सत्येंद्र रंजन |
"...क्या भारत में ऐसी सियासत के सफल होने की उम्मीद है? एक व्यक्ति में मुक्ति देखने की प्रवृति जब तक समाज में मौजूद है, इस संभावना को सिरे से नहीं नकारा जा सकता। इसके बावजूद भारतीय लोकतंत्र में विभिन्न सामाजिक वर्गों एवं उनके बीच आपसी गठबंधन की जो भूमिका है, उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि खूब तालियां मिलने के बावजूद ऐसा मुक्तिदाता चुनावी राजनीति में भी सफल हो जाएगा।..."
एक ऐसी राजनीतिक पार्टी का बनना कोई बड़ी खबर नहीं होनी चाहिए, जिसके निकट भविष्य के किसी चुनाव में बड़ा दावेदार होने की संभावना नहीं हो। इसके बावूजद नवगठित आम आदमी पार्टी ने अपने गठन से पहले बड़ी सुर्खियां बटोरी हैं, तो इसका कारण उसके बनने की पृष्ठभूमि है। उस पृष्ठभूमि से बहुत से लोगों ने सिविल सोसायटी यानी नागरिक समाज की ऐसी शक्ति उभरने की उम्मीद जोड़ी थी, जो सत्ता पर निरंतर अंकुश का काम करती। भारतीय परिस्थितयों के बीच मध्य एवं उच्च मध्य तबकों में अपनी अंतर्निहित वर्ग-दृष्टि के कारण राजनीति के प्रति हिकारत का गहरा भाव समाया हुआ है। चूंकि ये तबके राजनीति को ही समस्या मानते हैं, इसलिए वे हमेशा ही समस्याओं के अ-राजनीतिक हल की तलाश में रहते हैं। अन्ना आंदोलन को इन वर्गों में मिली असाधारण लोकप्रियता के कारण उस आंदोलन का ऊपर से दिखने वाला अ-राजनीतिक चरित्र ही था। वैसे बहुत से लोगों ने अपनी सदिच्छा के कारण भी माना कि सत्ता एवं राजनीतिक दलों पर जनता के निरंतर नियंत्रण की आवश्यकता को अन्ना आंदोलन पूरा करेगा। उस इच्छा के संदर्भ में आज भी अन्ना हजारे की टीम ही उस आंदोलन की विरासत (अगर वह कुछ है तो) की प्रतिनिधि है। जबकि नवगठित पार्टी उस विरासत के खिलाफ जाते हुए बनी है।
इसलिएये विडंबना ही है कि अपनी पृष्ठभूमि की भावनाओं का प्रतिनिधित्व न करने के बावजूद इस पार्टी को उस पृष्ठभूमि का पूरा लाभ मिला है। यह लाभ जनता (जनता का वो हिस्सा जो अन्ना आंदोलन के साथ आगे आया था) के समर्थन के रूप में कितना मिलेगा, अभी साफ नहीं है। अगर संकेतों से अनुमान लगाया जाए, तो तस्वीर बहुत संभावनापूर्ण नजर नहीं आती। इसलिए कि जो समूह सबसे अधिक उत्साह के साथ अन्ना आंदोलन में निकले थे, उनका मूल झुकाव दक्षिणपंथी- एक हद तक सांप्रदायिक भी- है। इसकी संभावना कम है कि वे राजनीति में स्थापित अपने मूल प्रतिनिधि दलों को छोड़कर एक ऐसी पार्टी को अपनाएंगे, जिसके सामने मुख्य चुनौती अभी अपनी उपस्थिति दर्ज कराना है। बहरहाल, मीडिया में स्थान एवं सहानुभूति के रूप इस नई पार्टी को उसकी हैसियत तथा राजनीति में उसकी संभावित भूमिका से अधिक महत्त्व मिला है, तो इसका एक बड़ा कारण यही है कि इस पार्टी के साथ अन्ना आंदोलन की पृष्ठभूमि जुड़ी है। अगर ऐसी सहानुभूति नहीं होती, तो मीडिया शायद ही इस पार्टी को गंभीरता से लेता। आखिर, जैसाकि अब एक जुमला चल निकला है, भारत में ऐसी साढ़े ग्यारह सौ पार्टियां हैं! उनके नेताओं को अखबारों के पन्नों या टीवी न्यूज चैनलों के स्टूडियो में कहां और कितनी जगह नसीब होती है!
खबरबनने की अपनी प्रक्रिया होती है। परिमाण निसंदेह खबर बनने की एक प्रमुख कसौटी है, लेकिन अक्सर संदर्भ भी किसी व्यक्ति, गुट या संगठन को न्यूज वैल्यू प्रदान करता है। आम आदमी पार्टी परिमाण की कसौटी पर तो कहीं से खबर नहीं है। लेकिन उसका संदर्भ ऐसा है, जिससे उसे सु्र्खियां मिली हैं- और लोग उसकी भूमिका एवं संभावनाओं के विश्लेषण के लिए प्रेरित हुए हैं, जैसाकि इस स्तंभ में किया जा रहा है। अतः विचार का असली मुद्दा यही संदर्भ है। दरअसल, अन्ना आंदोलन भी वैचारिक या जन-भागीदारी की कसौटियों पर कोई ऐसा घटनाक्रम नहीं था, जिसे युगांतकारी या नए विचारों का जनक समझा जाए। उसे मीडिया में इतना महत्त्व मिला, तो इसीलिए कि उसका एक संदर्भ था। ये संदर्भ भ्रष्टाचार और एक के बाद एक खुलते बड़े घोटालों से बना। आंदोलन के नेता अगर प्रतिबद्ध, दूरदर्शी और ऊंचे आदर्शों से प्रेरित होते, तो वे आंदोलन को टिकाऊ एवं व्यापक बना सकते थे। लेकिन उनमें फ़ौरी लोकप्रियता की आकांक्षा इतनी प्रबल थी कि उन्होंने बनने से पहले ही उस संभावना के बिखराव की स्थिति तैयार कर दी।
उसी फ़ौरी लोकप्रियता ने उनके एक हिस्से में वो राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं जगाईं, जिसका परिणाम ये नई पार्टी है। पार्टी के नेता अपने वैचारिक दस्तावेज का हवाला देकर खुद को मुख्यधारा की पार्टियों की तुलना में अधिक समझदार, स्वप्नदर्शी, और सामाजिक नव-निर्माण की भावना से परिपूर्ण होने का दावा कर सकते हैं। लेकिन इस दावे को लोग स्वीकार कर लेंगे, ऐसा तो शायद वे भी नहीं मानते होंगे। आखिर किस पार्टी के दस्तावेज शब्द-आडंबर में उनकी तुलना में कमजोर ठहरेंगे? इसलिए भविष्य में मतदाताओं ने अगर कभी उनकी पार्टी को इतनी गंभीरता से लिया कि वे उसके मूल्यांकन की जहमत उठाएं, तो ऐसा वे कार्यशैली और व्यावहारिक कार्यक्रम की कसौटियों पर ही करेंगे। बहरहाल, अगर पार्टी बनने से पहले की उसके नेतृत्व की कार्यशैली को संकेत माना जाए, तो कम से कम यह मानने का कोई आधार तो नहीं बनता कि नई पार्टी किसी प्रगतिशील मूल्य या अपेक्षाकृत अधिक लोकतांत्रिक व्यवहार को राजनीति में स्थापित करने जा रही है। इसके उलट उसके प्रमुख नेताओं की शैली में बाल ठाकरे या सुब्रह्मण्यम स्वामी के अंदाज ज्यादा नजर आए हैं। हालांकि यह तुलना कुछ मानदंडों पर तार्किक ना हो, फिर भी अगर मिसाल ढूंढनी हो, तो ये शैली फ्रांस की धुर दक्षिणपंथी पार्टी के नेता ज्यां मेरी ला पां और उनकी उत्तराधिकारी बेटी मेरी ला पां, ग्रीस की उग्र दक्षिणपंथी पार्टी गोल्डेन डॉन के नेता निकोलस मिचेलनियेको, रूस के व्लादीमीर झिरिनोवस्की आदि के अधिक करीब बैठती है। उन सब में समानता यह है कि उनके विचार घोर रूढि़वादी, अंध राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी है। लेकिन उन्होंने राजनीति में अपनी हैसियत सरकारों के प्रति जन-असंतोष को आक्रामक अंदाज से भड़काते और बिना कोई विकल्प पेश किए लोगों के आक्रोश को उभारते हुए बनाई। इस क्रम में उन्होंने जो जुमले बोले, उसे अगर संदर्भ से अलग कर सुना जाए, तो उनके वामपंथी होने का भ्रम बड़ी आसानी से पैदा हो सकता है। यानी उग्र-परिवर्तनकारी लिफाफे में वे कंजरवेटिव और जन-विरोधी सियासत का मजमून लिए हुए हैं, जिन्हें बहुत से लोग अपनी अ-राजनीतिक दृष्टि के कारण पहचान नहीं पाते हैं।
क्याभारत में ऐसी सियासत के सफल होने की उम्मीद है? एक व्यक्ति में मुक्ति देखने की प्रवृति जब तक समाज में मौजूद है, इस संभावना को सिरे से नहीं नकारा जा सकता। इसके बावजूद भारतीय लोकतंत्र में विभिन्न सामाजिक वर्गों एवं उनके बीच आपसी गठबंधन की जो भूमिका है, उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि खूब तालियां मिलने के बावजूद ऐसा मुक्तिदाता चुनावी राजनीति में भी सफल हो जाएगा। बड़े नामों और लोगों पर जुबानी हमला करके प्रचार पा लेना सीमित अर्थों में सफल रणनीति हो सकती है। इससे राजनीति के कुछ ब्रांडों को धूमिल किया जा सकता है। लेकिन उससे उत्पन्न होने वाले खालीपन को भरने योग्य खुद को साबित करना कहीं बड़ी चुनौती है। देश की प्रमुख पार्टियों में भ्रष्ट नेता हैं, यह संदेश सुविधाभोगी वर्ग के राजनीति विरोधी सोच को संतुष्ट करता है। लेकिन भारत का आम आदमी इस तरह के सामान्यीकरण से कम से कम अपने चुनावी निर्णय में प्रभावित नहीं होता। वैसे भी आम आदमी एक अपरिभाषित और अस्पष्ट शब्द है। जबकि चुनाव में निर्णय वो लोग करते हैं, जिनका व्यक्ति, समूह और वर्ग के रूप में वास्तविक अस्तित्व है। नवगठित पार्टी की मुश्किल यही है कि इन वास्तविक समूहों में उसकी जड़ें अभी रोपी तक नहीं गई हैं। उसके चीयरलीडर कुछ उन वर्गों में हैं, जो मीडिया में तो किसी को बनाए रख सकते हैं, लेकिन उन्हें देश का भाग्यविधाता नहीं बना सकते। अगर वे ऐसा करने में सक्षम होते, तो आज इस देश में लोकतंत्र ही नहीं होता।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.