प्रेम पुनेठा |
प्रेम पुनेठा
"...सविधान सभा में माओवादियों ने कर्इ समझौते किए जो उनकी नीतियों के खिलाफ थे। इससे पार्टी में असंतोष फैल गया। पार्टी में ही मोहन वैद्य ने नेतृत्व पर दक्षिणपंथी संसोधनवाद का आरोप लगाया और पार्टी से अलग हो गए। उन्होने नर्इ पार्टी बना ली। इस चुनाव में मोहन वैद्य की नेकपा माओवादी बहिष्कार कर रही है। उनका मानना है कि वर्तमान परिस्थितियों में संविधान सभा के जरिए संविधान का निर्माण नहीं किया जा सकता है। संविधान के निर्माण के लिए सभी राजनीतिक दलों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाना चाहिए। मोहन वैद्य के साथ कर्इ 31 राजनीतिक दल भी चुनाव बहिष्कार में शामिल हैं। इनका बहिष्कार कितना प्रभावी होगा कहा नहीं जा सकता लेकिन इसने चुनावों के हिंसा की आशंका से भर दिया है। चुनाव प्रचार के प्रारंभिक दौर मे ही जिस तरह से बहिष्कारवादियों ने चुनाव प्रचार सामग्री को लूटने और आक्रामक होने का परिचयय दिया है, उससे हिंसा होने की संभावना ज्यादा बलवती हो गर्इ है।..."
दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक नेपाल में संविधान बनाने के लिए पांच साल में दूसरी बार संविधान सभा के चुनाव हो रहे हैं। इससे पहले 2008 में संविधान सभा के चुनाव हुए थे। इस संविधान सभा को यह कार्यभार सौंपा गया था कि वह दो साल में नेपाल में संविधान का निर्माण करेगी लेकिन इसका कार्यकाल कर्इ बार बढ़ाया गया और कर्इ सरकारें बनीं । संविधान सभा चार साल तक काम करती रही फिर भी यह नेपाल को संविधान देने में असफल रही। नेपाल के राजनीतिक दलों के बीच इतने अधिक मतभेद हो गए थे कि संविधान बनने की कोर्इ संभावना नहीं रह गर्इ तो राष्ट्रपति को संविधान सभा को भंग करना पड़ा और नर्इ संविधान सभा के चुनाव की घोषणा करनी पड़ी।
पिछले दो दशक से नेपाल की राजनीति भंवर मे फंसी हुर्इ है। इससे बाहर आने का अभी भी कोर्इ रास्ता नहीं दिखार्इ दे रहा है। 1990 में राजतंत्र के आधीन संसदीय प्रजातंत्र लाने का प्रयोग किया गया। लेकिन वह जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ रहा । इस प्रयोग की परिणति 1996 में माओवादी द्वारा जनयुदध से हुर्इ। यह जनयुदध दस साल तक चला और अंत में राजशाही की समापित हुर्इ। तब माओवादियों और अन्य राजनीतिक दलों में समझौता हुआ। इसके तहत देश में नया संविधान बनाने के लिए समझौता हुआ। इसके तहत 2008 में संविधान सभा का चुनाव हुआ। नेपाल के राजनीतिक दलों के साथ माओवादियों के साथ समझौता होने के बाद भी उनके बीच कटुता कम नहीं हुर्इ। जनयुदध के दौरान नेपाल में राजतंत्र और माओवादी दो पक्ष रह गए थे। दोनों के बीच संघर्ष की सिथति में अन्य राजनीतिक दल अप्रासंगिक हो गए थे। उनकी गतिविधियां केवल बड़े शहरों तक ही सीमित थीं और गांव के स्तर पर वे कहीं नहीं थे। इसलिए जब राजतंत्र समाप्त हुआ तो माओवादियो के विरोध में पुराने राजनीतिक दल खड़े हो गए। इस तरह नेपाल की सारी राजनीति माओवादी बनाम अन्य में बदल गर्इ। यह राजनीति संविधान सभा में दिखार्इ दी।
पिछले संविधान सभा के चुनाव में माओवादियों की सफलता उनकी सांगठनिक स्थिति और विरोधियों की कमजोरी तो थी ही, साथ ही उनके प्रति सहानुभूति का कारण यह भी था कि उनके कारण ही राजतंत्र की समापित हुर्इ थी। फिर माओवादी हथियार छोड़कर मुख्यधारा में आने का प्रयास कर रहे थे और जनता लगातार हिंसा से परेशान थी और शांति चाहती थी, इसलिए उसने माओवादियों का साथ दिया। तमाम प्रयासो के बाद भी माओवादी संविधान सभा में बहुमत में नहीं आ पाए और इससे भी ज्यादा गलती यह हर्इ कि संसदीय राजनीति की पेचीदिगियों को वे समझ नहीं सके। यही कारण था कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और संसद के अध्यक्ष के चुनाव में उनहें हार का मुख देखना पड़ा। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री पद के चुनाव में नेपाली कांग्रेस के साथ 11 बार मतदान में जाना पड़ा। तब कहीं जाकर प्रचंड प्रधानमंत्री पद पर चुने जा सके। इसके बाद भी माओवादियों की सरकार ज्यादा समय नहीं चल सकी और प्रचंड इस्तीफा देकर बाहर आ गए।
सविधान सभा में माओवादियों ने कर्इ समझौते किए जो उनकी नीतियों के खिलाफ थे। इससे पार्टी में असंतोष फैल गया। पार्टी में ही मोहन वैद्य ने नेतृत्व पर दक्षिणपंथी संसोधनवाद का आरोप लगाया और पार्टी से अलग हो गए। उन्होने नर्इ पार्टी बना ली। इस चुनाव में मोहन वैद्य की नेकपा माओवादी बहिष्कार कर रही है। उनका मानना है कि वर्तमान परिस्थितियों में संविधान सभा के जरिए संविधान का निर्माण नहीं किया जा सकता है। संविधान के निर्माण के लिए सभी राजनीतिक दलों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाना चाहिए। मोहन वैद्य के साथ कर्इ 31 राजनीतिक दल भी चुनाव बहिष्कार में शामिल हैं। इनका बहिष्कार कितना प्रभावी होगा कहा नहीं जा सकता लेकिन इसने चुनावों के हिंसा की आशंका से भर दिया है। चुनाव प्रचार के प्रारंभिक दौर मे ही जिस तरह से बहिष्कारवादियों ने चुनाव प्रचार सामग्री को लूटने और आक्रामक होने का परिचयय दिया है, उससे हिंसा होने की संभावना ज्यादा बलवती हो गर्इ है। मोहन वैध के बहिष्कार का सबसे ज्यादा प्रभाव माओवादियों पर ही होने वाला है। प्रारंभिक तौर पर पिछले संविधानसभा में जीते कर्इ सभासद मोहन वैध के साथ है, उन स्थानों पर पार्टी को नए प्रत्याषी देने पड़े हैं, साथ ही इन लोगों के प्रभाव से पार्टी वंचित हो गर्इ। यह भी दिख रहा है कि बहिष्कारवादियों का प्रमुख निशाना प्रचंड की माओवादी पार्टी ही है। उसी को वे अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। जब प्रचंड सुदूर पश्चिमांचल के अछाम, बाजुरा और डोटी जिले में आए तो उन्होंने बंद का आह्वाहन किया था। बहिष्कारवादियों ने 9 से 19 नवंबर तक देष भर में बंद का आहवान किया है। यह मतदान को कितना प्रभावित करेगा यह देखना बाकी होगा। वैसे नेपाली सरकार ने चुनावो को शांतिपूर्वक और निष्पक्ष तरीके से कराने के लिए सेना को भी लगाया है। इसके साथ ही आचार संहिता लागू कर और अपराधियों को चुनाव लड़ने रोकने के कानून बनाकर धनबल और बाहुबल से चुनावों को बचाने का प्रयास किया है।
बहिष्कारवादियों से अलग चुनाव में लड़ रहीं पार्टियां दो मुददों पर विपरीत घु्रवों पर दिखार्इ दे रही हैं। इनमें से एक है संघीयता का स्वरूप और दूसरा शासन का स्वरूप। इन्हीं दो मुददों पर संविधान सभा में आकर गतिरोध हो गया था और उसे अंत तक तोड़ा नहीं जा सका। पार्टियों के घोष्णापत्र में जिस तरह से इन मुददों पर जोर दिया जा रहा है उससे लगता नहीं ये गतिरोध टूट सकता है। सामान्य तौर पर चारों बड़ी पार्टियो एमाओवादी, नेपाली कांग्रेस, एमाले और मधेस पार्टी सभी देष को संधीय राज्य बनाने पर सहमत हैं। लेकिन उनके बीच प्रदेषो की संख्या और उनकी सीमाओं को लेकर मतभेद हैं। जहां कांग्रेस सात राज्य बनाना चाहती है तो एमाओवादी 11 राज्य चाहते हैं, एमाले और मधेसी पार्टियां आठ राज्य बनाने के प़क्षधर हैं। कांग्रसे सात राज्य भौगोलिक आधार पर बनाना चाहती है, जिसमें नदियों केजल प्रवाह को ध्यान में रखा जाए। यह कमोवेष वर्तमान सात अंचलों में ही थोड़ा-बहुत फेरबदल होगा। यह विभाजन उत्तर से दक्षिण की ओर है। एमाले जातीय पहचान और भौगोलिक आधार पर विभाजन चाहती है। मधेसियों की सभी पार्टियां एक मधेस-एक प्रदेष के नारे की समर्थक हैं। मधेस से उनका अभिप्राय पूरा तरार्इ क्षे़त्र है। इसमें वे पूर्व के झापा से लेकर पषिचम मे कंचनपुर तक 23 जिलों का भारत के साथ लगा क्षेत्र षामिल करती हैं। मधेसियो की यह मांग बाकी तीन राजनीतिक दलों के लिए मानना संभव नहीं लगती है लेकिन मधेसी इससे बाहर किसी समझोते के पक्ष में नहीं हैं।
संघीयता के प्रश्न पर सबसे ज्यादा समस्या एमाओवादियो के समाने आ रही है। वे आठ प्रदेश पहाड़ में और तीन प्रदेश तरार्इ में चाहते हैं। उनके प्रदेश बनाने का आधार जातीय पहचान और आर्थिक एकरूपता है। दरअसल जनयुदध के दौरान माओवादियों ने विभिन्न जातीय पहचान वाले क्षे़त्रों को यह विशवास दिलाया था कि वे उपराष्ट्रीयताओं का सम्मान करते हुए अलग प्रदेष का निर्माण करेंगे। इसलिए उनका जोर इस समय इन्हीं उपराष्ट्रीयताओं को पहचान देने का है। लेकिन इस प्रयास मे वे पिछली संविधानसभा में अलग-थलग पड़ गये थे। इतना ही नहीं सीमाओं को लेकर विवाद बढ़ते ही जा रहे हैं। केवल कंचनपुर-कैलाली जिलों को लेकर चार उपराष्टीयताओं में टकराव की सिथति आ गर्इ है। इन दो जिलो केा लेकर एक वर्ग सुदूर पश्चिमांचल में रखना चाहता है तो मधेसी पार्टियां इन्हें मधसे का हिस्सा बनाना चाहती हैं, थारूवन के हिमायती इन दो जिलों को अपने प्रदेष का हिस्सा बनाना चाहते हैं। इस विवाद के बीच थारूओं की ही एक षाखा राना थारूओं ने मांग कर दी कि इसे अलग से राना थारू स्वायत्त प्रदेश बनाया जाए। दरअसल यह तरार्इ का ऐसा जिला है, जिनमे 21 प्रतिशत आबादी थारूओं की है और बाकी पर्वतीय मूल के लोग यहां रहते हैं। इन दो जिलों को लेकर माओवादी नेताओं में भी मतभेद हैं। माओवादियों की योजना के अनुसार इन दो जिलो केा थारूवन का हिस्सा होना चाहिए लेकिन दो बड़े स्थानीय नेता टीकेंद्र प्रसाद भटट और लेखराज भटट जो पिछली संविधान सभा के सदस्य थे और वर्तमान में भी एमाओवादी से चुनाव लड़ रहे हैं इस योजना के विरोधी हैं और इन दो जिलों को सुदूर पश्चिमांचल का ही हिस्सा बनाने के पक्षधर हैं और अपनी बात को वे पार्टी और जनता के सामने रख चुके हैं।
सुदूर पश्चिमांचल के अलावा थारूवान, कर्णाली और अन्य प्रस्तावित प्रदेशों में भी सीमाओं को लेकर विवाद हैं। इतना ही नहीं उपराष्टीयताओं की पहचान को लेकर राज्य बनने के प्रयासों के चलते कर्इ क्षेत्रीय दल असितत्व में आ गए हैं। मधेस में तो यह पिछले चुनाव में ही देखने को मिल गया था। जब मधेस के मतदाताओं ने राष्टीय दलो को छोड़कर मधेसी पार्टियों के पक्ष में मतदान किया था। इस चुनाव में सुदूर पश्चिमांचल में अखंड पश्चिमांचल पार्टी, थारूवन की थारूवन कल्याण समिति, वृहत्तर कर्णाली पार्टी चुनाव मैदान में हैं। ये प्रदेश और पहचान के मुददे पर कितना चुनाव को प्रभावित करेगी इसका आंकलन होना हैं लेकिन ये भावनात्मक रूप से लोगों को गोलबंद जरूर कर रही हैं। अगर सही तरीके से इस मुददे को संभाला नहीं गया तो आने वाले समय में भी यह नेपाली राजनीति को निश्चित तौर पर प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं।
संघीयता के साथ ही शासन के भावी स्वरूप पर भी पार्टियों में मतभेद हैं। एमाओवादी और मधेसी पार्टियां शासन की सारी ताकत राष्ट्रपति में रखना चाहती हैं। वे अमेरिका की तरह शक्तिशाली राष्ट्रपति प्रणाली की पक्षधर हैं। यह स्वरूप एमओवादियों के सांगठनिक स्वरूप के ज्यादा नजदीक आता है, जहां पार्टी के महासचिव को सारी ताकत सौंप दी जाती है। इसके साथ ही चुनावी तौर पर माओवादियो को लगता है कि वे जन समर्थन के आधार पर अपना राष्ट्रपति चुनवा सकते हैं और अपने एजेंडे को लागू कर सकते हैं, जिसे वे संविधान सभा में दलीय सिथति के कारण नही करवा सके। अगर प्रधानमंत्री को शासन का प्रमुख बनाया गया और उसे संसद से चुना गया तो वे हमेशा अन्य दलों पर आश्रित रह जाएंगे और उनके काम कर्इ तरह की बाधाएं पहुंचार्इ जा सकती है, जैसा इस संविधान सभा मे हुआ और उन्होंने शासन चलाने को जिस तरह के समझौते किए उससे उनको राजनीतिक तौर पर नुकसान ही हुआ। इस तरह की स्थिति भविष्य में न आए इसलिए वे राष्ट्रपति प्रणाली के पक्षधर हैं। इसके विपरीत एमाले और नेपाली कांग्रेस संसदीय प्रजातंत्र और प्रधानमंत्री को शक्तिशाली बनाना चाहते हैं। इन दोनों पार्टियो का जिस तरह का जनाधार है, उसको देखते हुए वे संसदीय प्रजातंत्र के हिमायती है।
सही तथ्य तो यह है कि पिछले संविधान सभा के चुनाव में जितने राजनीतिक अंतरविरोध थे और जिन अंतर विरोधों को खत्म करने के लिए चुनाव करवाए गए थे, वे तो जस के तस हैं। इस संविधान सभा के चुनाव में कर्इ अतरविरोध पैदा हो गए हैं। इन अंतरविरोधों को लेकर बनने वाली संविधान सभा का स्वरूप क्या होगा और वह कैसे कार्य करेगी यह देखना होगा। खासकर तब जब इस संविधान सभा के चुने सदस्यों का कार्यकाल तो पांच वर्ष होगा लेकिन उन्हें संविधान का निर्माण एक वर्ष में ही करना होगा। एक साल में संविधान बनाने के बाद संविधान सभा चार साल के लिए संसद में बदल जाएगी। सवाल यही है कि क्या यह एक साल में संविधान का निर्माण कर पाएगी।
प्रेम पुनेठा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.
मध्य-पूर्व के इतिहास और राजनीति पर निरंतर अध्ययन और लेखन.
इनसे संपर्क के पते- prem.punetha@faceboo k.com और prempunetha@gmail.com