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रीमेक फिल्में : गुणवत्ता का गिरता ग्राफ

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उमाशंकर सिंह
-उमाशंकर सिंह

"...असल में कुछ रसोइये किसी भी चीज की चटनी बना सकते हैं और इसे उनका गुण ही माना जाना चाहिए, वैसे ही कुछ फिल्मकार किसी भी चीज की चटनी बना सकते हैं और इसे उनके अवगुण और फिल्मबोध के अभाव के अलावा कुछ नहीं माना जा सकता।..."

हते हैं समय पहली बार अपने आप को हिस्ट्री और दूसरी बार स्वांग के रूप में दोहराता है। यह बात अपने संपूर्ण और नग्न अर्थ में सबसे ज्याद एक दौर की महान और अच्छी फिल्मों और उनके रीमेक फिल्मों पर लागू होती है। पिछले कुछ वर्षों में बनी पुरानी फिल्मों के रीमेक ने हमें यह मानने पर लगभग मजबूर सा कर दिया है। साजिद खान के ‘हिम्मतवाला’ और डेविड धवन के ‘चश्मेबद्दूर’ बना और प्रदर्षित कर लेने के बाद अगर हिंदुस्तान में जागरूक दर्शक समूह और सचेत फिल्म समाज होता तो वह पुराने क्लैसिकल फिल्मों के रीमेक बनाने पर प्रतिबंध की मांग नहीं भी तो, कम से कम रीमेक बनाने के संबंध में कुछ नीति, कुछ निर्देष, कुछ संहिता और कुछ बनाने वाले फिल्मकार से न्यूनतम फिल्मी संवेदनशीलता और अर्हता की मांग जरूर करता। पर कवि शमशेर बहादुर सिंह कह गए हैं 'जो नहीं है उसका क्या गम? जैसे कि समझदारी!' 

रीमेक फिल्में अपनी मूल फिल्मों से साधारण होती हैं। इस बात को नियम की तरह कहा जा सकता है। पर जैसा कि नियम है कि नियम के साथ कुछ अपवाद भी होते हैं, वह यहां भी है। फिल्मों के रीमेक बनाने की शुरुआत भारतीय सिनेमा के जन्म के चंद वर्ष बाद ही हो गई थी, जब दादा साहब फाल्के ने 1913 बनाई गई पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ को सिर्फ चार साल बाद ही फिर से बनाया। 

हिंदी सिनेमा के इतिहास को पलट कर देखने पर एक ही सार्वकालिक निर्विवाद महान रीमेक हमें नजर आती है- ‘मदर इंडिया’।  1957 में महबूब साहब ने 17 साल पहले 1940 में खुद की ही बनाई फिल्म ‘औरत’ को फिर से बनाया। वैसे ही जैसे एक ही कविता को हम अलग-अलग वक्त में लिखते हैं और उसे और संवेदनात्मक गहराई और कलात्मक ऊंचाई देने की कोशिश करते हैं। वैसे ही जैसे विजयदान देथा ने अपनी ही कहानियों को एक लंबे समय अंतराल के बाद फिर-फिर लिखा और समय-साहित्य के सीने पर उसका अमिट निशान बना दिया। 

ऐसी जरूरत लेखकों-कलाकारों को इसलिए आन पड़ती है क्योंकि कलात्मक प्यास कितनी भी अच्छी कृति बना दें, बुझती नहीं है और बुझ गई तो खत्म हो जाती है। महबूब खान की ‘औरत’ औसत फिल्म थी और इसे वे भी स्वीकारते थे। असल में वे इसे जैसा बनाना चाहते थे वह वैसी बन नहीं पाई थी। इस बात की टीस वे महसूस करते थे और अपनी मृत्यु से महज पांच साल पहले उन्होंने अपने सपनों की फिल्म ‘औरत’ को रूपहले पर्दे पर ‘मदर इंडिया’ के नाम से टांक दिया। 

लेकिन इसके बाद जब भी रीमेक फिल्में बनी वह मूल फिल्म से कमतर ही रही, जबकि समय के विकास के हिसाब से उसे आगे की कलाकृति होनी चाहिए थी। केदार शर्मा के साथ महबूब खान वाला मामला नहीं था। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर वे इसी नाम से एक अमर फिल्म 1941 में बना चुके थे। यह उन चंद फिल्मों में थी जो किसी साहित्यिक कृति पर बनी हो और उसमें नए आयाम जोड़ती हो। साथ ही एक साथ इसमें उनने बॉक्स ऑफिस और कलात्मकता दोनों को एक साथ सफलतापूर्वक साधा था। इसके 23 साल बाद जब वे कई और सफल फिल्में बना चुके थे वे फिर ‘चित्रलेखा’ पर लौटे। अब तक वे बड़े फिल्मकार बन चुके थे। उन्हें लगता था कि चित्रलेखा में असीम संभावनाएं हैं और जिसका दोहन किया जाना है। साथ ही पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता के द्वंद्व की कहानी कहना एक बार फिर समय की मांग है। सो उन्होंने फिर से चित्रलेखा बनाई। इस बार अशोक कुमार जैसे बड़े नायक के साथ और रंगीन। लेकिन फिल्म अपने संगीत के लिए जितनी याद की जाती है उतना बेहतर  फिल्म के रूप में नहीं की जाती। 
देवदास पर बनी विभिन्न फिल्मों के बारे में बनी एक मोटी और काफी हद तक सही धारणा है कि इस पर बनी तमाम फिल्म क्रमशः थोड़ी-थोड़ी डिग्रेड होती गई। बीसी बरूआ की केएल सहगल अभिनीत देवदास (1936) से लेकर, बिमल रॉय की दिलीप कुमार अभिनीत देवदास (1955), भंसाली की शाहरूख खान अभिनीत (2002) और अनुराग कश्यप की अभय देओल अभिनीत तक देवडी (2009) तक। (इस बारे में विद्वानों में मतभेद हो सकता है। वैसे विद्वानों में किसी भी बात पर मतभेद हो सकता है) 

विधुविनोद चोपड़ा की ‘परिणीता’ अच्छी फिल्म थी पर उसके बारे में भी यही कहा जा सकता है। उसके बाद बनी रीमेक फिल्मों ने मूल फिल्मों के साथ छेड़खानी करने या उसके रद्दी संस्करण होने का ही काम किया। करण जौहर की करण मल्होत्रा निर्देषित ‘अग्निपथ’ ने पैसे भले ही मुकूल आनंद निर्देषित मूल फिल्म से ज्यादा बनाए हों और सौ करोड़ी हो गया हो, पर मूल फिल्म में व्यक्त प्रतिरोध और प्रतिषोध की सघन भावना को वह छू भी नहीं पाया। मुकूल आनंद के विजय (अमिताभ) का 1990 में बोला गया यह डायलॉग कि ‘मैं अपने मौत की तारीख अपनी डायरी में लिख कर चलता हूं’ आज तक लोगों के जेहन में तारी है। 

राम गोपाल वर्मा ने ‘शोले’ की आत्मा जैसे अपनी ‘आग’ में जला डाली थी, डेविड धवन ने ‘चश्मेबद्दूर’ के हास्य को उसी तरह फूहड़ और द्विअर्थी चुटकुलों में रिड्यूस कर दिया। ऐसे चुटकुले हम कॉमेडी सर्कस में देख लेते हैं उसके लिए अलग फिल्म बनाना तच्छ महत्वाकांक्षाओं के लिए अपना और दूसरों का समय, संसाधन और ऊर्जा बर्बाद करना ही है। साजिद खान की ‘हिम्मतवाला’ के बारें में यहां क्या, कहीं भी बात करना वक्त और स्पेश खराब करना की कहा जाएगा, सो उसे छोड़ते हैं। 

असल में कुछ रसोइये किसी भी चीज की चटनी बना सकते हैं और इसे उनका गुण ही माना जाना चाहिए, वैसे ही कुछ फिल्मकार किसी भी चीज की चटनी बना सकते हैं और इसे उनके अवगुण और फिल्मबोध के अभाव के अलावा कुछ नहीं माना जा सकता। बहरहाल गुरुदत्त के ‘साहब, बीवी और गुलाम’ की अनाधिकारिक रीमेक तिंग्मासू धूलिया की ‘साहब बीवी और गैंगेस्टर’ (एक-दो दोनों) जरूर ऐसी रीमेक फिल्मों के बीच उस भरोसे की तरह है जो कहती है नहीं, अच्छी रीमेक फिल्में भी बन सकती हैं बस कोशिश तो समझदारी और न्यनतम फिल्मबोध से करो यारों!   

(फारवर्ड प्रेस पत्रिका के मई अंक से साभार) 

उमाशंकर पत्रकार भी हैं और कहानीकार भी. 

 आज-कल फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिख रहे हैं.

 इनसे uma.change@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं

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