"...वामपंथी दलों से सहयोग का दौर प्रधानमंत्री को शायद इसलिए याद आता होगा क्योंकि इन दलों ने सत्ता के सुख के लिए उनसे सौदेबाजी नहीं की। उनकी कुछ नीतियों में अतिरेक और कई कार्यक्रमों में अव्यावहारिकता हो सकती है, लेकिन उनकी चिंताएं आम जन के हित से जुड़ी हैं, ये बात किसी ईमानदार व्यक्ति के मानस से ओझल नहीं रह सकतीं।..."
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब वामपंथी दलों के साथ भविष्य में सहयोग के दरवाजे खुले रहने के संकेत देते हैं या यूपीए-1 सरकार को उनके समर्थन वाले दौर को याद करते हुए कोई टिप्पणी करते हैं तो वे किस मनःस्थिति में होते हैं, इसका अंदाजा लगाना तो आसान नहीं है, लेकिन इससे ये कयास जरूर शुरू हो जाते हैं कि क्या भविष्य में फिर कांग्रेस और वाम मोर्चे के बीच किसी तरह के संसदीय सहयोग की गुंजाइश है? ऐसी एक टिपप्णी डॉ. सिंह ने हाल की अपनी जापान-थाईलैंड यात्रा से लौटते हुए की। उनसे इस संभावना के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। मध्यमार्गी दलों, जिनके लिए राजनीति महज (सत्ता पाने की) संभावनाओं का खेल है, उनके नेता अक्सर ये जुमला बोलते हैं। बहरहाल, वामपंथी दलों के संदर्भ में ये बात सिर्फ तीन स्थितियों में कही जा सकती है। पहली यह कि बयान देने वाला नेता वामपंथी राजनीति की विशिष्टता या उसके गतिशास्त्र से बिल्कुल अपरिचित हो, या फिर वह अपने दल की नीतियों में ऐसे परिवर्तन के लिए तैयार हो जिसके आधार पर उन पार्टियों के साथ तालमेल की सूरत बने, अथवा वह निकट भविष्य में ऐसी राजनीतिक परिस्थिति पैदा होने की संभावना देखता हो जिसमें अल्पकालिक मुद्दे अप्रसांगिक हो जाएं।
डॉ. सिंह की टिप्पणी के एक दिन बाद ही माकपा महासचिव प्रकाश करात ने इस बारे में अपनी पार्टी की स्थिति स्पष्ट की। उन्होंने कहा कि 2014 के आम चुनाव के बाद उन्हें 2004 जैसी स्थिति बनने की संभावना नजर नहीं आती। करात ने कहा कि फिलहाल वाम मोर्चे का लक्ष्य कांग्रेस और यूपीए को पराजित करना है, जिनकी नीतियों का वह विरोध करता है। फिर ये टिप्पणी की- “माकपा नीतियों और कार्यक्रमों पर गौर करती है। हम दोस्त और दुश्मनों पर ध्यान नहीं देते।”
नीतियों में कांग्रेस और वाम मोर्चा परस्पर विरोधी ध्रुवों पर खड़े हैं, इस बारे में तो मनमोहन सिंह को भी कोई भ्रम नहीं होगा। असल में 2004 में कांग्रेस और वाम मोर्चे में सहयोग की बनी ऐतिहासिक स्थिति 2008 में भंग हो गई, तो उसका कारण नीतियों की चौड़ी होती खाई ही थी, जो अमेरिका के साथ असैनिक परमाणु सहयोग समझौते को लेकर विच्छेद बिंदु पर पहुंच गई। इसके बावजूद सहयोग का वो दौर कई बार प्रधानमंत्री को याद आता है। 2009 में यूपीए के अधिक बड़े बहुमत के साथ चुनाव जीतने के तुरंत बाद जब उनसे फिर वामपंथ से सहयोग की संभावना के बारे में पूछा गया तो उन्होंने अंग्रेजी की एक कहावत से जवाब दिया था, जिसका हिंदी में अर्थ होगा कि अगर इच्छाओं से घोड़े मिल पाते तो भिखारी भी घुड़सवारी कर सकते हैं। जब लोकपाल आंदोलन कांग्रेस के लिए मुसीबत बना हुआ था उस समय वामपंथी दलों का एक प्रतिनिधिमंडल डॉ. सिंह से किसी अन्य संदर्भ में मिलने गया था। बताया जाता है कि तब प्रधानमंत्री ने उनसे कहा था कि उन्हें वो दिन याद आते हैं, जब वामपंथी दलों से उन्हें महत्त्वपूर्ण सलाह मिलती थी।
ये टिप्पणियां इसलिए ध्यान खींचती हैं, क्योंकि 2009 में कांग्रेस और वामपंथी दलों में संबंध विच्छेद के लिए परमाणु समझौते पर डॉ. सिंह के समझौताविहीन रुख को ही जिम्मेदार माना जाता है। उसके बाद कांग्रेस और यूपीए ने जिन आर्थिक नीतियों पर तेजी से चलने की कोशिश की, उससे वामपंथी दलों के साथ उनका विरोध बढ़ता गया। इन नीतियों के सबसे बड़े प्रतीक खुद डॉ. सिंह हैं। काफी समय तक ये भ्रम रहा कि इन नीतियों पर कांग्रेस में मतभेद है। लेकिन पिछले एक साल में हर खास मंच से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बेलाग ये कहा है कि डॉ. सिंह की नीतियां ही कांग्रेस की नीति हैं। यानी कांग्रेस ने आर्थिक वृद्धि दर केंद्रित नीति को, जिसमें निवेशकों के हित प्राथमिक हैं, खुलेआम स्वीकार कर लिया है।
इसकेबावजूद डॉ. सिंह के बयान का क्या मतलब निकाला जा सकता है? वे वामपंथी राजनीति के चरित्र से अनजान हैं, यह तो कोई नहीं मानेगा। तो फिर क्या 2014 में ऐसी सूरत हो सकती है जब कांग्रेस ऐसे साझा न्यूनतम कार्यक्रम पर राजी हो, जिसमें डॉ. सिंह की आर्थिक नीतियां पर उसे समझौता करना पड़े? या फिर ऐसी राजनीतिक परिस्थिति होने की संभावना गंभीरता से देखी जा रही है, जिसमें आर्थिक नीतियों पर मतभेद प्रमुख मुद्दा ना रह जाए? मसलन, सांप्रदायिकता या बहुसंख्यक वर्चस्व की सियासत इतने खतरनाक रूप में उभर कर सामने आए कि धर्मनिरपेक्ष दलों के बीच सहयोग एक मजबूरी बन जाए। अभी की हालत में पहली स्थिति महज एक कयास प्रतीत होता है, जबकि दूसरी स्थिति- यानी धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का सर्व-प्रमुख मुद्दा बन जाना- एक वास्तविक संभावना लगती है।
यहसंभावना इसलिए वास्तविक है क्योंकि भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता लगातार प्रमुख विभाजन रेखा बनी हुई है। इसकी प्रमुखता का परिणाम यह है कि विशुद्ध जन-पक्षीय मुद्दों के आधार पर प्रभावी राजनीतिक ध्रुवीकरण की संभावना निकट भविष्य में नजर नहीं आती। इसलिए सामाजिक जनतांत्रिक कार्यक्रमों के आधार पर सियासत को मध्य से वाम दिशा में ले जाने का लक्ष्य चाहे जितना आकर्षक हो, लेकिन उस दिशा में वाम शक्तियों की प्रगति का रास्ता अवरुद्ध है। इस दिशा में आगे बढ़ने की एकमात्र हलकी गुंजाइश यही है कि वाम मोर्चे और कांग्रेस के बीच सहयोग की सूरत निकले। कांग्रेस अगर इस तथ्य के प्रति जागरूक होती कि उसका दीर्घकालिक भविष्य मध्य से वाम की तरफ झुकी नीतियों से जुड़ा है, तो संभवतः जिस मुसीबत में आज वो नजर आती है, उसमें नहीं होती। 2004-08 की अवधि उसने इन नीतियों पर अमल कर अपने राजनीतिक आधार का विस्तार किया था। 2009-13 में इन नीतियों से दूर जाकर उसने इस आधार को संकुचित किया है। अगर वह इन नीतियों को आत्मसात कर पाती तो उसे अपनी आम आदमी समर्थक छवि बनाने के लिए अपनी राष्ट्रीय सलाहकार समिति में एनजीओ संस्कृति से कार्यकर्ताओं को लाने की जरूरत नहीं पड़ती। जवाहरलाल नेहरू के युग में- बल्कि इंदिरा गांधी के आरंभिक दौर में भी- प्रगति, विकास और न्याय की राजनीति की पहल कांग्रेस के हाथ में थी, तब उसे बाहरी लोगों की छवि से अपनी सूरत चमकाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। आज क्यों ये पहल उसके हाथ में नहीं है, यह उसके लिए विचारणीय मुद्दा है।
वामपंथीदलों से सहयोग का दौर प्रधानमंत्री को शायद इसलिए याद आता होगा क्योंकि इन दलों ने सत्ता के सुख के लिए उनसे सौदेबाजी नहीं की। उनकी कुछ नीतियों में अतिरेक और कई कार्यक्रमों में अव्यावहारिकता हो सकती है, लेकिन उनकी चिंताएं आम जन के हित से जुड़ी हैं, ये बात किसी ईमानदार व्यक्ति के मानस से ओझल नहीं रह सकतीं। डॉ. सिंह और उनकी पार्टी अगर इस बात को स्वीकार करती हैं तो दुश्मन-दोस्त वाली शब्दावली से हट कर इस बात को उन्हें खुलेआम कहना चाहिए। अगर वामपंथी दल अतिरेक और अव्यावहारिकता को नियंत्रित कर सकें तो उन्हें गठबंधन के न्यूनतम बिंदुओं पर सोचना चाहिए। आज ये बातें कयास या कुछ लोगों की सदिच्छा लग सकती हैं, लेकिन मुमकिन है कि 2014 के मध्य में ये ऐसी संभावना के रूप में सामने आएं, जिनका सामना भारत के दीर्घकालिक हित से सरोकार रखने वाली तमाम राजनीतिक शक्तियों को करना होगा।
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सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
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