"...भारतीय समाज में अवसरों को सीमित करने वाले जो पहलू हैं, उनमें जाति प्रमुख है। इसके कारण करोड़ों लोग शिक्षा एवं रोजगार में समान अवसर पाने से वंचित रह जाते हैं। आरक्षण की अवधारणा इसी सामाजिक हकीकत को ध्यान में रखते हुए विकसित हुई। यह समझना कठिन है कि आखिर न्यायपालिका इसे नजरअंदाज कर देती है। विडंबना ही है कि जिस सिद्धांत को जाति-व्यवस्था को कमजोर करने के लिए संविधान में शामिल किया गया, उसे समाज का प्रभु-वर्ग जातिवाद बढ़ाने का कारण मानता है।..."
जस्टिस अल्तमस कबीर भारत के प्रधान न्यायाधीश पद से रिटायर होने के पहले दो ऐसे न्यायिक फैसलों में सहभागी बने, जिनको अगर साथ लेकर न्यायपालिका के सामाजिक दर्शन पर विचार किया जाए, तो न्याय एवं अवसर की समानता का कोई समर्थक बेचैन हो सकता है। जस्टिस कबीर की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में अति-विशेषज्ञता (सुपर-स्पेशियलिटी) स्तर पर आरक्षण को खारिज कर दिया। इसके लिए इस बेंच ने मंडल मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को आधार बनाया, जिसमें कहा गया था कि कुछ मामलों में सिर्फ योग्यता (मेरिट) को ही महत्त्व दिया जाना चाहिए। जस्टिस कबीर की अध्यक्षता वाली बेंच ने टिप्पणी की- ‘आरक्षण की अवधारणा में ही मध्यम प्रतिभा को महत्त्व मिलना अंतर्निहित है।’
उधरन्यायमूर्ति कबीर, जस्टिस विक्रमजीत सेन और जस्टिस अनिल आर. दवे की खंडपीठ ने 2-1 के बहुमत से देशभर के मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए साझा प्रवेश परीक्षा आयोजित करने की हुई शुरुआत को अवैध ठहरा दिया। इस फैसले से असहमत न्यायमूर्ति दवे ने कहा कि अगर साझा परीक्षा के आधार पर दाखिला मिले तो शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय अनैतिक और धन को सर्वोपरि मानने वाले व्यापारियों के भ्रष्ट आचरणों पर रोक लग सकती है। मगर वे अल्पमत में थे। आलोचकों ने ध्यान दिलाया है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से छात्रों और मरीजों के अलावा बाकी सबको लाभ होगा। साझा परीक्षा होने पर छात्र अलग-अलग कॉलेजों के लिए अलग प्रवेश परीक्षा देने से बच जाते, देश भर में दाखिले का समान मानदंड लागू होता और कैपिटेशन फीस पर रोक लगती, जो अब कई जगहों पर करोड़ रुपयों में वसूली जा रही है। यह जानकर आप चिंतित हो सकते हैं कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों से पास हुए डॉक्टरों में तकरीबन 20 फीसदी ऐसे होते हैं, जिनका वहां दाखिला योग्यता के आधार पर नहीं हुआ होता है। ये लोग धन के जोर से मैनेजमेंट कोटा की सीटें खरीद कर डॉक्टर बन जाते हैं। हैरतअंगेज है कि आरक्षण के कारण कथित रूप से मध्यम प्रतिभाओं के आगे बढ़ने से चिंतित सुप्रीम कोर्ट को धन के जोर से आगे बढ़ने वाली अयोग्यता से कोई परेशानी नहीं हुई। बहरहाल, इन दोनों मामलों ने मौजूदा समाज में अंतर्निहित विषमता और विशेष अवसर के सिद्धांत के संदर्भ में योग्यता बनाम अयोग्यता की बहस को फिर से प्रासंगिक कर दिया है।
मुद्दा यह है कि क्या उच्च शिक्षा संस्थानों तक पहुंच एवं वहां सफलता सिर्फ योग्यता से तय होती रही है?क्या योग्यता सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से निरपेक्ष कोई चीज है? अगर इंजीनियरिंग संस्थानों के एक हालिया आंतरिक विश्लेषण पर गौर करें तो हमें इन सवालों के जवाब ढूंढने में मदद मिल सकती है। 2012 में इंजीनियरिंग कॉलेजों के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) में भाग लेने वाले छात्रों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के इस अध्ययन सामने आया कि इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए संपन्न पृष्ठभूमि और बड़े शहरों में निवास- ये दो सबसे प्रमुख तत्व हैं। कोचिंग की सुविधा और अनुकूल पारिवारिक पृष्ठभूमि हो तो काम और आसान हो जाता है। यानी अगर परिवार में पहले से कोई डॉक्टर या इंजीनियर या अन्य उच्च प्रोफेशनल हो, तो उसका लाभ अगली पीढ़ी को मिलता है। सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जो बात इंजीनियरिंग कॉलेजों के लिए सच है, वह अधिकांश उच्च तकनीकी शिक्षा- बल्कि तमाम शैक्षिक क्षेत्रों पर भी लागू होती है।
इस अध्ययन के मुताबिक 2012 में 5,06,484 छात्रों ने जेईई में हिस्सा लिया, जिनमें से 24,112 सफल रहे। सफल छात्रों में लगभग आधे सिर्फ 11 शहरों के थे। जहां महानगरों में रहने वाले जहां 5.8 प्रतिशत छात्र सफल हुए, वहीं छोटे शहरों के 4.2 और देहाती इलाकों के सिर्फ 2.7 फीसदी छात्र ही पास हो सके। आमदनी के लिहाज से जिन परिवारों की वार्षिक आय 4.5 लाख रुपए से ज्यादा है, उनके 10.3 फीसदी छात्र पास हुए, जबकि 1 से 4.5 लाख की बीच आय वाले परिवारों के 4.8 प्रतिशत और एक लाख रुपए से कम सालाना आमदनी वाले परिवारों के मात्र 2.6 फीसदी छात्र ही उतीर्ण हो सके। फिर जहां प्रवेश परीक्षा में शामिल छात्रों में 20 प्रतिशत को कोचिंग की सुविधा मिली थी, वहीं जो पास हुए उनमें ऐसे छात्रों का हिस्सा लगभग 50 फीसदी था। इन आंकड़ों के आधार पर क्या यह कहना गलत होगा कि योग्यता असल में सामाजिक-आर्थिक अवसरों से तय होती है और बहुत से साधन संपन्न छात्र सिर्फ इसलिए सफल हो जाते हैं, क्योंकि उनके प्रतिद्वंद्वी छात्रों को उनकी तरह सुविधाएं और अवसर नहीं मिल पाते हैं?
भारतीयसमाज में अवसरों को सीमित करने वाले जो पहलू हैं, उनमें जाति प्रमुख है। इसके कारण करोड़ों लोग शिक्षा एवं रोजगार में समान अवसर पाने से वंचित रह जाते हैं। आरक्षण की अवधारणा इसी सामाजिक हकीकत को ध्यान में रखते हुए विकसित हुई। यह समझना कठिन है कि आखिर न्यायपालिका इसे नजरअंदाज कर देती है। विडंबना ही है कि जिस सिद्धांत को जाति-व्यवस्था को कमजोर करने के लिए संविधान में शामिल किया गया, उसे समाज का प्रभु-वर्ग जातिवाद बढ़ाने का कारण मानता है। जबकि भारतीय समाज में आज भी जातिवाद की परंपरागत जकड़न कितनी गहरी है, यह किसी भी सामाजिक व्यवहार में देखा जा सकता है। वैवाहिक विज्ञापनों का अध्ययन कर कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के तीन अनुसंधानकर्ता हाल में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जो लोग वैवाहिक विज्ञापनों में ‘जाति की सीमा नहीं’ लिखने का खुलापन दिखाते हैं उनमें भी अधिकांश की प्राथमिकता पहले अपनी जाति में ही जीवनसाथी चुनने की होती है। इस क्रम में एक मैट्रीमोनियल वेबसाइट द्वारा दी गई यह जानकारी महत्त्वपूर्ण है कि जो अपने विज्ञापन में ‘जाति की सीमा नहीं’ लिखते हैं, उनमें 90 फीसदी लोग इश्तहार में अपनी जाति का उल्लेख जरूर कर देते हैं। पिछले राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण से सामने आया था कि भारत में अंतर-जातीय विवाहों की संख्या में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। यह संख्या कुल विवाहों के 10 प्रतिशत पर सीमित है। इन 10 फीसदी में अधिकांश विवाह वो हैं, जिन्हें प्रेम विवाह की श्रेणी में रखा जाता है।
प्रश्न यह है कि आखिर जज इस सामाजिक यथार्थ से अनजान क्यों बने हुए हैं? यह तो स्वागतयोग्य है कि सरकार ने उपरोक्त दोनों फैसलों पर पुनर्विचार याचिका देने का निर्णय किया है और ये घोषणा की है कि अगर फैसला अनुकूल नहीं रहा तो वह संविधान संशोधन का रास्ता अपनाएगी। इससे मुमकिन है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से पैदा हुई तात्कालिक समस्या हल हो जाए। लेकिन इससे योग्यता की समाज-निरपेक्ष और अमूर्त अवधारणा को तोड़ने में बहुत मदद नहीं मिलेगी। इसके लिए सायास और सक्रिय प्रयासों की जरूरत होगी। इस निराधार धारणा को चुनौती देना एक बड़ा काम है। ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को यह जरूर बताया जाना चाहिए कि मुमकिन है कि वे अपनी योग्यता से नहीं, बल्कि अपने परिवार की सामाजिक-आर्थिक हैसियत के कारण मिली विशेष सुविधाओं और अवसरों के जरिए वहां पहुंचे हों। सदियों से जो समूह इन सुविधाओं और अवसरों से वंचित हैं, उनके विकास एवं प्रगति की राह में अब विषम सामाजिक व्यवस्था के कारण लाभ पा रहे लोग योग्यता की अयथार्थ एवं मनोगत दीवार खड़ी नहीं कर सकते।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
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