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सवाल विकास का नहीं विकास के मॉडल का है

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प्रेम पुनेठा

-प्रेम पुनेठा

"...अगर माओवाद का सैनिक समाधान खोज लिया जाए और दंडकारण्य से उन्हें खदेड़ दिया जाए तो इससे आदिवासियों के जीवन में क्या गुणात्मक परिवर्तन आ जाएगा। जिस विकास के मॉडल को लेकर वहां सरकारें समझौता पत्रों पर दस्तखत कर चुकी है या करेंगी उससे आदिवासियों का जीवन कैसे बेहतर होगा। यह विकास का मॉडल तो आदिवासी इलाकों के प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन पर टिका है, जिसमें आदिवासियों को देने के लिए कूछ भी नहीं है।..."

जीरम घाटी में माओवादियों के हमले मे कांग्रेस के नेताओ के मारे जाने के बाद माओवाद भारतीय राजनीतिक परदे पर फिर से अवतरित हो गया। माओवादियों के कई बड़े नेताओं के मारे जाने के बाद केंद्र और राज्य सरकार यह मानकर चल रही थी कि माओवादी कमजोर हो गए है। केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी माओवादी गतिविधियों में कमी आने का दावा किया था लेकिन माओवादियों के एक हमले ने इस अवधारणा को ध्वस्त कर दिया। इस हमले के बाद से अखबारों और चैनलों में तमाम तरह के बुद्धजीवी दिखाई दे रहे है, जो माओवाद पर और उससे निपटने के लिए विशेषज्ञता हासिल किए हुए है। ये इस हमले को लगातार नक्सलियों द्वारा किया हमला बता रहे है। लेकिन नक्सली आंदोलन तो 1973 तक आते-आते लगभग खत्म हो गया था। कुछ लोग जेल चले गए, कुछ निष्क्रिय हो गए, कुछ बचे लोग अंडर ग्राउंड होकर गतिविधियां चलाते रहे और बाद में वे भी संसदीय रास्ते पर चल पड़े। तब माओवादियों को नक्सली कहना तो कहीं से भी ठीक नहीं हैं।

अखबार और चैनलो की बहसों में एक स्वर सबसे प्रमुख रूप से सुनाई दे रहा है कि माओवादियों के खिलाफ सेना का प्रयोग किया जाए। यानी कि इस समस्या का सैनिक हल खोजा जाना चाहिए। पूरा वातावरण युद्धम् देही, युद्धम् देही से गूंज रहा था। उनकी नजर में यह एक कानून-व्यवस्था का मामला है। पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बल इसको ठीक से संभाल नहीं पा रहे है इसलिए सेना को बुला लेना चाहिए। इसके साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि माओवादी विकास विरोधी है और उनकी गतिविधियों के कारण उस इलाके में विकास के कार्य नहीं हो पा रहे हैं। विकास का मतलब सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से है लेकिन इनसे कोई ये सवाल नहीं पूछ रहा है कि माओवाद तो वहां पिछले दस साल से प्रभावी है लेकिन उससे पहले वहां विकास करने से किसने रोका था। जो विकास पचास वर्षों में वहां नहीं हुआ उसके लिए माओवाद को कैसे दोषी माना जा सकता है और फिर माओवादियों के साथ है कौन। आदिवासी, जिनकी कोई आवाज ही नहीं थी। आदिवासियों का माआवादियों के साथ जाना हमारे लोकतात्रिक व्यवस्था की असफलता है। जब तक वे शांत थे और कोई विरोध नहीं कर रहे थे उनके साथ नेता, नौकरशाहों और ठेकेदारों की तिकड़ी ने क्या व्यवहार किया। अब भी चीजें नहीं बदली है। हमारा लोकतंत्र आज भी आदिवासियों को सामान्य आदमी मानने को तैयार ही नहीं है। 

लोकतंत्रके कर्णधारों के लिए तो वे एक अजूबे से कम नहीं है। हम उन्हें खुद से कमतर मानते हैं और यह सोचते हैं कि उनके शोषण का हमें स्वाभाविक अधिकार है। अगर हम इस मानसिकता न होते तो कभी उस इलाके में सलवा जुडुम नहीं चलाते। आखिर सरकारें आदिवासी समाज के एक हिस्से को गैर कानूनी तरीके से हथियारबंद कर उसे अपने ही समाज के खिलाफ कैसे खड़ा कर सकती है और उसे वैधानिकता दे सकती है। सलवा जुडुम सरकार ने नहीं सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बंद किया गया। ये सलवा जुडुम ही है, जिसने माओवाद को फैलने में सहायता दी। सलवा जुडुम बंद होने के बाद उसमें शामिल आदिवासी लावारिस हो गए। इस अभियान के अधिकांश नेताओं को माओवादियों ने मार दिया है और जो बचे है वे हमेशा मौत के साए में है। इस डर से कि माओवादी उन्हें कभी भी मार देंगे। अशिक्षित और साधन विहीन आदिवासियों को माओवाद के बारे में कितना पता है यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन वे माओवादियों को अपने शोषणकर्ता के खिलाफ बोलने वाले के तौर पर चिन्हित करते है।

विचारकरने की बात यह है कि आदिवासियों का विकास का मॉडल क्या हो। जिस तर्ज पर मुख्यधारा के लोगों का विकास हो रहा है वही आदिवासियों के विकास का मॉडल हो। क्योंकि इस विकास के मॉडल ने तो आदिवासी क्षे़त्रों में माओवाद को पैदा किया है। तब आदिवासियों के लिए एक नए मॉडल की जरूरत है। मुख्यधारा और आदिवासी विकास में प्रमुख अंतर सांस्कृतिक है। मुख्यधारा के विकास का प्रमुख लक्ष्य संग्रह करना है और नई आर्थिक नीतियों ने तो इस विकास को एकाधिकारवादी बना दिया है। यानी व्यक्ति की इच्छा अधिक से अधिक संसाधन और संपदा की लूट और उसपर कब्जा करना है। इसमें छोटी चीजों के लिए कोई जगह नहीं है, वे या तो खत्म हो जाएगी या अपने से बड़े में विलय हो जाएंगी। इसके विपरीत आदिवासी समाज संग्रहकर्ता नहीं है। वह प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीने वाला समाज है। वह प्रकृति से उतना ही लेता है, जितनी उसे आवश्यकता होती है। खेती ने उसे वर्ष भर के लिए अनाज उगाना जरूर सिखाया है लेकिन उसका व्यापार अभी भी वह नहीं करता है। यही कारण है कि आज भी उस समाज के पास इतने घने जंगल और प्राकृतिक संसाधन मौजूद है। 

अंतरतो यह स्पष्ट दिखता है कि जिस मलकानगिरी को वह देवता मानकर पूजता है उसे हमारी व्यवस्था बाक्साइट का पहाड़ मानकर खोदने पर उतारू है। जिस तेंदुपत्ता को वह तोड़ता है उसकी बीडी बनाकर कितने ही करोड़पति हो गए लेकिन आदिवासी जहां के ताहां है। वह अपने जीवन के लिए जंगल पर निर्भर है और जंगल सरकार की मिलकीयत हो गए है। उसका जंगल में जाना मना कर दिया गया। किसी भी लोकतांत्रिक शासन को इन गरीब आदिवासियों की सामाजिक - सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश को समझ कर व्यवस्था करनी चाहिए थी जो वह करने में असमर्थ रही। सही बात तो यह है कि आदिवासियों के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था किसी शोषण की व्यवस्था का ही पर्याय बन कर रह गई।  

अगरमाओवाद का सैनिक समाधान खोज लिया जाए और दंडकारण्य से उन्हें खदेड़ दिया जाए तो इससे आदिवासियों के जीवन में क्या गुणात्मक परिवर्तन आ जाएगा। जिस विकास के मॉडल को लेकर वहां सरकारें समझौता पत्रों पर दस्तखत कर चुकी है या करेंगी उससे आदिवासियों का जीवन कैसे बेहतर होगा। यह विकास का मॉडल तो आदिवासी इलाकों के प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन पर टिका है, जिसमें आदिवासियों को देने के लिए कूछ भी नहीं है। जिस संविधान ने दिल्ली में संसद की व्यवस्था की है, उसी में आदिवासी इलाकों के लिए शिड्यूल पांच भी बनाया है लेकिन किसी सरकार ने बस्तर और दूसरे आदिवासी इलाकों में इसे लागू नहीं किया। इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा। वनवासियों के अधिकार कानून तो इसी सरकार ने बनाया उसका भी कोई लाभ आदिवासियों को नहीं मिला। इस इलाके में शांति के साथ ही खनन के लिए उतावली कंपनियां मैदान में कूद पड़ेंगी। तब फिर क्या गारंटी है कि अपने शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ आदिवासी संघर्ष नहीं करेंगे। हो सकता है कि वे माओवाद का नाम लेना छोड़ दे लेकिन अपने अस्तित्व का संघर्ष नहीं करेंगे ऐसा कैसे हो सकता है। इसलिए सैनिक समाधान के स्थान पर आदिवासी क्षेत्रों में माओवादियों के विकास के सामाजिक आर्थिक पहलुओं को समझा जाए। आदिवासियों के विकास के लिए अपने मॉडल उन पर न थोपे बल्कि दूसरा विकास मॉडल लाया जाए, जिसमें आदिवासी अपनी पहचान और पूरी गरिमा के साथ जी सकें।   
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प्रेम पुनेठा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. 
मध्य-पूर्व के इतिहास और राजनीति पर निरंतर अध्ययन और लेखन. 
इनसे संपर्क के पते- prem.punetha@facebook.com और prempunetha@gmail.com


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