अविनाश कुमार चंचल |
-अविनाश कुमार चंचल
"जिन्दगी तो लाट साब, सब गुजारे ला, लेकिन हम लोग जिन्दगी के घिसट रहल बा”
"...बस्ती से थोड़ा अलग हट कर एक छत का लेकिन अधूरा मकान दिखता है। इस मकान के मालिक रामप्रसाद वैगा की कहानी इस विस्थापन की सबसे दिलचस्प कहानी है। रामप्रसाद उन कुछ लोगों में हैं जिन्हें घर-जमीन के लिए सबसे ज्यादा मुआवजा मिला। पूरे तीन लाख रुपये। लेकिन मुआवजे से ज्यादा बड़ी कीमत रामप्रसाद ने चुकाई।..."
देश की ऊर्जा राजधानी सिंगरौली (मध्यप्रदेश) से करीब तीस किलोमीटर दूर अंधेरे में डूबी बस्ती है अमलौरी। रिलायंस पावर को आवंटित कोयला खदान से विस्थापित लोगों के लिए अमलौरी में एक विस्थापन कॉलोनी बसाई गई है। इस कॉलोनी में ज्यादातर वैगा समुदाय के आदिवासी हैं।
बस्तीसे थोड़ा अलग हट कर एक छत का लेकिन अधूरा मकान दिखता है। इस मकान के मालिक रामप्रसाद वैगा की कहानी इस विस्थापन की सबसे दिलचस्प कहानी है। रामप्रसाद उन कुछ लोगों में हैं जिन्हें घर-जमीन के लिए सबसे ज्यादा मुआवजा मिला। पूरे तीन लाख रुपये। लेकिन मुआवजे से ज्यादा बड़ी कीमत रामप्रसाद ने चुकाई।
लगभग 50 बकरी का मालिक रामप्रसाद का परिवार अपने गांव के संपन्न परिवारों में से एक था। खेती, महुआ और बकरी बेचकर लाख रुपये से ज्यादा सलाना की कमाई वाला परिवार। टीवी-सीडी प्लेयर, संपन्न घर वाला परिवार। रामप्रसाद को अपनी सारी बकरी बेचनी पड़ी और साथ ही घर का सारा समान भी। यहां तक कि सीडी प्लेयर-टीवी तक सबकुछ। वे कहते हैं ‘जब जंगल ही नहीं बचा तो बकरी को कहां चराने ले जाते, कहां मुर्गी रखते। करीब डेढ़ लाख की बकरी बिकी, मुआवजे का तीन लाख सब मिलाकर उसने घर बनवाना शुरु तो कर दिया लेकिन बीच में ही पैसा खत्म हो गया। अब तो खाने को पैसे नहीं हैं तो घर कहां से बनेगा साहब’। घर के बने कमरों में मिट्टी तक नहीं भरी है, न खिड़की, किवाड़. न बिजली। हर कुछ आधा-अधूरा। रामप्रसाद बताते हैं कि शुरु में सोचे कंपनी वाला नौकरी का वादा किया है तो पैसा और बढ़ेगा ही। घर बनाने में हाथ लगा दिया लेकिन नौकरी नहीं मिलने से सारा हिसाब खराब हो गया। वो बताते हैं "हमलोग का पूराना बस्ती से रिलांयस कंपनी भगा दिया। हमलोग सीधा-सादा आदमी सोचे कि वादा कर रहा है तो मिलेगा सुविधा। अब ऐसे जगह प्लॉट दिया जहां न घर न हवा न पेड़-पौधा।" अब क्या करें वो सवाल करते हैं। फिर खुद से ही जवाब देते हैं अब लड़ाई करेंगे।
रामप्रसादकहते हैं कि ‘इतना गर्मी में हमलोग जंगल की ओर चले जाते थे। घूमने-फिरने से लेकर लकड़ी लाने तक। हमेशा जंगल सुबह जाते तो चार-पांच बजे शाम में लौटते’ । उनकी पत्नी अतोरी देवी कहती है "यहां आकर जिंदगी दुख से भरा हो गया। बीमार पड़ते हैं तो डॉक्टर के पास नहीं जा पाते। डॉक्टर के पैसा देंगे कि पेट भरेंगे। पहले जंगल रहता था तो बीमार होने पर भी टहलते-टहलते जंगल से कमाने लायक महुआ-पत्ता बीन लाते थे। दातुन से लेकर सब्जी तक सबकुछ जंगल से ही लाते।"
मर जाएंगे तब मिलेगी नौकरी...
‘नौकरीमिलेगी, नौकरी मिलेगी मर जाएंगे तब मिलेगी नौकरी?’- हमें देखते ही रामलल्लू वैगा उदास आवाज में पूछते हैं। रामलल्लू को घर का 90 हजार रुपया मुआवजा मिला जिसमें 75 हजार रुपये कंपनी ने घर देने के नाम पर काट लिया। रामलल्लू भी अपना दर्द कुछ यूं कहते हैं- ‘जंगल-जमीन रहे तो साल भर खाने लायक अनाज उपजा लेते थे। अनाज घटे तो लकड़ी-झर्री, महुआ-पत्ता जंगल से लाके गुजर-बसर हो जाता। न कोई दवा-दारु का खर्चा। यहां तो 25 रुपये किलो चावल खरीद खा रहे हैं और एस्बेस्टस के घर में गर्मी से मर रहे हैं’। रामलल्लू अपने घर-गांव को याद करने लगते हैं- ‘मिट्टी का घर रहे लाट साहब! एकदम फैल जगह। कोई पेड़ के नीचे पूरा गांव एक जगह बैठ घंटो बैठकी लगावत रहे लेकिन अब न पेड़-पौधा है न बैठकी। सब अपना-अपना घर में दुबक समय काट रहे हैं’। रामलल्लू पूराने दिनों में खोते जा रहे हैं- ‘लकड़ी, मजदूरी खेती, बकरी,महुआ सबसे खूब कमाई होत रहे। नय कुछो त 200 रुपये कमाई हो जात रहे लेकिन यहां तो हफ्ता भर काम मिलता है तो महीना भर बैठे रहो वाला हालत है। काम मिले तो खाओ और नहीं तो भूखे मरो। पूरखा के जमीन से बहुत याद जुड़ल रहल लाट साहब’।
रामलल्लू की पत्नी महरजिया भी उन दिनों को याद करने लगती है जब कंपनी के दलाल गांव का चक्कर काटने लगे थे। महरजिया बताती है कि पूरे गांव ने फैसला किया था कि हमलोग नहीं डोलेंगे। कंपनी एजेंट सब आकर बुलडोजरी लगा देने की धमकी देने लगे। कहते- ‘पिचा के मर जाओगे रात में बुलडोजर चलवा देंगे। बच्चा सबके बचावे खातिर आवे पड़ी। नौकरी का वादा छोड़ दहिन तबो कोई झांके भी नहीं आवत है’।
‘नकाम धंधा और न जंगल। सरकार तो पहिले भी कुछो नहीं देत रहे और अब जै रहे हमरे पास वो भी छिन लिया। अरे अनाज नहीं मिलता तो महुआ, कंदा खाके ही जी ले रहे थे। हमलोग मरबे करी साहब’। – महरजिया बोलते-बोलते चुप हो जाती है। हां उसकी आँखे बोलने लगती है।
चलते-चलते रामप्रसाद हमें कहते हैं "जिन्दगी तो लाट साब, सब गुजारे ला लेकिन हम लोग जिन्दगी के घिसट रहल बा”
अविनाश युवा पत्रकार हैं.पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से.अभी स्वतंत्र लेखन. इनसे संपर्क का पता- avinashk48@gmail.com है.