संदीप सिंह |
-संदीप सिंह
"...एक दूसरा प्रचार जो चीख-चीखकर किया जा रहा है कि अगर ऐसा ही रहा तो हमारे यहाँ निवेश आना आना बंद हो जायेगा. यह सबसे बड़ा झूठ है. दुनिया में वह कौन सी जगह है जहाँ पूंजी और श्रम के बीच संघर्ष न चल रहा हो? पूंजी को, निवेशकों को इस झगडे से डर नहीं है वे तो इस झगडे में राज्य की प्रतिबद्धता अपनी लिए सुनिश्चित करना चाहते हैं. नहीं तो आज जिस गुजरात और नरेन्द्र मोदी की प्रशंशा देशी-विदेशी निवेशक करते नहीं थकते वहां पिछले साल की आर्थिक रिपोर्ट बताती है कि देश में सबसे ज्यादा मजदूर विवाद गुजरात में दर्ज किये गए..."
ऐसा लग रहा है कि 18 जुलाई एक ‘फ्रीज़ शाट’ हो पिछले डेढ़ साल से मारुति में चल रहे चलचित्र का*. कुछ लोग इसे ‘दि एंड’ का क्षण बना देना चाहते हैं. मुमकिन है कुछ समय के लिए ऐसा लगे भी. पर जैसे-जैसे ‘लम्पट बुर्जुआ’, उसके खरीदे मीडिया हाउसों, कमेंटेटरों, एंकरों, बिना दाम गुलामों द्वारा बांचे जा रहे कंपनी के ‘हैण्डआउट्स’ से उड़ाई जा रही गर्द-गुबार थमेगी तब न सिर्फ सच्चाई बल्कि क्षणिक तौर पर कमजोर होते दिख रहे मजदूरों के सवाल, उनकी लड़ाई भी सामने आयेगी. पर यह सब अपने आप नहीं होगा.
*(पिछले महीने की 18 जुलाई को हुई घटना की बारे में, उसकी पृष्ठभूमि व अन्य सूचनाओं के बारे में ‘जनमत’ के पाठक जान रहे होंगे यह मानकर उस विस्तृत विवरण में न जाते हुए संक्षिप्त विवरणों की मदद से एक नजरिया रखने की कोशिश इस लेख में की गयी है.)
1 मई 2009 को फरीदाबाद की लखानी फैक्ट्री में ब्वायलर फटने से ‘आधिकारिक’ तौर पर 36 मजदूरों की जलकर मौत हो गयी थी. बुनियादी अग्नि-सुरक्षा उपायों की आपराधिक उपेक्षा के चलते यह हादसा हुआ. लखानी वर्धन ग्रुप पर, मनेजमेंट पर कोई कार्यवाही, कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ. कोई जांच नहीं बैठाई गयी.
अधिकाँश मजदूर अविवाहित, युवा ‘ठेका मजदूर’ थे. नेपाल, बिहार से पलायन कर बजबजाती-उबलती झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हुए देश-दुनिया भर के लिए जूते-चप्पल और चमड़े के समान वे बनाते थे. कंपनी के ‘पे रोल’ में उनका नाम नहीं था. उनकी पहचान करनी मुश्किल हो गयी. उनमें से किसी का दांत सोने का नहीं था. किसी के पास उनके रिश्तेदारों के पते नहीं थे कि डीएनए टेस्ट से मिलान कराया जा सके. लिहाज़ा सब बेनाम, बेपहचान दफन कर दिए गए. उनमें से कईयों के परिजन, हो सकता है अब भी उनका इंतज़ार करते हों और उनके चले आने की मन्नतें माँगा करते हों या ‘खोया-पाया विभाग’ में अर्जियां दिया करते हों.
20 जुलाई 2012 को मारुति के मानेसर प्लांट में एक दिन पहले हुई तथाकथित मजदूर ‘हिंसा’ वाली जगह पर एक जला हुआ शव मिला. यह शव कंपनी के मानव संसाधन विभाग के जनरल मैनेजर श्री अवनीश कुमार देव का था. श्री देव का एक दांत सोने का था. उनके परिवार के सदस्यों से लिए गए डीएनए नमूने श्री देव के शव के डीएनए नमूनों से मेल करते पाए गए. मृत की पहचान करने की प्रक्रिया में इंतज़ार करते बैठे श्री देव के परिवार के सदस्यों की पीड़ा अकल्पनीय है. लखानी फैक्ट्री के भीतर राख कर दिए गए उन 36 मजदूरों के रिश्तेदारों की पीड़ा की जरा कल्पना कीजिये.
फैक्ट्रियां क़त्ल करती हैं. पर मरने वाले - यदा-कदा मैनेजमेंट से – अक्सर मजदूर होते हैं. पूंजी और श्रम का रिश्ता ही ऐसा है कि आग तो फैक्ट्रियों में हमेशा ही लगी रहती है पर कभी-कभी वह भड़क जाती है. और तब इस आग की भीषण रोशनी में स्याह अँधेरे में छुपे-दबे सवाल चमक उठते हैं. “पूंजी मृत श्रम है लेकिन वैम्पायर की तरह यह जीवित श्रम को चूसकर ही जिन्दा रह सकती है. जितना जीवित श्रम यह चूसती है उतना ही उसकी आयु बढ़ती है.” (मार्क्स)
कल्पना कीजिये एक कार फैक्ट्री की- जहाँ मजदूर 36 सेकंड्स में एक कार तैयार करते हों बिना रुके, बिना थके, काम के लगभग लगातार आठ घंटों तक. बीच के 7 मिनट के चाय ब्रेक और 30 मिनट के लंच ब्रेक को छोड़कर. जहाँ पेशाब करने जैसी प्राकृतिक क्रियाओं को भी समय के अंतराल में बाँध दिया गया हो. यह जानना जरूरी है कि वर्कफ्लोर पर उन्हें रोबोट्स के साथ काम करना पडता है. असेम्बली लाइन में वे किसी साथी मजदूर से नहीं बल्कि मशीन से ‘कम्पीट’ करते हैं.
फिर वहां उन्हें अपनी यूनियन बनाने का अधिकार नहीं था. वे इसके लिए लड़े और मुश्किलों का सामना करते हुए जीते. उनके साथ किस्म-किस्म की ज्यादती- भेदभाव होते थे. वे उसके खिलाफ लड़े. उनके साथ काम करने वाले 65% से ज्यादा मजदूर ‘ठेके की विभिन्न किस्मों’ पर रखे गए थे. समान काम के बावजूद उनके वेतन में कई गुना का अंतर था. वे इसके खिलाफ लड़े, हडतालें की, लाठियां खायीं, गिरफ्तार हुए, पर हार नहीं मानी, भड़के नहीं, लड़ाई जारी रही. उनके कुछ नेता बिक गए, कुछ निकाल दिए गए, उन्हें तोड़ने की कोशिशें जारी रहीं पर वे अपनी एकता को सुरक्षित रखते हुए लड़ाई को आगे बढ़ाते रहे.
डेढ़ साल से अनुशासन, एकता, लचीलेपन, लड़ाकू तेवर व कार्यवाही की बेहतरीन मिसाल के साथ अहिंसक तरीके से चलने वाला यह मजदूर आन्दोलन क्या ‘भटक’ गया? आज इस सवाल को बड़ी मासूमियत से पूछा जा रहा है. दिक्कत यह है कि ऐसे ‘मासूम’ लोग वही देख रहे हैं जो दिखाया जा रहा है. जो नहीं दिख रहा है लेकिन जिसका अस्तित्व है अगर उसे देखने-समझने की कोशिश की जाये तो न सिर्फ 18 जुलाई बल्कि सब कुछ समझ में आ जाएगा.
मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड (एमएसआईएल)पिछले कुछ वर्षों में मारुति उद्योग की सबसे ज्यादा उत्पादक, मुनाफे वाली शाखा के रूप में उभरी है. मारुति की सालाना रिपोर्ट बताती है कि जहाँ मंदी के वर्षों 2008-09 में जापान में सुजुकी कार उत्पादन-बिक्री में गिरावट दर्ज की गयी वहीँ एमएसआईएल(मारुति सुजुकी इंडिया लिमिटेड) की उत्पादन-बिक्री में तीव्र उछाल दर्ज की गयी. सुजुकी मोटर कारपोरेशन की सालाना रिपोर्ट के हिसाब से 2010-11 में ग्लोबली इसने 26,41,634 यूनिट्स कारें बेचीं जिसमे 4,88,394 यूनिट्स जापान में बेची गयी और 20,53,239 यूनिट्स जापान के बाहर. इसमें से एमएसआईएल की कुल बिक्री 2010-11 में 12,71,004 यूनिट्स की थी.
इससे जाहिर है कि एमएसआईएल की भागीदारी सुजुकी की 2010-11 में जापान के बाहर होने वाली बिक्री का 62% थी और इसकी ग्लोबल बिक्री का 48% थी. 2009-10 में जापान में सुजुकी कारों की बिक्री 5.4% की दर से नीचे गिर गयी थी लेकिन जापान के बाहर इसमें 18.8% की वृद्धि दर्ज की गयी. इसमें 2009-10 और 2010-11 में 24.8% की बिक्री वृद्धि दर दर्ज करते हुए एमएसआईएल ने सबसे ज्यादा योगदान दिया था.
जाहिर है कि सुजुकी जैसी मल्टीनेशनल कम्पनियाँ भारत जैसे विकासशील देशों से खूब मुनाफा कमा रही हैं. जहाँ एक तरफ मजदूर उच्च उत्पादकता दे रहे हैं वहीँ बढ़ता भारतीय बाजार भी इनकी वृद्धि को बरक़रार रखे हुए है. परिणामतः जहाँ यूएसए, जापान, यूके में बाजार फंसे हुए दिखाई देते हैं भारत जैसे देशों में उनका मुनाफा बढ़ता जा रहा है. आंकड़े बताते हैं कि सुजुकी की ग्लोबल नेट बिक्री में उसकी भारतीय शाखा की हिस्सेदारी 2005 में 12% से बढ़कर 2010 में 27% हो गयी और नेट आय में भारतीय शाखा की हिस्सेदारी 2005 में 42% से बढ़कर 2010 में 55% हो गयी.
फिर भी सुजुकी के मालिकों द्वारा मजदूरों पर कम उत्पादकता, अनुशासनहीनता इत्यादि के आरोप लगाना कहाँ तक सही है? मजदूरों की मांगों को गैरजरूरी बताते हुए उन्हें यूनियन बनाने का भी अधिकार न देना, उनकी यूनियन से बात न करना, उनके चार्टर ऑफ़ डिमांड्स को अनसुना कर देना, वेतन बढाने की मांगों को, ठेका मजदूरों को नियमित करने की मांग को नकार देना कहाँ तक जायज है?
इन्ही मजदूरों के चलते एमएसआईएल की वार्षिक बिक्री 2001-02 में 900 करोड़ से 400% बढ़कर 2010-11 में 36,000 करोड़ हो गयी. टैक्स देने के बाद का मुनाफा 2001-02 में 105 करोड़ से 2200% बढ़कर 2010-11 में 2,289 करोड़ हो गया. लेकिन मजदूरों को क्या मिला?
Permanent
Trainee
Contract
Apprentice
No. of Workers
970
400-500
1100
200-300
Monthly Wage (Rs.)
8000 + 8000 (v)
6500 + 2250 (v)
235/day + 75/day (v)
3000 + 1000 (v)
जैसा की ऊपर की टेबल से स्पष्ट है कि मारुती मानेसर में 65% मजदूर शक्ति ठेके पर रखी गयी है. इससे मैनेजमेंट खुल्लमखुल्ला 'कान्ट्रेक्ट लेबर रेगुलेशन एंड एबोलिशन कानून'का उल्लंघन करते हुए बड़े पैमाने पर अपनी लागत बचाता है और मुनाफा कमाता है. हरियाणा का लेबर डिपार्टमेंट इस पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं करता?
एक स्थाई मजदूर के वेतन का जो 8000 रुपया वैरिएबल कम्पाउंड का है वह इस पर निर्भर करता है कि वह मजदूर महीने में कितनी छुट्टियाँ लेता है. एक छुट्टी लेने उसके वैरिएबल कम्पाउंड से 1500 रूपये काट लिए जाते हैं. पांच छुट्टे लेने पर पूरा वैरिएबल कम्पाउंड ही काट लिया जाता है. और ये कटौती किस तरह की छुट्टी मजदूर ले रहा है उससे तय नहीं होती. चाहे बीमारी की छुट्टी हो, कैजुअल छुट्टी हो, पेड छुट्टी हो किसी भी तरह की छुट्टी का मतलब है कटौती.
पिछले 5-7 सालों में मारुति के मजदूरों के वेतन में सिर्फ 5.5% की वृद्धि हुई है. जबकि उस इलाके में उपभोक्ता कीमतों के सूचकांक में 50% से ज्यादा की वृद्धि इसी दौर में दर्ज की गयी.
जबकि मारुति के सीईओ का वेतन 2007-08 में 48.3 लाख से 419% बढ़कर 2010-11में 2.45 करोड़ हो गया.
साफ़ है कि बढ़ी हुई बिक्री और मुनाफे को किस तरह मैनेजमेंट और मजदूरों के बीच में बांटा जा रहा है. मानेसर प्लांट के मजदूर और उनकी यूनियन ये सब जानती हैं. उसके पास कंपनी की सालाना रिपोर्ट के आंकड़े हैं. उसके पास उपभोक्ता कीमत सूचकांक के आंकड़े हैं. मजदूर कानूनों की उनकी जानकारी दिन ब दिन बढ़ रही है और सबसे बढ़कर उनके पास लड़ने का जज्बा है.
यूनियन की नयी लीडरशिप ने मजदूरों की तरफ से जो चार्टर ऑफ़ डिमांड पेश किया था उसमें उन्होंने 15-18,000 तक की वेतन की बढ़ोत्तरी की मांग उठाई थी जिसे मैनेजमेंट द्वारा नकार दिया गया. पिछले दो-तीन महीने से मजदूरों का यह एक मुख्या मुद्दा बना हुआ था. इसके साथ वे 'लांग टर्म एग्रीमेंट'को ठेका, ट्रेनी सहित सभी मजदूरों के लिए लागू किया जाने की मांग कर रहे थे. मजदूरों का अपनी यूनियन पर यह भी दबाव था कि वो पिछली युनियन द्वारा अक्टूबर 2011 के समझौते की 'शिकायत निवारण समिति'और 'वेलफेयर समिति'बनाने के लिए न राजी हों क्योंकि मजदूरों को ऐसा लगता है कि ये समितियां को मैनेजमेंट एक समान्तर ढांचे के रूप में खड़ी कर उनकी लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी यूनियन की सामूहिक ताकत, वैधता और संचालन को कमजोर करेगा.
पिछले दिनों इन डिमांड्स पर बातचीत फेल हो जाने के बाद से ही मजदूरों में गुस्सा बढ़ रहा था इस बात को मैनेजमेंट और लेबर ऑफिसर्स जो रोज वहां विजिट करते थे, अच्छी तरह जानते हुए भी आँखें मूंदे बैठे रहे. क्यों? क्यों हरियाणा सरकार और लेबर डिपार्टमेंट ने मैनेजमेंट और मजदूर यूनियन के बीच बातचीत शुरू कराने का प्रयास नहीं किया? जब यूनियन ने इस रवैये का विरोध करते हुए रोजाना की प्री-शिफ्ट मीटिंग्स को बायकाट किया तब क्यों उनको, उनके साथियों को धमकाया गया? 18 जुलाई से कुछ दिनों पहले मजदूरों और सुपरवाइसरों की एक बहस में क्यों अधिकारियों द्वारा मजदूरों को धमकी देते हुए कहा गया कि "तुम लोगों का खेल अब बस कुछ दिनों का ही है"? सवाल उठता है कि क्या कहीं कोई बड़ी साजिश तो नहीं रची जा रही थी?
यह जानना जरूरी है कि पिछले महीने जब मजदूर यूनियन के अध्यक्ष राम मेहर को कंपनी ने निकाल दिया था और मजदूरों के दबाव में एक दिन बाद उसे मेहर को वापस लेना पड़ा तब मजदूर हिंसक नहीं हुए! पिछले कई महीने से चल रहा उनका आन्दोलन तमाम उकसावों के बावजूद अहिंसक तरीके से चलता रहा. फिर 18 जुलाई को क्या हो गया? क्या उनकी सहनशक्ति जवाब दे गयी?
मजदूर साथियों से हुई बातचीत से व अन्य स्रोतों से जितना पता चला है कि सुपरवाइसर रामकिशोर मांझी द्वारा जियालाल नाम के मजदूर को जातिसूचक गाली देने के विरोध करने के चलते जब मैनेजमेंट ने जियालाल को सस्पेंड कर दिया तो इसका विरोध करते हुए यूनियन उस दिन तीन बार मैनेजमेंट से बातचीत में जा चुकी थी. यहाँ तक बताया गया कि श्री देव जियालाल को वापस लेने के लिए तैयार भी हो गए थे. लेकिन उसी समय उन्हें ऊपर से ऐसा न करने के लिए फोन आता है!
उस शाम ऐसा क्या हो गया कि जिसने सब कुछ बदल कर रख दिया? श्री देव को किसने फोन किया? क्या जहाँ बातचीत हो रही थी उस हाल में यूनियन नेताओं को डराया-धमकाया गया? उस हाल में बातचीत के वक्त बाउंसर्स क्या कर रहे थे? क्या मजदूर मीटिंग हाल में इस डर से बड़ी संख्या में घुस आये कि उन्हें लगा कि उनके नेताओं को मारा-पीता जा रहा है? वहां पर तैनात पुलिस अधिकारी ने हाल में घुसते हुए मजदूरों को क्यों कहा कि 'जाओ, सालों को (मैनेजमेंट) सबक सिखाओ'? कहीं ऐसा तो नहीं था कि मजदूरों की ड्रेस में कुछ लोग हथियार लेकर अन्दर घुसे और मनेजरों को मारना शुरू किया और उन्होंने चीख-चीखकर बाहर बैठे हजारों मजदूरों को भड़का कर अन्दर आने के लिए उकसा दिया और यूनियन के नेताओं द्वारा बार-बार मना करने के बावजूद ये भड़काऊ तत्व नहीं माने और हथियार नहीं रखा ? क्या जानबूझकर आग लगाई गयी या यह एक शार्ट-सर्किट के चलते लगी? अवनीश कुमार देव की मौत एक दुर्घटना थी या यह एक सुनियोजित मर्डर था? शायद हम यह कभी जान नहीं पायेंगे!
आज जो माहौल बनाया गया है कि मजदूर अपनी बात कहें भी तो उनकी नहीं सुनी जायेगी. पूरे हरियाणा के गाँवों, खेतों में बाल के जुंवों की तरह मजदूरों की तलाश की जा रही है. उनके परिवारवालों को उठाया जा रहा है. धमकियाँ दी रही है. एक 'खुली एफआईआर'कर जो मजदूर पकड़ में आ रहा है सबको बंद कर दिया जा रहा है. हर तरह के कानूनी नियमों की अनदेखी की जा रही है. पूरे गुडगाँव-मानेसर-धारूहेड़ा आद्योगिक इलाके में कर्फ्यू जैसी स्थिति है. नौजवान मजदूर दबाव में हैं, तनाव में हैं, उन्हें मदद की जरूरत है.
एक दूसरा प्रचार जो चीख-चीखकर किया जा रहा है कि अगर ऐसा ही रहा तो हमारे यहाँ निवेश आना आना बंद हो जायेगा. यह सबसे बड़ा झूठ है. दुनिया में वह कौन सी जगह है जहाँ पूंजी और श्रम के बीच संघर्ष न चल रहा हो? पूंजी को, निवेशकों को इस झगडे से डर नहीं है वे तो इस झगडे में राज्य की प्रतिबद्धता अपनी लिए सुनिश्चित करना चाहते हैं. नहीं तो आज जिस गुजरात और नरेन्द्र मोदी की प्रशंशा देशी-विदेशी निवेशक करते नहीं थकते वहां पिछले साल की आर्थिक रिपोर्ट बताती है कि देश में सबसे ज्यादा मजदूर विवाद गुजरात में दर्ज किये गए.
फिलहाल कंपनी के लिए यह बहुत अच्छा है. उसे सिर्फ अपना पक्ष रखने की पूरी छूट मिली हुई है. हरियाणा सरकार के लिए बहुत अच्छा है उसे यह दिखाने का मौका मिल गया है कि इस लड़ाई में वह किसके साथ है और मारुती को गुजरात जाने की जरूरत नहीं है! बाकी के निवेशक भी यह देख लें कि हरियाणा की हुड्डा सरकार कहीं से भी नरेन्द्र मोदी से पीछे नहीं है.
गोरख ने मैना का प्रतीक लेते हुए लिखा था, बस वहां मजदूर को रख दीजिये.
एक दिन राजा मरले आसमान में उड़त मैना
बाँध घरे ले अइले मैना ना
एक पिछले जन्म के करम
कइली हम शिकार के धरम
राजा कहे कुंवर से
अब तू लेके खेल मैना
देख कितना सुन्दर मैना ना
खेले लगले राजकुमार
उनके मन में बसल शिकार
पहिले पाँख कतर के
कहले अब तू उडी जा मैना
मेहनत करी के उडी जा मैना ना
पंख बिना के उड़े पाए
कुंवर के मन में गुस्सा आये
तब फिर टांग तोड़ी के कहले
अब तू नाच मैना
ठुमक ठुमक के नाच मैना ना
पांव बिना के नाचे पाए
कुंवर जी गोइले अब बौराए
तब फिर गला दबा के कहले
अब तू गाव मैना
प्रेम से मीठा गाव मैना ना
मरी के कैसे गावे पाए
कुंवर जी राजा के बुलवाए
कहले बड़ा दुष्ट बा एको बात ना माने मैना
सारा खेल बिगाड़े मैना ना
जब ले खून पियल ना जाये तब ले कौनो काम ना आये
राजा कहे कि सीख कईसे चुसल जाई मैना
कईसे स्वाद बढाए मैना ना
पूंजी द्वारा छेड़ी गयी इस नरभक्षी लड़ाई में तात्कालिक तौर पर कमजोर होते दिख रहे मजदूरों के साथ खड़ा होना न सभी ट्रेड यूनियनों का कर्त्तव्य है बल्कि आज तमाम जनवादी लोगों की यह जिम्मेदारी है कि इस साजिश का भंडाफोड़ करें.
संदीप सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष.इनसे सम्पर्क का पता है- sandeep.gullak@gmail.com
संदीप सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.
जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष.
इनसे सम्पर्क का पता है- sandeep.gullak@gmail.com