सत्येंद्र रंजन |
-सत्येंद्र रंजन
"...प्रत्याशी दल-बदलू, दागी या भ्रष्ट हो, तब भी उसकी चुनावी संभावनाओं पर अधिक अंतर नहीं पड़ता, बशर्ते उसने सही जातीय समीकरण बिठाया और हवा के मुताबिक दल का चयन किया। गहराई में जाकर देखें तो दल-बदल या सिद्धांतहीन राजनीति की असली जड़ें इस प्रवृत्ति में छिपी दिखेंगी। मगर इसी रुझान का दूसरा पक्ष यह है कि मतदाताओं के लिए दलों का सामाजिक आधार और उनका विचारधारात्मक झुकाव महत्त्वपूर्ण है। धर्मनिरपेक्षता या भारत का आधुनिक विचार सुरक्षित है, तो इसीलिए कि अधिकांश मतदाता भारत के दूसरे विचार (हिंदू राष्ट्र) से प्रभावित नहीं हुए हैं।..."
साभार- http://media2.intoday.in/ |
फिलहाल,इस प्रवृत्ति का सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को मिलता दिखता है। पिछले वर्ष हुए चार विधानसभाओं के चुनाव नतीजों, मीडिया और जनमत सर्वेक्षणों ने ये धारणा बना दी कि नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनने की अब सिर्फ रस्म-अदायगी होनी है। तो सत्ता के साथ रहने के इच्छुक नेता और दल भाजपा के खेमे में जुटने लगे। आम समझ यही है कि इसका भाजपा को लाभ मिलेगा, हालांकि मोदी ने पैराशूट से नेताओं को उतार पार्टी में जो असंतुलन पैदा किया है, उसकी आंतरिक प्रतिक्रिया के प्रभावों से पार्टी बिल्कुल बची रहेगी- ऐसा नहीं लगता। यह बात साफ झलकती है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा का मंडलीकरण हो रहा है। बाहर से दलित और ओबीसी नेताओं को लाने में मोदी गुट ने खास रुचि दिखाई है। इसका सवर्ण समूहों के भाजपा के प्रति रुख पर अल्प और दीर्घकाल में क्या असर होता है, यह देखने की बात होगी।
जहां तक भाजपा विरोधी खेमे की बात है, तो यह याद कर लेने की जरूरत है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय राजनीतिक दलों या नेताओं के लिए अनुलंघनीय विभाजक रेखा है, यह भ्रम 1998-2004 के भाजपा नेतृत्व वाले शासन के दौर में ही मिट गया था। उस अवधि में यह स्पष्ट हुआ कि हिंदू राष्ट्रवाद समर्थक ताकतों के खिलाफ गोलबंदी में सिर्फ दो ताकतों पर भरोसा किया जा सकता है। उनमें भी केवल कम्युनिस्ट पार्टियां ऐसी हैं, जिनके पास मजहबी सियासत की विचारधारात्मक आलोचना मौजूद है और जिनकी सियासी रणनीति तर्क से प्रेरित है। दूसरी ताकत कांग्रेस है, जो हालांकि अतीत में सर्व-समावेशी, न्याय आधारित भारतीय राष्ट्रवाद की प्रमुख वाहक शक्ति रही, लेकिन वर्तमान में महज अपने राजनीतिक हितों के कारण वह बहुसंख्यक वर्चस्व की राजनीति के विरुद्ध है। बहरहाल, भाजपाई सियासत और कांग्रेस के हित इस हद तक परस्पर विरोधी हैं कि कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की झंडाबरदार बनी रहेगी, इस पर यकीन किया जा सकता है। बाकी दलों में जिनके हित धर्मनिरपेक्षता के नारे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं (मसलन, सपा और आरजेडी) वे भाजपा विरोधी खेमे में रहेंगे, यह जरूर माना जा सकता है, हालांकि वे कब भाजपा से अंतर्संबंध बना लें, इस बारे में कुछ कहना कठिन है।
ऐसीधुंधली स्थिति और दलों/नेताओं के ढुलमुल रुख के बावजूद भारतीय समाज की संरचना ऐसी है कि धर्मनिरपेक्षता बनाम बहुसंख्यक वर्चस्व (अथवा हर किस्म की सांप्रदायिकता) के बीच विभाजन रेखा अभी लंबे समय तक मुख्य राजनीतिक विभाजन रेखा बनी रहेगी। इसलिए धर्मनिरपेक्षता भले अधिकांश दलों/नेताओं के लिए आस्था का मूल्य ना बने, मगर इस मुद्दे पर राजनीतिक ध्रुवीकरण होता रहेगा। इसीलिए व्यापक संदर्भ में देखें, तो कथित धर्मनिरपेक्ष खेमे से दलों/नेताओं के भाजपा के पाले में जाना महत्त्वहीन घटना है। इससे भाजपा की ताकत बढ़ सकती है, लेकिन इससे धर्मनिरपेक्ष जनमत एवं ऐसी आस्था वाले जन समुदायों के बीच उसकी स्वीकृति नहीं बन सकती। तब तक, जब तक कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राजनीतिक मोर्चे के रूप में काम करती रहेगी।
हालके एक महत्त्वपूर्ण सर्वेक्षण से ये सामने आया (जिससे पहले के कई सर्वेक्षण निष्कर्षों और आम अनुभव की पुष्टि ही हुई) कि अधिकांश भारतीय मतदाताओं का मतदान संबंधी निर्णय उम्मीदवार के गुण-दोष के आधार पर नहीं, बल्कि दल और जाति से प्रेरित होता है। मतलब यह कि प्रत्याशी दल-बदलू, दागी या भ्रष्ट हो, तब भी उसकी चुनावी संभावनाओं पर अधिक अंतर नहीं पड़ता, बशर्ते उसने सही जातीय समीकरण बिठाया और हवा के मुताबिक दल का चयन किया। गहराई में जाकर देखें तो दल-बदल या सिद्धांतहीन राजनीति की असली जड़ें इस प्रवृत्ति में छिपी दिखेंगी। मगर इसी रुझान का दूसरा पक्ष यह है कि मतदाताओं के लिए दलों का सामाजिक आधार और उनका विचारधारात्मक झुकाव महत्त्वपूर्ण है। धर्मनिरपेक्षता या भारत का आधुनिक विचार सुरक्षित है, तो इसीलिए कि अधिकांश मतदाता भारत के दूसरे विचार (हिंदू राष्ट्र) से प्रभावित नहीं हुए हैं। 7 अप्रैल से 12 मई तक लोकतंत्र के महा-आयोजन में दांव पर लगा सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या ये स्थिति अब बदल सकती है? अगर ये जाहिर हुआ कि ऐसा नहीं है, तो फिर दलबदलू नेताओं का क्या होता है, ऐतिहासिक नजरिए यह अप्रासंगिक प्रश्न है।
इसआम चुनाव में उससे कहीं अधिक बड़ा सवाल दांव पर है। भाजपा इस बार संघ के एजेंडे के साथ सफल होने की जैसी स्थिति में है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। भारतीय जनसंघ के दिनों में उसकी ताकत इतनी कम थी कि उसकी उद्घोषणाओं का ज्यादा मतलब नहीं था। 1991 या 1996 में भारतीय राज्य-व्यवस्था को पुनर्परिभाषित करने के उद्घोष के साथ वह मैदान में जरूर उतरी थी, लेकिन तब वह राजनीतिक फलक पर अलग-थलग पड़ी हुई थी। तब सफल होने के लिए उसे अपने ‘मुख’ और ‘मुखौटे’ में फर्क करना पड़ा। मगर इस बार हालात अलग हैं। उसने नरेंद्र मोदी को अपना नेता चुना है। अब मोदी ही उसके मुख और मुखौटा दोनों हैं। मोदी ने संघ प्रचारक से लेकर अब तक का सफर तय करते हुए संघ के वैचारिक मॉडल को जितने खुलेआम ढंग से आगे बढ़ाया, उतना शायद ही किसी और ने किया हो। इसलिए ये अकारण नहीं है कि मोदी के कारण भाजपा एवं संघ के समर्थक-समूह उत्साहित नजर आते हैँ। संघ नेताओं ने कुछ महीने पहले कहा था कि 2014 का आम चुनाव उनके लिए मेक या ब्रेक इलेक्शन है। जब भारतीय राष्ट्रवाद को चुनौती देने वाली विचारधारा उतनी कृत-संकल्प नजर आती हो, तो यह स्वयंसिद्ध है कि इस राष्ट्रवाद के समर्थकों के सामने कैसी और कितनी बड़ी चुनौती है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल
जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.