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नेशनल बुक ट्रस्ट में दैनिक वेतन भोगी मजदूरों की दुर्दशा

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 -सुनील कुमार
सुनील कुमार

"...उन्होंने बताया कि वह करीब 3 वर्ष से नेशनल बुक ट्रस्ट में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी के रूप में काम कर रह थे। उनका परिवार गांव में रहता है इनके परिवार में तीन बच्चे और पत्नी हैं। ये हर महीने कुछ पैसा बचाकर गांव को भेजते थे जिनसे इनके परिवार का खर्च और बच्चों की पढ़ाई किसी तरह चल रही थी। उन्हें काम पर आने-जाने और दो चाय पीने में करीब 60-70 रु. खर्च हो जाते थे, इनको अभी 298 रुपये प्रति दिन ईएसआई, पीएफ काट कर मिल रहा था। ईएसआई कार्ड तो मिला है जिस पर वे इलाज भी करवाते रहे हैं लेकिन आज तक उनको पीएफ की कोई रसीद प्राप्त नहीं हुई है।  इनके पीएफ नम्बर का इंटरनेट पर कुछ अता-पता नहीं है। हर तीन माह पर उनके अनुबंध का रेवन्यूल कर नये सिरे से काम पर रख लिया जाता था इधर कुछ समय से अनुबंध एक माह पर ही रेवन्यूल किया जाने लगा था।..." 

नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) की स्थापना 1957 में हुई थी। इस संस्थान का मुख्य उद्देश्य था, कम मूल्य में किताबों का प्रकाशन करना, पुस्तक पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना, विदेशों में भारतीय पुस्तकों को प्रोत्साहन दिलाना, लेखकों और प्रकाशकों की सहायता करना, बाल साहित्य को बढ़ावा देना जिससे कि बच्चों को अच्छी पुस्तक मिल सके।  उनको देश के इतिहास, विज्ञान इत्यादि से परिचय कराया जा सके। 

नेशनलबुक ट्रस्ट मानवसंसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्तशासी संस्था है। जिसकी जवाबदेही न के बराबर है लेकिन वहां पर लाभ व भ्रष्टाचार के मामले में किसी भी संस्था से कम नहीं है। इस सस्ंथा में कम्प्यटूर आपरटेर, पिउन, स्टारे, लिफ्ट आपरटेर, बिजली कर्मी, सफाई कर्मी, गार्ड सहित करीब 150 कर्मचारी दैनिक वेतन भोगी हैं। यहां पर तीन ठेकेदार हैं। ये लोग उनके अन्तर्गत काम करते हैं। 

ऐसेही एक दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी से मेरी मुलाकत 12 अगस्त को बस में हुई जब मैं आफिस से घर जा रहा था। वह बस में किसी व्यक्ति से कोई काम दिलाने के लिए कह रहा था। जिज्ञासावश मैं उनसे बात करने लगा तो उन्होंने बताया कि वह करीब 3 वर्ष से नेशनल बुक ट्रस्ट में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी के रूप में काम कर रह थे। उनका परिवार गांव में रहता है इनके परिवार में तीन बच्चे और पत्नी हैं। ये हर महीने कुछ पैसा बचाकर गांव को भेजते थे जिनसे इनके परिवार का खर्च और बच्चों की पढ़ाई किसी तरह चल रही थी। उन्हें काम पर आने-जाने और दो चाय पीने में करीब 60-70 रु. खर्च हो जाते थे, इनको अभी 298 रुपये प्रति दिन ईएसआई, पीएफ काट कर मिल रहा था। ईएसआई कार्ड तो मिला है जिस पर वे इलाज भी करवाते रहे हैं लेकिन आज तक उनको पीएफ की कोई रसीद प्राप्त नहीं हुई है।  इनके पीएफ नम्बर का इंटरनेट पर कुछ अता-पता नहीं है। हर तीन माह पर उनके अनुबंध का रेवन्यूल कर नये सिरे से काम पर रख लिया जाता था इधर कुछ समय से अनुबंध एक माह पर ही रेवन्यूल किया जाने लगा था। 

पहलेस्टोर में पैकेजिंग का काम किया करते थे बाद में एनसीसीएल बच्चों की लाइब्रेरी में पीयून के रूप में काम करने लगे। जहां पर फाइलों को इधर से उधर करना साथ ही साथ किताबों की सफाई करना और उसको सही जगह पर रखने का काम किया करते थे। एनसीसीएल में दो पियून तथा एक कम्प्यूटर ऑपरेटर ठेके पर थे। इनको बिना किसी पूर्व सूचना के 31 जुलाई को काम से हटा दिया गया इसी तरह कम्प्यूटर ऑपरेटर को भी 15 जुलाई को ही हटा दिया गया जब कि इस कर्मचारी का अनुबंध 31 जुलाई तक का था। अब वो चिंतित है कि उनको काम कब तक मिलेगा अभी बारिश का मौसम है सभी जगह काम की मंदी है। घर का खर्च कैसा चलेगा, बच्चों की फीस कैसे दी जायेगी, फीस जमा न होने पर उनकी पढ़ाई छूट जायेगी। पीएफ की निकासी के लिये ठेकेदार को 300 रु. भी दिये कि जल्दी फॉर्म जमा कर दे।’’ 

एनबीटी में किसी भी अवकाश का पैसा नहीं मिलता है और सप्ताह में दो दिन शनिवार, रविवार की छुट्टी होती है। ये छुट्टी भी दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों को नहीं मिलती है। इस तरह वहां काम करके 6000रु. तक पा जाते थे जो कि सरकार आंकड़े के हिसाब से गरीब नहीं है उनको बीपीपएल कार्ड या अन्य कोई सरकारी सुविधा की जरूरत नहीं है। बच्चे पढ़ पायेंगे कि नहीं पढ़ पायेंगे उस संस्था के कर्मचारी सोच रहे हैं जिस संस्था का निर्माण इसलिए किया गया था कि लोगों में पढ़ने की रूचि पैदा की जाये बच्चों के लिए अलग से विभाग बनाया गया था कि और उसी लाइब्रेरी में काम करने वाला कर्मचारी सोच रहा है कि उनके बच्चे अब कैसे पढ़ेंगे। इस संस्था के डायरेक्टर एम.ए. सिकन्दर है जो कि पूर्व में दिल्ली विश्वविद्यालय के रजिस्टार रह चुके हैं। इससे पता चलता है कि शिक्षा क्षेत्र से जुड़े व्यकित भी किस तरह से मेहनतकश जनता के प्रति असंवेदनशील हो चुके हैं। न तो उनको अपने  मातहत काम करने वाले पीडित़ कर्मचारियों के वर्तमान की चिंता है और न उनके भविष्य की। 

क्या इन कर्मचारियों को जीने का अधिकार नहीं है? इनके बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं है ? जहां पर इन कर्मचारियों को बिना बताये एक झटके में निकाल दिया गया वहीं दूसरी तरफ डायरेक्टर द्वारा अपने परिचतों को डिस्पैच, आर्ट सेल, एकाउन्टस, आईपी सेक्शन, एवं सेल्स कॉर्डिनेशन में रखवाया गया है। एनबीटी का नेहरू भवन अभी 4-5 वर्ष पहले बना है लेकिन उसमें कंस्ट्रक्शन का काम जोर-शोर से करवाया गया है। निश्चय ही डायरेक्टर एम.ए. सिकन्दर को इस काम की प्रेरणा दिल्ली विश्वद्यालय से मिली होगी। हम सभी जानते हैं कि कंस्ट्रक्शन के काम में क्या होता है ये बात किसी से दबी-छुपी नहीं है। हम समझ सकते हैं कि एनबीटी जिस उद्देश्य के लिये बना था उसके इतर वहां पर क्या हो रहा है? अभी हाल में ही सुप्रीम कोर्ट पूछ रहा है कि दिहाड़ी कामगारों का शोषण क्यो? लेकिन इन तीन सालों से काम करने वाले दैनिकवेतन भोगी कर्मचारियों को एक झटके में निकाल बाहर किया गया। क्या यहां का श्रम कानून केवल फाइलों की शोभा बढ़ाने के लिए ही है? यहां बड़े पदों पर आसीन लोगों की कोई जवाबदेही क्यों नहीं है?

सुनील कुमार सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

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