्य प्रदेश के कानून के कुछ प्रावधान मानवाधिकारों का हनन करते दिखे,लेकिन इससे राज्य सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। और फिर सबसे ऊपर गुजरात का उदाहरण है, जहां नरेंद्र भाई ने हिंदुत्व का जो नमूना दिखाया, वही आगे चल कर उनकी सियासी ताकत बना।
2002में गोधरा ट्रेन अग्निकांड के बाद नरेंद्र मोदी न्यूटन के बहुचर्चित क्रिया के बराबर लेकिन विपरीत प्रतिक्रिया का सिद्धांत का बखान कर दंगों को उचित ठहराया था। उसके बाद मियां मुशर्रफ और पांच बीवियां पच्चीस बच्चों वाले उनके बयान एक खास ढंग की गोलबंदी करते रहे। दंगों में इंसाफ की बात तो दूर है, दंगा पीड़ितों को मुआवजा देने में भी राज्य सरकार ने जो बेरुखी दिखाई वह अब इतिहास में दर्ज है। गुजरात हाई कोर्ट ने 2002 के दंगा पीड़ितों को मुआवजा देने के मामले में अदालत के आदेश का पालन करने के लिए राज्य प्रशासन के खिलाफ अवमनाना का नोटिस जारी किया था। उन्हीं दंगों में क्षतिग्रस्त धर्म स्थलों के पुनर्निमार्ण के लिए सहायता न देने के लिए हाई कोर्ट को राज्य सरकार को फटकार लगानी पड़ी। इन दंगों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट को पहले काफी सख्त टिप्पणियां करनी पड़ी थी। इसके बावजूद राज्य सरकार “राजधर्म” निभाने को प्रेरित नहीं हुई। उलटे मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक आधार पर गोलबंदी की अपनी राजनीतिक पूंजी को सहेजने में लगे रहे। यही राष्ट्रीय स्तर पर उनकी सियासी ताकत है, जिससे उन्होंने संघ परिवार के समर्थक समूहों को उत्साहित एवं प्रेरित कर रखा है।
लेकिन यह वो राजनीति है, जिसका भारतीय संविधान की मूल भावना से अंतर्विरोध स्वयंसिद्ध है। लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों की आधुनिक भावना पर आधारित सर्व-समावेशी संविधान के तहत चल रही व्यवस्था का भाजपा की बहुसंख्यक वर्चस्ववाद की राजनीति से सीधा विरोध है। यह सियासत का एक ऐसा पहलू है, जो भाजपा को सबसे अलग पहचान देती है। इस अर्थ में वह भारत की परिकल्पना के दो प्रतिस्पर्धी विचारों में से एक का प्रतिनिधित्व करती है। इस बात को समझने के लिए इस प्रश्न पर ध्यान देना चाहिए कि कांग्रेस किस विचार का प्रतिनिधित्व करती है?मौजूदा वक्त में सकारात्मक तर्कों से इसे समझाना मुश्किल हो सकता है। लेकिन जब ध्यान भाजपा पर जाता है, तो वैचारिक एवं राजनीतिक वर्ग चरित्र से जुड़े तमाम सवालों से घिरे होने के बावजूद भारत के दीर्घकालिक भविष्य के संदर्भ कांग्रेस एक प्रासंगिक ताकत मालूम पड़ने लगती है। कारण यह कि पिछले तकरीबन डेढ़ सौ साल में विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक संघर्षों से जिस भारतीय राष्ट्रवाद या भारत के जिस विचार का उदय हुआ, उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में भाजपा खड़ी है।
यहसमझने की बात है कि आखिर वो भारतीय राष्ट्रवाद क्या है, और भाजपा क्यों उसकी एंटी-थीसिस (यानी प्रतिवाद) है? इसे हम भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के ऐतिहासिक क्रम और इसके मुख्य आधार बिंदुओं का उल्लेख करते हुए तथा भाजपा की मूलभूत मान्यताओं के बरक्स उन्हें रखते हुए आसानी से समझ सकते हैं। आधुनिक भारत का विचार- जिसकी अभिव्यक्ति हमारे संविधान में हुई- भारतीय जनता के आर्थिक हितों के साझापन की एक व्यापक समझ के साथ आगे बढ़ा। इसके आरंभिक सूत्र दादाभाई नौरोजी द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हाथों भारत के आर्थिक शोषण के गहरे विश्लेषण से निकले, जिसका निहितार्थ यह रहा कि हमें आजादी इसलिए चाहिए क्योंकि यह हम सबके आर्थिक हित में है। नवजागरण के मनीषियों ने जिस सर्व-समावेशी समाज एवं दिमागी खुलेपन की संस्कृति पर जोर दिया, वह इस राष्ट्रवाद का दूसरा आधार है। इसका निहितार्थ है कि भारत में जन्मा हर शख्स यहां का बाशिंदा है और उनके बीच धर्म, जाति, नस्ल, लिंग या किसी अन्य आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो सकता। इसमें तीसरा पहलू लोकतंत्र का जुड़ा,जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम में व्यापक जन भागीदारी, उससे पैदा हुई जन चेतना, और विभिन्न विचारधाराओं के संघर्ष एवं समन्वय की परिणति है। और चौथा आधार विकास का वो एजेंडा है, जिसे लेकर आजादी के बाद यह राष्ट्र आगे बढ़ा। भारतीय राष्ट्रवाद की इस धारणा को तमाम क्रांतिकारी एवं प्रगतिशील शक्तियों ने आगे बढ़ाया, लेकिन इसकी सबसे बड़ी वाहक शक्ति कांग्रेस रही है।
कांग्रेस आज समूचे भारतीय जन के आर्थिक हितों की नुमाइंदगी करती है, यह शायद ही कहा जा सकता है। सर्व-समावेशी धारणा में उसकी आस्था संदिग्ध है, क्योंकि उस पर नवंबर चौरासी के सिख दंगों का दाग है एवं उस पर अनेक मौकों पर सांप्रदायिक कार्ड खेलने के विश्वसनीय आरोप हैं। आदर्श रूप में पार्टी का स्वरूप लोकतांत्रिक नहीं है,यह उसके वंशानुगत नेतृत्व से जाहिर है। और आज उसका जो विकास संबंधी एजेंडा है, वह प्रभुत्वशाली तबकों के हितों में झुका हुआ है, इसे तर्कों से साबित किया जा सकता है। मगर ये तमाम बातें उस समय छोटी हो जाती हैं, जब उसके सामने भाजपा खड़ी दिखती है। इसलिए कि भाजपा मूल रूप से आधुनिक राष्ट्रवाद की धारणा को ही चुनौती देने वाली शक्ति है। भाजपा जिस संघ परिवार का हिस्सा है, उसकी राष्ट्रवाद की समझ में आर्थिक हितों के साझापन, सर्व-समावेशी स्वरूप, प्रगतिशील लोकतंत्र और जनपक्षीय विकास की कोई जगह नहीं है। इसके विपरीत यह राष्ट्रवाद कथित सांस्कृतिक आधार से परिभाषित होता है। सीधे शब्दों में कहें तो इसका अर्थ पुरातन हिंदू संस्कृति है। यह संस्कृति अपने आप में एक विवादास्पद धारणा है, लेकिन अगर कोई राष्ट्रवाद मजहबी संस्कृति पर खड़ा होगा, तो स्वाभाविक रूप से उसमें उन लोगों के लिए कोई जगह नहीं होगी जो उस संस्कृति का हिस्सा नहीं होंगे। उसमें बहुत से लोगों का स्थान उस सांस्कृतिक मान्यता के मुताबिक श्रेणी-क्रम में ऊपर या नीचे तय हो जाएगा। संघ परिवार का सारा विमर्श इस बात की पुष्टि करता है कि भाजपा जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद स्थापित करना चाहती है, उसमें एक इंसान की कीमत पुरातन मान्यताओं से तय होगी। इसलिए यह राष्ट्रवाद सिर्फ धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए नहीं, बल्कि दलितों, पिछड़ी जातियों, महिलाओं और आधुनिक-ख्याल तमाम लोगों के लिए एक चुनौती है।
यह कथन कि व्यावहारिक राजनीति की मजबूरियां भाजपा को एक सामान्य राजनीतिक दल बना देती हैं और सत्ता की चाह में उसकी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा अप्रासंगिक हो जाती है, अनुभव से सिद्ध नहीं है। बल्कि आज भी यह गौर करने योग्य है कि भाजपा किन मुद्दों पर वोट मांगती है? उसके मुख्य मुद्दे अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, समान नागरिक संहिता और संविधान की धारा 370 की समाप्ति हैं। इसके अलावा गो-रक्षा, स्कूलों में सूर्य नमस्कार एवं गीता की पढ़ाई थोपना, पाठ्यक्रम में अंधविश्वास भरी विषयवस्तुओं को जगह देना और विकास की धारणा को पूर्णतः अभिजात्य हितों के मुताबिक प्रस्तुत करना भाजपा शासन में रोजमर्रा के अनुभव हैं। दरअसल, खुद भाजपा इन मुद्दों को अपनी खास पहचान मानती है। जाहिर है, इनके आधार पर ही बहुमत जुटाकर वह सत्ता में आना चाहती है। इस परिप्रेक्ष्य में नरेंद्र मोदी पार्टी में कोई अपवाद नहीं, बल्कि उसके सबसे स्पष्ट प्रतीक हैं। इस राजनीति में जोर-जबर्दस्ती का तत्व नैसर्गिक रूप से शामिल है, क्योंकि सिर्फ उसके जरिए ही कोई जीवन शैली या संस्कृति किसी अन्य पर थोपी जा सकती है। इसलिए वेलेंटाइन डे मना रहे लोगों पर हमला या किसी किताब, कला-संस्कृति- या अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों की आजादी को प्रतिबंधित करने की प्रवृत्ति कोई अलग-थलग रुझान नहीं, बल्कि इस विचारधारा का अभिन्न अंग है।
1980के दशक तक भाजपा हाशिये पर की ताकत थी। लेकिन राम जन्मभूमि आंदोलन और बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद बनी परिस्थितियों में वह देश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गई। इसके साथ राजनीति में वह विभाजन रेखा (फॉल्टलाइन) सबसे प्रमुख हो गई, जिसके आधार पर भाजपा एक तरफ और बहुसंख्यक वर्चस्ववाद एवं रूढ़िवाद विरोधी ताकतें दूसरी तरफ खड़ी दिखती हैं। चूंकि 1990 के दशक के घटनाक्रम ने भाजपा को केंद्र की सत्ता में पहुंचा दिया और सत्ता का अपना गतिशास्त्र होता है, इसलिए बहुत से ऐसे दल, जो मूल रूप से संघी राष्ट्रवाद से सहमत नहीं हैं, वे भाजपा के सहयोगी बन गए। सांप्रदायिकता की विभाजन रेखा की इस अनदेखी ने सबसे न्याय एवं सबको साथ लेकर चलने वाले राष्ट्रवाद के लिए गंभीर चुनौती पैदा कर दी। यह स्थिति इस आम चुनाव में बेहद खतरनाक रूप में हमारे सामने है। गौरतलब है। इस आम चुनाव के दौरान, जब भाजपा कथित रूप से विकास के मुद्दे पर मैदान में उतरी है, नरेंद्र मोदी गो-हत्या से लेकर बांग्लादेशी शरणार्थियों के मामले में सांप्रदायिक नजरिए से बयान दे चुके हैं। मुजफ्फरनगर दंगों के दोषियों को उम्मीदवार बनाना यही साबित करता है कि भाजपा ने अपने मूल चरित्र से कोई समझौता नहीं किया है। चूंकि चुनावी राजनीति में सफल होने के लिए मिडिल ग्राउंड पर आना मजबूरी है, इसलिए यह भ्रम पैदा करने की कोशिश जरूर की गई है कि पार्टी सबको लुभाना चाहती है। लेकिन पार्टी का इतिहास और वर्तमान दोनों ऐसे हैं कि ये भ्रम ज्यादा देर तक नहीं टिक पाता।
इसपरिस्थिति में आधुनिकता एवं प्रगतिशीलता के अर्थ में राष्ट्र-भक्त एवं जन-पक्षीय लोगों के सामने पहला लक्ष्य भारत के आधुनिक विचार की रक्षा और भारतीय राज्य-व्यवस्था को राष्ट्रवाद के उस सिद्धांत पर टिकाए रखना है, जो न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की एक अनिवार्य शर्त है। कम्युनिस्ट विचारधारा में वस्तुगत परिस्थितियों के वस्तुगत विश्लेषण का सिद्धांत बहुमूल्य माना जाता है। इस सिद्धांत को अगर आज हम अपने हालात पर लागू करें, तो उससे यही समझ निकलती है कि धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र एवं संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा एवं समाज के उत्तरोत्तर लोकतंत्रीकरण के संदर्भ में उन तमाम शक्तियों की आवश्यकता बनी हुई है, जो भाजपा के खेमे में नहीं हैं। जब तक भाजपा के राष्ट्रवाद को परास्त नहीं कर दिया जाता, भारतीय राष्ट्रवाद की यह मजबूरी बनी रहेगी। मगर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय राजनीति की इस प्रमुख विभाजन रेखा की प्रासंगिकता की समझ हाल के वर्षों में धुंधली होती गई है। इसके लिए काफी हद तक कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए की नीतियां जिम्मेदार हैं, लेकिन इसकी कुछ जिम्मेदारी उन पार्टियों की भी है,जिन्होंने फ़ौरी राजनीतिक फायदों को दीर्घकालिक उद्देश्यों पर ज्यादा तरजीह दी। और इसके लिए दोषी वे लोग भी हैं, जो अपनी अति-क्रांतिकारिता में समाज में विवेकहीनता फैलाने में मददगार बने। विवेकहीनता और अनावश्यक हताशा के इसी माहौल में नरेंद्र मोदी को खुद को मजबूत नेता के रूप में पेश कर बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को भी अपने पक्ष में करने में सफल हुए हैं, जो आम तौर पर हिंदुत्व जैसी संकीर्ण सोच से संचालित नहीं होते।
बहरहाल,मीडिया खबरों से साफ है कि मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कमर कसी हुई है। उसके स्वयंसेवक देश भर में बारीक ढंग से चुनाव अभियान और बूथ मैनेजमेंट को संभाल रहे हैं। कॉरपोरेट सेक्टर ने इस कार्य में धन की कोई कमी नहीं रहने दी है। संघ और कॉरपोरेट के मेल ने भारत का अपना खास रॉकफेलर पल हमारे सामने प्रस्तुत किया है। क्या भारतीय मतदाता एक बार फिर 1977 और 2004 जैसी राजनीतिक बुद्धि का परिचय देकर तमाम अनुमानों को झुठलाते हुए लोकतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना को जिंदा रख पाएंगे? या वे विकास की मुखौटे से धोखा खाकर उस मुख को सत्ता तक पहुंचा देंगे, जिससे हमें अपने जीवन के सबसे दुर्भाग्यपूर्ण सार्वजनिक क्षण का सामना करना पड़ेगा? इस चुनाव में यही प्रमुख सवाल हमारे सामने हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल
जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.