-सत्येंद्र रंजन
सत्येंद्र रंजन |
"...दरअसल, यह बात सिर्फ दया याचिकाओं पर ही नहीं, बल्कि मृत्युदंड सुनाने की न्यायिक प्रक्रिया पर भी लागू होती है। पिछले साल खुद सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी की थी कि अपने देश में फांसी सुनाने की व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर रही है। न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर की खंडपीठ ने कहा था कि जिन आधारों पर मृत्युदंड सुनाया जाता है, उनके बीच लगभग ना के बराबर एकरूपता रहती है। यह जज की अपनी राय के ऊपर जरूरत से ज्यादा निर्भर करता है। यानी किस मामले में फांसी की सजा सुना दी जाएगी और ठीक वैसे ही किस दूसरे मामले में ऐसा नहीं होगा- यह कहना कठिन है।..."
मगनलाल बरेला के फांसी के फंदे पर झूल जाने में कुछ घंटों का फासला बचा था, तभी उसे बचाने की एक नागरिक अधिकार संस्था की कोशिश कामयाब हो गई। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम ने अगली सुबह जबलपुर जेल में उसे दी जाने वाली फांसी पर रोक लगा दी। मध्य प्रदेश में सिहोर जिले के कनेरिया गांव के निवासी इस आदिवासी को अपनी पांच बेटियों का गला काट कर हत्या करने के आरोप में मृत्युदंड सुनाया गया था। राष्ट्रपति द्वारा उसकी दया याचिका खारिज करने के बाद उसकी फांसी की तारीख तय हुई थी। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अनिश्चितकाल के लिए रोक लगा दी है। मगनलाल की पैरवी कर रहे वकील ने यह दलील दी है कि मगनलाल को यह नहीं मालूम की उसकी दया याचिका खारिज हो गई है, क्योंकि सरकार ने उसे यह सूचना नहीं दी। बहरहाल, नए सिरे से इस केस पर सुनवाई शुरू करते समय प्रधान न्यायाधीश ने यह महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की- ‘सुप्रीम कोर्ट के पुनर्विचार याचिका रद्द करने और राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज करके बाद हम धीरे-धीरे सुनवाई का नया क्षेत्राधिकार कायम कर रहे हैं।’
स्पष्टतःप्रधान न्यायाधीश यह नई याचिका एक हिचक के साथ स्वीकार की। लेकिन ऐसी कोई हिचक न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय के रुख में नहीं दिखी। उनके सामने असम के महेंद्रनाथ दास का मामला था, जिसमें केंद्र सरकार ने दया याचिका को स्वीकार या अस्वीकार करने के राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकार की समीक्षा के न्यायपालिका के अधिकार को चुनौती दी थी। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने दास की दया याचिका खारिज की थी। उसके बाद दास सुप्रीम कोर्ट गया, जिसने उसकी सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया। कोर्ट ने यह फैसला इस आधार पर दिया कि प्रतिभा पाटिल को इस बात की सूचना नहीं दी गई कि उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दास को क्षमादान देने की सिफारिश की थी। अदालत ने इस बात पर भी ध्यान दिया कि राष्ट्रपति ने दया याचिका पर फैसला लेने में लंबा समय गुजार दिया। अब मगनलाल के मामले में न्यायमूर्ति सदाशिवम और जस्टिस रंजना देसाई की बेंच दया याचिकाओं के निपटारे में देर और उससे संबंधित अन्य मुद्दों पर भी विचार करेगी। मगनलाल के वकील ने दलील दी है कि ऐसी याचिकाओं के निपटारे की कोई पारदर्शी एवं उचित प्रक्रिया नहीं है।
दरअसल,यह बात सिर्फ दया याचिकाओं पर ही नहीं, बल्कि मृत्युदंड सुनाने की न्यायिक प्रक्रिया पर भी लागू होती है। पिछले साल खुद सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी की थी कि अपने देश में फांसी सुनाने की व्यवस्था ठीक से काम नहीं कर रही है। न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर की खंडपीठ ने कहा था कि जिन आधारों पर मृत्युदंड सुनाया जाता है, उनके बीच लगभग ना के बराबर एकरूपता रहती है। यह जज की अपनी राय के ऊपर जरूरत से ज्यादा निर्भर करता है। यानी किस मामले में फांसी की सजा सुना दी जाएगी और ठीक वैसे ही किस दूसरे मामले में ऐसा नहीं होगा- यह कहना कठिन है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रेयरेस्ट ऑफ रेयर (अति असाधारण मामलों) का सिद्धांत तय करने के बत्तीस साल बाद उसी कोर्ट की ये टिप्पणी सचमुच बेहद कड़ी थी। लेकिन वो पहला मौका नहीं था, जब मृत्युदंड के मामलों में न्यायिक फैसलों के सुसंगत ना होने की बात कही गई हो। उसके कुछ ही महीने पहले अनेक पूर्व जजों ने एक बयान जारी कर मृत्युदंड सुनाने में ऐसी ही गंभीर खामियों की तरफ इशारा किया था। उन्होंने ध्यान दिलाया था कि एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाने के पहले अपराध और अपराधी दोनों की स्थिति पर गौर करने की व्यवस्था दी थी। लेकिन बाद में अनेक फैसलों में न सिर्फ निचली अदालतों, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस फैसले का ध्यान नहीं रखा। इस आधार पर उन्होंने तेरह सजायाफ्ता कैदियों की सजा-ए-मौत माफ करने की अपील की। उस बयान ने फांसी की सजा को लेकर जो बहस खड़ी की, उसमें जस्टिस राधाकृष्णन और जस्टिस लोकुर की खंडपीठ की टिप्पणी से नया आयाम जुड़ा। यहां यह गौरतलब है कि ये दोनों ही प्रकरण फांसी की सजा सुनाने की प्रक्रिया से संबंधित हैं। यानी इनका फांसी की सजा के सैद्धांतिक विरोध से कोई संबंध नहीं है।
अबमहेंद्र नाथ दास और मगनलाल के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय से मृत्युदंड की पुष्टि होने के बाद पुनर्विचार और दया यायिकाओं के निपटारे की प्रक्रिया में जारी खामियां सामने आई हैं। महेंद्र दास के मामले में एपीजे अब्दुल कलाम ने मृत्युदंड को माफी के लायक माना, जबकि प्रतिभा पाटिल ने ऐसा नहीं समझा। तो क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि उसे फांसी दी जाए या नहीं, यह तय करने का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है- बल्कि यह उस वक्त पदासीन राष्ट्रपति की मनोगत समझ पर निर्भर करता है? उधर उपरोक्त टिप्पणी में खुद सुप्रीम कोर्ट मान चुका है कि जज मनोगत आधार पर मृत्युदंड सुनाने के निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। ऐसे में यह सवाल अवश्य उठेगा कि क्या मृत्युदंड का प्रावधान कानून की किताब में रहना चाहिए? मौत की सजा के खिलाफ सबसे पुख्ता दलीलों में एक यह भी है कि हर मुकदमे के फैसले में गलती की गुंजाइश रहती है। अगर ऐसी गलती मृत्युदंड देने में हुई, तो उसे सुधारा नहीं जा सकता। गलती की संभावना सिर्फ तभी न्यूनतम हो सकती है, जब प्रक्रिया वस्तुगत हो, जिसे हर कोई भी देख और समझ सके। लेकिन ऐसा नहीं है। इसीलिए आज सिर्फ क्षमादान की प्रक्रिया ही नहीं, बल्कि मृत्युदंड का प्रावधान भी कठघरे में है।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.