Quantcast
Channel: पत्रकार Praxis
Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

रोहिंग्या मुसलामानों का प्रश्न

$
0
0
-रुपेश पाठक
रुपेश पाठक
"...रोहिंग्या मुसलमान खु़द को अराकान प्रदेश का पुराना निवासी मानते हैंजबकि म्यांमार की सरकार उन्हें अपनी नस्ल का ही नहीं मानती है. 1978 में हुई जातीय हिंसा के बाद लाखों रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश में शरणार्थी बन कर रह रहे हैं. म्यांमार की कुल आबादी में मुसलमान मात्र फ़ीसदी हैंजबकि बौद्ध धर्म को मानने वाले 89 फ़ीसदी हैं. अभी हाल में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा कि म्यांमार के अधिकारियों के लिए यह ज़रूरी है कि वह रोहिंग्या मुसलमानों की नागरिकता की मांग को पूरा करने के साथ-साथ इस अल्पसंख्यक समुदायों की वैधानिक शिकायतों को दूर करने के लिए आवश्यक क़दम उठाएं..." 


म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों के कारण पलायन करके दिल्ली आ बसे 195 रोहिंग्या मुसलमान वापस जाना नहीं चाहते हैं. ये सभी लोग दक्षिण-पूर्व दिल्ली से लगे जैतपुर की झुग्गियों में पिछले एक वर्ष से कठिन हालात में जीवन काट रहे हैं. जैतपुर में रोहिंग्या समुदाय का आवास किसी भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है और यहां महिलाओं और बच्चों का जीवन बहुत कष्टप्रद है. यही हाल आंध्र प्रदेश के हैदराबाद के पुराने शहर में रह रहे लगभग 250 रोहिंग्या मुस्लिमों का भी हैं, ये सभी जान बचाते हुए भारत की सीमा में प्रवेश कर गए. 

हैदराबादकी एक स्वयंसेवी संस्था 'कन्फ़ेडरेशन ऑफ वालेंटरी एसोसिएशन' इन्हें शरणार्थी का हक़ दिलाने का प्रयास कर रही है. दिल्ली के वसंत विहार इलाके में सुल्तान गढ़ी मस्जि़द के पास भी कऱीब 2000 रोहिंग्या मुस्लिम रह रहे हैं और कितने ही आसपास के राज्य़ों में चले गए हैं. वापस जाने के नाम से ही भयभीत बीस वर्षीय जास्मिन कहती हैं, हम मर जाएंगे लेकिन बर्मा वापस नहीं जाएंगे. वहां जिंदगी वास्तव में नर्क है. यहां भी जीवन इतना आसान नहीं है, लेकिन बर्मा से काफ़ी बेहतर है. यहां हमें कोई परेशान नहीं करता है. म्यांमार के रखिने प्रांत (अराकान) में हिंसा तेज़ होने के बाद मई 2012 में रोहिंग्या मुसलमानों के एक बड़े समूह ने बांग्लादेश होते हुए भारतीय सीमा में प्रवेश किया था. 

रोहिंग्यामुसलमानों को बर्मा के 135 नस्लीय समूहों में शामिल नहीं किया जाता है. उनके साथ बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों जैसा व्यवहार किया जाता है. वहीं बांग्लादेश में उन्हें म्यांमारी कहकर ख़ारिज कर दिया जाता है. इसके परिणामस्वरूप उन्हें बिना किसी नागरिक अधिकारों के रहना पड़ता है. रोहिंग्या समुदाय के लोग संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संस्था से पूर्ण शरणार्थी का दर्जा चाहते हैं. सैकड़ों शरणार्थियों ने दक्षिणी दिल्ली के वसंत विहार स्थित यूएनएचसीआर के मुख्यालय के बाहर प्रदर्शन किया था. म्यांमार के 1982 के संविधान के अनुसार रोहिंग्या मुसलमान क़ानूनी तौर पर म्यांमार के नागरिक नहीं रह गए और इसलिए उनके पास कोई नागरिक अधिकार भी नहीं हैं. रोहिंग्या मुसलमानों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजग़ार, संपत्ति का अधिकार तो है ही नहीं. उन्हें विवाह के लिए भी सरकारी अनुमति चाहिए और एक परिवार केवल दो बच्चे पैदा कर सकता है. 

संयुक्तराष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, रोहिंग्या मुसलमान दुनिया का सबसे ज्यादा पीडि़त समुदाय है. म्यामांर के अधिकारी और मीडियाकर्मी रोहिंग्या लोगों को अवैध बंगाली समझते हैं. इस ग़लत वर्गीकरण का एक राजनीतिक उद्देश्य है. इस जानबूझकर गढ़े गए झूठ के बल पर रोहिंग्या जनसमुदाय को बलात देश निकाला देने की योजना बनाई जा रही है. वास्तविकता यह है कि पिछले वर्ष म्यांमार के राष्ट्रपति थेन सीन ने संयुक्त राष्ट्र संघ को यह प्रस्ताव दिया था कि वे रोहिंग्या समुदाय को किसी भी ऐसे अन्य देश में भेजने को तैयार हैं जो उन्हें स्वीकार करता है. लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ ने इससे इंकार कर दिया था.  

इतिहासकारोंकी मान्यता है कि रोहिंग्या मुसलमानों का मूल एतिहासिक स्थल रोहांग है, जिसे आज आधिकारिक तौर पर रखिने या अराकान के नाम से जाना जाता है. यदि ऐतिहासिक प्रामाणिकता के लिहाज़ से देखा जाए तो ये लगता है कि रोहिंग्या बर्मा के मूल निवासी हैं. सन1700 के आसपास में बर्मा ने रखिने पर क़ब्ज़ा कर लिया था. 20वीं शताब्दी के पहले 50 वर्षों तक अराकान के मूल निवासियों को सस्ते एवं जबरिया मज़दूर के रूप में बंगाल एवं भारत के विभिन्न हिस्सों में भेजा गया और वे वहां स्थाई रूप से बस गए. 'शक्ति संतुलन' अपने पक्ष में न होने से अराकान की 8 लाख रोहिंग्या जनसंख्या बिना किसी क़ानूनी अधिकार के चलते सरकार, सेना और बहुसंख्यक जनता द्वारा नस्लीय हिंसा का शिकार होती चली गई. 

अबतक की सबसे भीषण हिंसा पिछले वर्ष जून से अक्टूबर के मध्य में हुई. बौद्धों को भी इस हिंसा की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी, लेकिन अलग-थलग पड़े और जीवन की किसी सुरक्षा की सुनिश्चितता के बगैऱ मौजूद रोहिंग्या समुदाय को सर्वाधिक नुक़सान झेलना पड़ा था. बौद्ध देश म्यांमार में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों के खि़लाफ़ गुटीय हिंसा में बड़ी संख्या में लोग मारे गए और कऱीब एक लाख 40 हजार लोग बेघर हो गए. इस हिंसा का कारण यह अफ़वाह थी कि मुस्लिम समुदाय एक मस्जिद बनाने की योजना बना रहा है.  कुछ लोगों का मानना है कि यह स्थिति म्यांमार के राजनीतिक सुधारों के लिए ख़तरा है, क्योंकि इससे सुरक्षा बलों फिर से नियंत्रण स्थापित करने का बहाना मिल सकता है. 

रोहिंग्या मुसलमान खु़द को अराकान प्रदेश का पुराना निवासी मानते हैं, जबकि म्यांमार की सरकार उन्हें अपनी नस्ल का ही नहीं मानती है. 1978 में हुई जातीय हिंसा के बाद लाखों रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश में शरणार्थी बन कर रह रहे हैं. म्यांमार की कुल आबादी में मुसलमान मात्र 4 फ़ीसदी हैं, जबकि बौद्ध धर्म को मानने वाले 89 फ़ीसदी हैं. अभी हाल में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा कि म्यांमार के अधिकारियों के लिए यह ज़रूरी है कि वह रोहिंग्या मुसलमानों की नागरिकता की मांग को पूरा करने के साथ-साथ इस अल्पसंख्यक समुदायों की वैधानिक शिकायतों को दूर करने के लिए आवश्यक क़दम उठाएं.  

दूसरीतरफ़, जब म्यांमार में सांप्रदायिक हिंसा से भाग रहे रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश का रुख़ कर रहे थे तब बांग्लादेश की समुद्री पुलिस ने नावों से आ रहे 600 से ज्यादा लोगों को वापस भेज दिया. इनमें ज्य़ादातर महिलाएं और बच्चे थे. ढाका में मौजूद सरकार का कहना था कि वे और लोगों को शरण नहीं दे सकते, क्योंकि उनके देश के दक्षिण पूर्वी हिस्से में पहले से ही तीन लाख से ज्य़ादा रोहिंग्या लोग रह रहे हैं. इन्हें आज तक बांग्लादेश ने न कोई सुविधा दी है और ना ही अपना नागरिक माना है. बांग्लादेश के मुताबिक़, रोहिंग्या सदियों से म्यांमार में रह रहे थे. 1990 में करीब ढ़ाई लाख रोहिंग्या ने म्यांमार के सैन्य शासन से बचने के लिए बांग्लादेश में शरण ली थी. म्यांमार के राखिने प्रदेश की सीमा बांग्लादेश के साथ जुड़ी हुई है. जबकि म्यांमार का कहना है कि रोहिंग्या बांग्लादेश से आए गैऱ-क़ानूनी प्रवासी हैं और इसलिए उन्हें अब तक म्यांमार की नागरिकता नहीं दी गई है.  

ह्यूमनराइट्स वॉच ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसका शीर्षक है, 'बर्मा के अराकान राज्य में मानवता के विरुद्ध अपराध और रोहिंग्या मुसलमानों का दमन'. कई दस्तावेज़ों के आधार पर तैयार की गई 153 पृष्ठों की इस रिपोर्ट के मुताबिक़, रोहिंग्या मुसलमानों पर हमलों को रोकने के लिए म्यांमार के अधिकारियों और सुरक्षा बलों द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया. कभी-कभी तो सरकारी अधिकारी ख़ुद ऐसे हमले करने के लिए स्थानीय लोगों को उकसाते हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल अक्टूबर महीने में तलवारों, बंदूक़ों और देशी बमों से लैस बौद्ध चरमपंथियों ने उन गांवों पर हमले किए थे जिनमें मुख्य रूप से रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं. लेकिन इन हमलावरों को रोकने के लिए सुरक्षा बलों द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया था. कुछ सैनिकों ने तो मुसलमानों के विरुद्ध इन दंगों में स्वयं भाग लिया था. 

रोहिंग्या मुसलमानों की भाषा बांग्लादेश के चटगांव में बोली जाने वाली भाषा के समान ही है, पर भाषा की समानता भी बहुत कारगर नहीं है. मई 2012 में म्यांमार में फैली जातीय हिंसा के बाद बांग्लादेश ने अपनी म्यांमार सीमा सील कर दी, जिससे कोई शरणार्थी उसके यहां ना घुस पाए. बांग्लादेश ने शरणार्थियों के लिए काम करनेवाली तीन बड़ी संस्थाओं को पहले से मौजूद म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों की मदद करने से भी रोक दिया.  ऐसे भी दस्तावेज़ उपलब्ध हैं जिनमें थाइलैंड, इंडोनेशिया, बांग्लादेश एवं अन्य स्थानों तक अपने साहस से पहुंचे रोहिंग्या शरणार्थियों को वहां की पुलिस ने समुद्र में खदेड़ दिया. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी ने बताया है कि करीब 13000 रोहिंग्या शरणार्थी जिन्होंने सन् 2012 में तस्करों की नावों से बंगाल की खाड़ी द्वारा म्यांमार छोड़ने का प्रयास किया था, उनमें से कम से कम पांच सौ डूब गए. 

यह स्थिति दक्षिण पूर्वी एशिया (असियान) के देशों के लिए भी हानिकारक है, लेकिन ये सभी देश दिखावटी सुधार के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं. वहीं अमेरिका की अगुवाई में पश्चिमी देश भी म्यांमार की आर्थिक-प्राकृतिक संपदा को आपस में बांटने को तो तत्पर हैं, लेकिन वे मानवाधिकारों के मुद्दे पर कुछ भी नहीं कह रहे हैं. उन्हें छोटे-मोटे लोकतांत्रिक सुधार ही महत्वपूर्ण लग रहे हैं और इसी बहाने पश्चिमी हथियारों की आवक भी बर्मा में बदस्तूर जारी है. जो भी विदेशी नेता यहां आ रहे हैं वे इस संघर्ष को म्यांमार का आंतरिक मामला बता कर कन्नी काट रहे हैं. इस संदर्भ में मज़ेदार बात यह है कि यूरोपीय संघ ने म्यांमार पर लगे प्रतिबंध को हटाने का फै़सला तब किया जब इस देश के संबंध में अमरीका की नीति भी बदल गई. अतीत में वाशिंगटन ने इस देश के विरुद्ध कड़े प्रतिबंध लगाए थे. बाद में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ख़ुद म्यांमार का दौरा किया और इस देश में अमरीकी कंपनियों की वापसी का स्वागत किया. 

मानवाधिकारोंऔर लोकतांत्रिक अधिकारों संबंधी अमरीकी विदेश विभाग की वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया कि म्यांमार दुनिया के उन चंद देशों में शामिल हो गया है जो स्वतंत्रता तथा लोकतांत्रिक अधिकारों के विस्तार के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं. म्यांमार में अमेरिकी सरकार की दिलचस्पी उसकी भू-राजनैतिक स्थिति के साथ-साथ तेल व गैस के भंडार के और अन्य विपुल प्राकृतिक संसाधनों के कारण भी है. म्यांमार की नेता आंग सांग सू की, की नजऱबंदी को समाप्त करना, सैनिक शासन को औपचारिक तौर पर ख़त्म करना आदि ऐसे क़दम रहे हैं जिसके लिए म्यांमार के शासकों पर बाहरी व भीतरी दबाव था. ये सबकुछ हो जाने के बाद दुनिया के देशों का म्यामांर के प्रति नज़रिया बदल गया है और उन्हें वहां रोहिंग्या मुसलमानों पर बढ़ता हुआ हमला नहीं दिख रहा है. लोकतंत्र समर्थक कद्दावर नेता और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सांग सू की भी चुप हैं.
रुपेश पत्रकार हैं. अभी एक मासिक पत्रिका में काम.

इनसे संपर्क का पता rupesh.iimc@gmail.com है.

Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

Trending Articles