-आशीष भारद्वाज
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आशीष भारद्वाज |
"...दिल्ली का अपना एक नायाब सा कैरेक्टर है: वो ऊपर से बदलती है लेकिन अंदर से एकदम स्थितिप्रज्ञ, ठहरी हुयी सी होती है. मानो उसे पता हो कि इतनी आसानी से कुछ नहीं बदलना. दिल्ली ऐसे ही नहीं बदल जाती! वो वक़्त लेती है. वक़्त बदल रहा है. तथाकथित “सोशल मीडिया” की सूईयों ने वक़्त की रफ़्तार बढ़ा दी है. चौबीस घंटे में करोड़ों अपडेट्स समय को- समझ को भ्रामक बना दे रहे हैं. सूचना समझ पर हावी होती दिख रही है..."

सियासीतौर पर अब तक केवल दो तरह की करवटें बदलने वाली दिल्ली के पास इस बार एक तीसरी करवट का विकल्प भी है. बहुत ठोस या स्थापित सांगठनिक ढाँचे के ना होने के बावजूद भी आम आदमी पार्टी विधान सभा में अपनी मौजूदगी दर्ज कर देगी, इसकी तस्दीक तकरीबन हर ओपिनियन पोल कर चुका है. ऐसे में रोचकता का नया अध्याय तब शुरू होगा जब परिणाम संभवतः एक त्रिशंकु विधानसभा के रूप में आयेगा. ज़ाहिरी तौर पर इस तरह की स्थिति तक पंहुचने से पहले यमुना का बहुत पानी बह चुका है, मगर मसले नहीं. मसला अमूमन वही सब है जिसके अपेक्षा आज के चुनावी दौर में की जा सकती है. पानी-बिजली और सुरक्षा का मसला, अफसरशाही पर लगाम और भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का मसला आम तौर पर सभी आम मतदाताओं के रुझान का वह प्रस्थान बिंदु है जिससे सभी सियासी दल सवाल-जवाब में जुटे हैं.
यहाँकांग्रेस की सरकार पिछले पंद्रह सालों से है लेकिन पिछले कार्यकाल के दौरान शीला सरकार को कई धक्कों का सामना करना पड़ा है. महंगाई, कमाई और बर्दाश्त की सीमाओं से बाहर है और नौजवान, अवसरों और रोज़गार की सीमा से! अनियमित कॉलोनियां नियमित हो सकने के सनातन इंतज़ार में हैं और आधी आबादी सुरक्षा और मान-सम्मान के इंतज़ार में. पिछले बरस सोलह दिसंबर की काली रात को हुए गैंगरेप ने पूरी दिल्ली को झकझोर कर रख दिया था. नौजवानों के आक्रोश के आगे रायसीना की पहाड़ी छोटी पड़ गयी थी. आधी आबादी बेख़ौफ़ आज़ादी के सवाल से पीछे हटने को ना तब तैयार थी और ना ही अब. इस पूरे आन्दोलन में दिल्ली के नौजवानों ने अपनी “अराजनीति” को लांघा था और एक सुंदर और सुरक्षित दिल्ली का सपना बुना था. शीला दीक्षित की सरकार इस सपने को हकीकत में बदलने में नाकाम रही है. ऊपर से घोटालों और महंगाई ने मतदाताओं के मन में “एक विकल्पहीन सा मोहभंग” पैदा कर दिया है. वो इस सरकार को सबक तो सिखाना चाहते हैं पर उन्हें इस तथ्य का कोई इल्म कम ही जान पड़ता है कि वो क्या चुनें! कई अखबारों और पत्रिकाओं में छपी हालिया चुनावी कहानियां भी कमोबेश यही तस्वीर बयां कर रहीं हैं. ऐसे में कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में इस चुनावी वैतरणी में उतरना चाहती है. पार लगे तो अच्छा-डूब गए तो और भी अच्छा!
मुख्यविपक्षी दल भाजपा मज़बूत और एकजुट दिखने की कोशिशों में पस्त सी होती हुयी नज़र आती है. भाजपा “आतंरिक लोकतंत्र” का एक मनोरंजक और तमाशाई उदाहरण है. हाल ही में उन्हें अपना नया नेता मिला है- मुल्क में और दिल्ली में भी. नयेपन को लेकर भारतीयों और दिल्ली वालों की शंका कतई गैरवाज़िब नहीं है. ये हमारी रगों में है. परखेंगे नहीं तो चुनेंगे कैसे? प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की दिल्ली में हुई रैली कोई ख़ास असर पैदा कर नहीं पाई. दूसरे राज्यों में हो रही रैलियों में भी मोदी गलतियों और विवादों का इंतजाम ज़्यादा कर रहे है, वोटों का कम! उनकी “गर्जनाएं” आम लोगों को डरा ज़्यादा रहीं हैं. वे ऊब रहे हैं-दूर हो रहे हैं! दिल्ली में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हर्षवर्धन भाजपाइयों में “हर्षोल्लास का वर्धन” कर सकते हैं लेकिन वोटों का नहीं! भाजपा को इस तथ्य का इल्हाम है कि जनता कांग्रेस और भाजपा में कोई बड़ा मौलिक फर्क नहीं देख पा रही. आर्थिक-सामाजिक नीतियों और चाल-चरित्र-चेहरे में ये दोनों बड़े दल अमूमन एक जैसे हैं. ऐसे में ठोस भौतिक मुद्दों पर बस आक्रामक और सतही विरोध ही वो रास्ता बचता है जिस पर ये दोनों बड़े दल अपने प्रचार को आगे बढ़ा रहे हैं. यही तो वो हालात है ना. इन्हीं की बदौलत तो “विकल्पहीनता” मज़बूत हो रही है. दिल्ली में भाजपा बस “विकल्पहीनता का विकल्प” हो सकता है-एक ठोस विकल्प तो कतई नहीं. संभव है कि चुनाव बाद वे सापेक्षिक रूप से ज़्यादा सबल दिखें, लेकिन ये काफी नहीं होगा. जिस राज्य में पानी का मिलना भी एक बड़ा सवाल हो, वहां भाजपा के लिए शायद खुसरो ही ये कह गए हों- “बहुत कठिन है डगर पनघट की!”
औरअब ठहरी “आम आदमी पार्टी.” ये विकल्प नया है. ताज़ा है कि नहीं, इस पर राजनीतिक विश्लेषकों में मतभेद है. लोग पूछ रहे हैं कि क्या ये विकल्प भरोसे के लायक है? अन्ना के आन्दोलन से उपजी इस पार्टी से आजकल अन्ना के ही मतभेद चल रहे हैं. अरविन्द केजरीवाल एक ब्यूरोक्रेट रहे हैं और उन्हें इस तथ्य का अहसास है कि नौकरशाही ने “भ्रष्टाचार के इस पूरे प्रोजेक्ट” में अग्रणी भूमिका निभायी है. साथ ही उन्हें नेताओं की उस मौन सहमति का भी पता है जिसके बूते ये पूरा “घोटाला अध्याय” पूरा हुआ है. अरविन्द को अपनी सीमाएं भी पता हैं. शायद उन्हें पता है कि भ्रष्टाचार और तमाम घोटाले इस “भ्रष्ट व्यवस्था” की देन है लेकिन केजरीवाल इसे सतही इलाज़ दे रहे हैं. वो लड़ रहे हैं लेकिन ‘लड़ाकू’ नहीं दिखते! वे एक क्रांतिकारी-परिवर्तनकामी नेता की बजाय एक मजबूर नेता ज़्यादा नज़र आते हैं जिनसे हमें सिम्पैथी हो सकती है, सहमति नहीं! तभी तो तमाम “मीडिया चुनावी पूर्वानुमान” इस शंका का फायदा आठ-दस सीटों के बतौर “आप” को दे रहे हैं, आपको नहीं!
आपकोलग रहा होगा कि ऐसे विकल्पहीनता के दौर में दिल्ली क्या चुनेगी? फिर आप शायद ये भी सोचेंगे कि दिल्ली ने आख़िरकार आजतक चुना ही क्या है? वो शासित होती रही है, शासक नहीं. ऐसा मालूम पड़ता है मानो दिल्ली आज भी अपने इतिहास से मुक्त ना हुई हो. काश, इस बार वो मुक्त होने की कोशिश करे पर ऐसा होता हुआ नहीं दिखता! ये वही विकल्पहीनता है जिसका ज़िक्र पहले हो चुका है. दरअसल हालात ऐसे ही हैं. पिछले बीस-बाईस सालों से जो चल रहा है, उसके उपादान के बतौर हम एक ऐसे समाज में ठेल दिए गये हैं जहाँ चयन एक अपराध जैसा कुछ है. तरफदारी आज क्राईम है. अपने जीवन और समाज-राजनीति को तय करना आज मानो हम से परे है. ये अलगाव हमारे इतिहास से नत्थी है. जनता अलग होती गयी और राजनीति जनता से स्वायत्त. दिल्ली मजदूरों, अप्रवासियों से भरी रही लेकिन वे कभी वे इतने एकजुट नहीं हुए कि बदलाव की शक्ल अख्तियार कर सकें.
दिल्लीका अपना एक नायाब सा कैरेक्टर है: वो ऊपर से बदलती है लेकिन अंदर से एकदम स्थितिप्रज्ञ, ठहरी हुयी सी होती है. मानो उसे पता हो कि इतनी आसानी से कुछ नहीं बदलना. दिल्ली ऐसे ही नहीं बदल जाती! वो वक़्त लेती है. वक़्त बदल रहा है. तथाकथित “सोशल मीडिया” की सूईयों ने वक़्त की रफ़्तार बढ़ा दी है. चौबीस घंटे में करोड़ों अपडेट्स समय को- समझ को भ्रामक बना दे रहे हैं. सूचना समझ पर हावी होती दिख रही है. तभी तो मोदी इस “तथाकथित सोशल-वर्चुअल मीडिया” पर सबसे ताकतवर नज़र आते हैं. इस धोखे के भी अपने फायदे हैं- कुछ लोकसभा सीटों की शक्ल में. भाजपा ये मान के चल रही है कि उनको आने वाले वोट कांग्रेस के विरोध में हैं, उनके पक्ष में नहीं. ये अस्तित्वबोध भाजपा के लिए ज़रूरी है. इस फासीवादी आग के लिए जनवादी पानी का डर ज़रूरी है.
कुलमिला के इस चुनाव के बाद दिल्ली अगर ख़ुद को पुनः इसी पुरानी-पुरुषवादी-पूंजीवादी सत्ता व्यवस्था में फिट करना चाहे तो इससे निराश नहीं होना है. वो दरअसल उबल रही है. उसे खौलने में वक़्त लगेगा. “आम” लोगों को इसे वक़्त देना पड़ेगा. वक़्त नहीं देंगे तो समाज और राजनीति पकेगी कैसे? और जब ये ढंग से पकेगी नहीं तो असल स्वाद कहाँ से आयेगा? इसीलिए दिल्ली के इस विधानसभा चुनाव को देखना-परखना ज़रूरी है. इसमें इस मुल्क की राजधानी का वो सैम्पल साइज़ मिल जाएगा कि पूरा मुल्क, कमोबेश, अगला भारत सरकार किनको बनाना चाहता है माने इस इस सेमी-फाईनल में कौन जीतता है. साथ ही चार और सूबों के नतीजे मिलेंगे.
पूरामौका होगा कि हम नब्ज़ को पकड़ सकें. इसमें मुख्यधारा और सोशल मीडिया के साथियों की ज़रुरत होगी. अगर वो चाहें तो “असल तस्वीर” पेश कर सकते हैं मगर उन्हें अपनी “परम्परागत सीमाओं” को लांघना होगा ताकि वे दिल्ली के एक सौ साठ लाख लोगों से अपना तारतम्य स्थापित कर सकें. उन्हें जनता की असल आवाज़ बनना होगा. ऐसे में ये जानना कष्टकर है कि आम लोग ये मानते हैं कि मुख्यधारा का मीडिया मुख्यधारा की राजनीति का महज़ एक भोंपू है. इसे मौलिक रूप से बदलने के लिए इस प्रक्रिया में शामिल होना ही एकमात्र उपाय है. हम सब मीडिया हैं-अब ये मानकर चलिये और अपनी राजनीति के लिए कैम्पेन करिये. आपका कुछ भी सुंदर-सौम्य सा कहना-करना दिल्ली के काम आयेगा! दिल्ली असल में बदलेगी!
संभवहै कि अति-सूचना के इस दौर में आम मतदाता पूरी तस्वीर भले ही ना समझे लेकिन अपनी ज़िदगी के जद्दोजहद और भविष्य की चिंताएं उन्हें अपना फौरी नफ़ा-नुकसान ज़रूर सिखा देती हैं.
आशीष स्वतंत्र पत्रकार हैं. कुछ समय पत्रकारिता अध्यापन में भी.
इनसे ashish.liberation@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.