-रोहित जोशी
"...इस ख़बर से लगता है कि वाकई हम 2013 के सबक भूल गए हैं. हम हिमालय के संवेदनशील भूगोल में एक ऐसी जगह पर 116 वर्ग किमी की एक विशाल झील बनाने की तैयारी कर रहे हैं, जिसने हालिया इतिहास में अपनी दोनों तरफ प्रलयंकारी आपदाएं झेली हैं. एक ओर 2013 में बाढ़ की विभीषिका तो दूसरी ओर 2015 में नेपाल में 7.8 मैग्नीट्यूट का विनाशकारी भूकंप. दोनों ही तरफ इन आपदाओं के घाव अब भी ताज़ा हैं. लेकिन उनके सबक को भूला जा रहा है...."
आपदा तब आती है, जब आप उसे भूल जाते हैं!
फिर एक जापानी कहावत को दोहराने का दिल कर रहा है जिसका ज़िक्र मैंने कुछ समय पहले अपने एक आलेख में किया था. यह कहावत है, “आपदा तब आती है, जब आप उसे भूल जाते हैं!” यहां यह याद रखना चाहिए कि यह कहावत उस देश के अपने अनुभवों/सबक से उपजी है जो कि भूकंप की आपदा के लिहाज़ से सबसे संवेदनशील देश रहा है.
2013 में आये भयानक प्रलय की स्मृतियाँ शायद अब धूमिल होती जा रही हैं. हम उसे भूलते जा रहे हैं. कम से कम जिस आशय में उपरोक्त कहावत में यह बात कही गई है उस आशय में तो हम 2013 की आपदा को भूल चुके हैं.
2013 की प्रलयंकारी बाढ़
2013 का मानसून समूचे उत्तराखंड में प्रलयंकारी बाढ़ लेकर आया था. जिसमें आधिकारिक तौर पर 4000 से अधिक लोगों की जानें चली गई थीं और कई स्वतंत्र संस्थाओं का मानना है कि यह संख्या 10 हज़ार से ऊपर थी, क्योंकि आधिकारिक आंकड़ों में केदारनाथ और दूसरे प्रभावित इलाकों में उस दिन मौजूद कई लोगों को दर्ज नहीं किया गया था. मसलन साधू, भिखारी, नेपाली मजदूर या इस तरह के सरकारी दस्तावेजों में दर्ज न हो पाए लोगों की भी वहां एक बड़ी तादात थी.
यह हालिया इतिहास में आई कुछ बड़ी आपदाओं में से एक थी जिसने राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय मीडिया और दूसरी एजेंसियों का ध्यान भी अपनी और खींचा. आपदा के बाद बचाव और राहत का एक लम्बा सिलसिला चला. साथ ही यह बहस भी शुरू हुई थी कि इस आपदा को कैसे देखा जाय. क्या यह वाकई एक प्राकृतिक आपदा थी? या मानवीय हस्तक्षेप ने एक प्राकृतिक घटना को भीषण आपदा में बदल दिया?
2013 के सबक
दिसंबर 2014 में भारत सरकार (वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय) ने पहली बार सुप्रीमकोर्ट में दाखिल अपने एक हलफनामे में स्वीकारा कि 2013 की आपदा की भयावहता को बढ़ाने में हिमालय में अपनाया जा रहा ‘विकास मॉडल’ ज़िम्मेदार रहा है. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के आग्रह पर 2013 की आपदा की पड़ताल के लिए मंत्रालय द्वारा गठित 13 विशेषज्ञों की रवि चोपड़ा कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में विस्तार से इस बात का ज़िक्र किया था कि कैसे अनियंत्रित ढंग के विकास मॉडल -जिसमें बाँध परियोजनाएं, अवैज्ञानिक ढंग से बनाई जा रही चौड़ी सड़कें, अनियंत्रित पर्यटन आदि शामिल हैं- ने मिलकर इस आपदा की भयावहता को बढ़ाने का काम किया.
बाद में मंत्रालय की ओर से गठित एक अन्य समिति विनोद तारे कमिटी ने भी तकरीबन रवि चोपड़ा कमिटि की बात को ही दोहराया. (हालाँकि सुप्रीम कोर्ट में मंत्रालय द्वारा दाखिल हलफनामे में विनोद तारे कमिटी की रिपोर्ट को गलत तरह से पेश किये जाने का मामला भी सामने आया था.)
2013 की आपदा ने उत्तराखंड और दूसरे हिमालयी राज्यों में अपनाए जा रहे विकास मॉडल पर सवालिया निशान लगाया था और एक नए चिंतन को जन्म दिया था कि इन हिमालयी राज्यों में विकास का जन और पर्यावरण सम्मत कौनसा मॉडल अपनाया जा सकता है? खुद सुप्रीमकोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर आपदा के बाद इस मसले पर जिस बहस को आगे बढ़ाया था वह बहस भटकते हुए उन 6 प्रस्तावित परियोजनाओं की पर्यवरणीय मंजूरियों की बहस में खो गई जिन्हें आपदा के आ जाने के चलते रोक दिया गया था. अन्यथा इन्हें शुरू हो जाना था.
2013 की आपदा का सबक था कि हिमालयी राज्यों में अपनाया जा रहा ‘विकास मॉडल’ न सिर्फ जन एवं पर्यावरण विरोधी है जबकि यह प्रलयंकारी विनाश भी ला सकता है. लेकिन कुछ ही सालों में इस सबक की अनदेखी की जा रही है.
‘पंचेश्वर बाँध’ की सुगबुगाहट
इस भयानक हादसे के अभी कुछ ही साल गुजरे हैं. मानसून का वही मौसम है. पहाड़ों में कभी रिमझिम तो कभी तेज़ बरसात के बीच बाढ़ से लेकर भूस्खलनों की चपेट में आए लोगों की ख़बरें भी रिस-रिस कर आ रही हैं. लेकिन इन सब पर भारी जो खबर पहाड़ की फिज़ाओं में इन दिनों तैर रही है वह है दुनिया के दूसरे सबसे ऊँचे और एशिया के सबसे बड़े बाँध, “पंचेश्वर बांध” की तैयारियों की सुगबुगाहट. ‘पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना’ की डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट (DPR) तैयार कर ली गई है और 9, 11 और 17 अगस्त को चम्पावत, पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा ज़िलों में ‘पंचेश्वर बाँध’ की ‘पर्यावरणीय मंज़ूरी’ के लिए ईआईए अधिसूचना के अनुसार ‘जन सुनवाइयां’ निर्धारित की गई हैं.
जो ‘जन’ प्रभावित होना है उसकी बहुतायत को अभी भी इन ‘जन सुनवाइयों’ की खबर नहीं है ना ही उन्हें यह अंदाज़ा है कि ‘जन सुनवाई’ में अपना पक्ष कैसे रखा जाय.
इस ख़बर से लगता है कि वाकई हम 2013 के सबक भूल गए हैं. हम हिमालय के संवेदनशील भूगोल में एक ऐसी जगह पर 116 वर्ग किमी की एक विशाल झील बनाने की तैयारी कर रहे हैं, जिसने हालिया इतिहास में अपनी दोनों तरफ प्रलयंकारी आपदाएं झेली हैं. एक ओर 2013 में बाढ़ की विभीषिका तो दूसरी ओर 2015 में नेपाल में 7.8 मैग्नीट्यूट का विनाशकारी भूकंप. दोनों ही तरफ इन आपदाओं के घाव अब भी ताज़ा हैं. लेकिन उनके सबक को भूला जा रहा है.
‘पंचेश्वर बाँध’ का ज़िन्न कैसे निकला बाहर?
दुनिया भर में अतीत की चीज़ मान लिए गए विशाल बांधों में से एक 'पंचेश्वर बांध' के ज़िन्न को इस बार बाहर निकाला, भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री की 2014 में हुई दो नेपाल यात्राओं ने। इस पर मेरी नज़र तब गई जब प्रधानमंत्री द्वारा सार्क सम्मलेन के लिए किये गए नेपाल दौरे के बाद भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने काठमांडू में एक प्रेस कांफ्रेंस कर कहा, ''प्रधानमंत्री की 100 दिनों के भीतर हुई दो नेपाल यात्राओं के दौरान नेपाल के साथ 25-30 सालों से अटके कई महत्वपूर्ण मसले आगे बढ़े हैं.''
हालांकि इस प्रेस कांफ्रेंस में 'पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना' का सीधे ज़िक्र तो नहीं किया गया था लेकिन क्योंकि मैं उसी भूगोल से आता हूं जो इस बांध का प्रभावित क्षेत्र है तो मेरी स्वाभाविक रुचि यह जानने में थी कि प्रधानमंत्री की इन दो यात्राओं के दौरान 'पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना' पर क्या बात हो रही है। मैंने भारत के जल संसाधन मंत्रालय और नेपाल के उर्जा मंत्रालयों की वैबसाइट्स खंगाली तो सब सामने था। दोनों देशों की ओर से 10-10 करोड़ रुपये मिलाकर 'पंचेश्वर विकास प्राधिकरण' बना दिया गया था जिसका काम परियोजना की डीपीआर बनाना और पर्यावरणीय मंजूरी की प्रक्रियाओं को आगे बढ़ाना था। जनसुनवाई की घोषणा के बाद अभी शुरू हुई चर्चाओं की हालिया पृष्ठभूमि यह है।
विकास की अविकसित समझ
2014 में इसी दौरान मैंने पंचेश्वर पर एक रिपोर्ट के सिलसिले में भारत में बांधों के विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर से बात की तो उस वक्त उनका कहना था, “पिछले कई सालों से भारत नेपाल में विघुत परियोजनाएं बनाने की कोशिशें कर रहा है लेकिन एक छोटी सी भी परियोजना अबतक नहीं बन पाई है. मुझे नहीं लगता कि इतनी बड़ी परियोजना बन पाएगी. दोनों तरफ़ प्रभावित इलाक़ों से बड़ा विरोध चल रहा है.''
हिमांशु ठक्कर का यह अनुमान वैश्विक स्तर पर बड़े बांधों के खिलाफ तकरीबन साझे तौर पर बनी एक समझ के अनुरूप ही था. क्योंकि दुनिया के सारे विकसित देश बड़े बांधों को तोड़ रहे हैं और ऊर्जा के दूसरे जन एवं पर्यावरण पक्षीय विकल्पों की तरफ बढ़ रहे हैं. लेकिन पंचेश्वर जैसे दुनिया के दूसरे सबसे ऊँचे बाँध की कवायद अब पर्यावरणीय मंज़ूरी के अपने अंतिम चरण में है और उसके बाद इसका निर्माण कार्य शुरू हो जाएगा.
यह वैश्विक समझ के प्रति नासमझ एक अति महत्वाकांक्षी प्रधानमन्त्री के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार के चलते संभव हुआ है कि इतने संवेदनशील हिमालय में इतनी विशालकाय परियोजना स्थापित की जा रही है. भारत में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का तथाकथित 'विकास' परियोजनाओं को लेकर स्पष्ट रुझान है।
क्लियेरेंस मंत्रालय में बदला वन एवं पर्यावरण मंत्रालय
इसी के चलते अपने पिछले तकरीबन तीन सालों के कार्यकाल में उनकी सरकार के पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने लगभग बिना किसी रोकटोक के सारी ही प्रस्तावित परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंजूरियां दे दी हैं। मई 2016 में, मौजूदा सरकार के तत्कालीन पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने घोषणा की कि- उनके मंत्रालय ने पिछले दो सालों के भीतर 10 लाख करोड़ की कीमत की 2000 परियोजनाओं को मंजूरी दी। साथ ही पर्यावरणीय मंजूरियों को जारी करने के औसत इंतज़ारी/भारित समय को 599.29 दिनों से घटा कर 192.59 दिन तक ले आए।
प्रधानमंत्री मोदी विकास की हूबहू वही समझ रखते हैं जो इससे पूर्वत सरकार की थी। कथित तौर पर पिछड़े लेकिन प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण इलाकों को यह समझ हर संभव मुनाफे को निचोड़ लेना चाहती है। पंचेश्वर का यह महत्वाकांक्षी बाँध भी इसी समझ की परिणति है। जिसमें 2013 की आपदा के सबक की भरपूर अनदेखी की जा रही है और प्रभावित होने वाले ग्रामीणों के प्रश्न गौण हैं।
कुछ समय पूर्व ‘नैनीताल समाचार’ ने उत्तराखण्ड की नदियों पर प्रस्तावित छोटे-बड़े बाँधों को काले धब्बे से दर्शा कर एक नक्शा प्रकाशित किया था। सैकड़ों बाँधों से लगभग पूरा नक्शा ही काला हो गया था। बाँधों से उभरी यह कालिख प्रतीकात्मक रूप में तथाकथित ऊर्जा प्रदेश के भविष्य को भी रेखांकित करती है। 2013 की आपदा को याद रखते हुए हमें जापान की इस कहावत के मर्म को नहीं भूलना चाहिए, “आपदा तब आती है जब हम उसे भूल जाते हैं!”