"...बहरहाल तमाम बहस के बावजूद आप छात्रों में लैपटॉप वितरण को एक बार स्वीकार भी कर लें पर चुनावी साल में पत्रकारों को एक साथ लैपटॉप बांटना कैसे पचा पाएंगे। राजस्थान की गहलोत सरकार ने यह कमाल कर दिखाया है। सरकार ने पंद्रह सौ सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकारों की सूचि जारी की है जिन्हें मुफ्त लैपटॉप दिए जाने की घोषणा की गई है। इससे पहले पत्रकारों के लिए औने-पौने दामो पर आवासीय भूखंडो का वितरण अजमेर और जयपुर में हुआ है. अचानक चुनावी साल में बेचारे झोलाछाप पत्रकारों पर महान मुख्यमंत्री की इस असीम अनुकम्पा का कारण क्या साफ़ नजर नहीं आता?..."
शासक वर्ग विकास के उन्ही पैमानों को गढ़ता या मान्यता देता है जिसमे उसके हित निहित हों। मसलन यदि सड़क बनाने में उसका फायदा है तो वो अच्छी सड़को को विकास के पैमाने के रूप में प्रचारित करेग। वाजपेयी सरकार के समय जिस धुँआधार गति से सड़को का निर्माण हुआ था वो आम जनता से अधिक सत्तापोषित निर्माण क्षेत्र के दैत्यों के हित में था। इतिहास के पन्ने पलटने पर हम देखते हैं दूरसंचार और रेल परिवहन का शुरुवाती विकास भारतियों को सभ्य बनाने के नाम पर साम्रराज्यवादी सत्ता को मजबूत करने के लिए हुआ।
मेधावी छात्रो को लैपटॉप देना स्वागतयोग्य कदम है। सूचना क्रांति की जड़ में जितने अधिक लोग आएंगे यह सूचनाओं के लोकतंत्रीकरण के लिए उतना ही बेहतर होगा। लेकिन क्या छात्रो को लैपटॉप बाँट देने को विकास का पर्याय बनाया जा सकता है? एक उदहारण से अपनी बात स्पष्ट करता हूँ। अखिलेश सरकार द्वारा लैपटॉप वितरण के २ रोज बाद ही दैनिक अखबारों में खबर आती है की बच्चे लैपटॉप बेचने के लिए दुकानों पर पहुचने लगे। लैपटॉप उनके जीवन की बुनियादी जरुरत नहीं है।सूचना क्रांति से जुड़ने से ज्यादा महत्वपूर्ण मसाला उनके लिए स्कूल बैग, वर्दी और स्टेशनरी है। लेकिन सत्ता के लिए लैपटॉप बांटना फायदे का सौदा है। सरकारें ये सोचती हैं की जनता लैपटॉप और चुनावी साल की आर्थिक सहायताओं की चकाचौंध में पड़ कर उनको कायम रखेगी। इससे शिक्षा और रोजगार जैसे बुनियादी मसलों से मुठभेड़ यदि टाली जा सके तो इससे अधिक फायदेमंद उनके लिए क्या हो सकता है? इस लिए अब उत्तर प्रदेश से शुरू हो कर राजस्थान, मध्य-प्रदेश, असाम जैसे पिछड़े और बीमारू राज्यों में विकास की डिजिटल इबारत लिखी जा रही हैं। यहाँ सीधा सा सवाल यह खड़ा होता है की विकास किसे माना जाए, स्तरीय मुफ्त सार्वभौम शिक्षा को या फिर मुफ्त लैपटॉप वितरण को जिसका बड़ा हिस्सा निजी स्कूल में पढ़े सुविधा संपन्न तबके के छात्रों के पास जा रहा है?
बहरहालतमाम बहस के बावजूद आप छात्रों में लैपटॉप वितरण को एक बार स्वीकार भी कर लें पर चुनावी साल में पत्रकारों को एक साथ लैपटॉप बांटना कैसे पचा पाएंगे। राजस्थान की गहलोत सरकार ने यह कमाल कर दिखाया है। सरकार ने पंद्रह सौ सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकारों की सूचि जारी की है जिन्हें मुफ्त लैपटॉप दिए जाने की घोषणा की गई है। इससे पहले पत्रकारों के लिए औने-पौने दामो पर आवासीय भूखंडो का वितरण अजमेर और जयपुर में हुआ है. अचानक चुनावी साल में बेचारे झोलाछाप पत्रकारों पर महान मुख्यमंत्री की इस असीम अनुकम्पा का कारण क्या साफ़ नजर नहीं आता?
लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ मीडिया को माना जाता रहा है. क्योंकि जनमत निर्माण में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। ऐसे में सरकारें हमेशा मीडिया को खरीद लेने के प्रयास में लगी रहती है (और इसमें ज्यादा मशक्कत की जरुरत नहीं पड़ती क्योंकि मीडिया खुद बिकने को तैयार रहती है). लोकतंत्र में मीडिया की निष्पक्षता को बनाये रखने के लिए दूसरे प्रेस आयोग ने अपनी सिफारिशों में सख्त लहजे में कहा था कि पत्रकारों को सरकार की तरफ से मुहैय्या करवाई जाने वाली सरकारी रियायतों और सुविधाओं को बंद कर दिया जाना चाहिए। सस्ते भूखंड, रियायती दरों पर मकान और प्रेस कॉन्फ्रेंसों में मिलने वाले उपहार इन्हें किस नज़रिए से देखा जाए? क्या ये सरकार की तरफ से मीडियाकर्मियों को दी जाने वाली रिश्वत नहीं है?
इसबंदरबांट का एक और पहलू भी है,लैपटॉप वितरण में पत्रकारों के चुनाव का कोई निश्चित पैमाना भी नहीं तय है. राजस्थान के एक बड़े अख़बार के मालिक के परिवार के सात सदस्यों का नाम सूचि में है। इसके अलावा कई अवकाशप्राप्त जनसंपर्क अधिकारी भी इस सूचि की शोभा बढ़ा रहे हैं। वितरण का आधार, बजट और प्रक्रिया में भारी झोल है।
वैसेचुनावी साल होने के कारण राज्य में पिछले छः महीनो से भरपूर आर्थिक सहायता बांटी जा रही हैं। पेंशन, छात्रवृति, लैपटॉप और अन्य आर्थिक सहायताओं के नाम बेतरतीबी से खजाने खाली किये जा रहे है। इन प्रक्रियाओं में इतनी अनियमितताएं हैं कि जाँच के डर से प्रशासनिक तबका अभी से सहमा हुआ है।
अपनीविजय सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक खजाने को जिस गति से खली किया जा रहा है उसके राज्य की अर्थव्यवस्था पर कैसे दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे? राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली हम सब जानते हैं। जिसमे राजस्थान बिमारू राज्यों की क़तार में खड़ा है। ऐसे में अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए जिस अश्लीलता से सार्वजनिक धन का दुरूपयोग हो रहा है वो किसकी मिल्कियत है? क्या यह उस मेहनतकश जनता की मिल्कियत नहीं जो कि माचिस की डिबिया पर भी कर की अदायगी कर रही है?
आजादीमें लगभग सात दशक के बाद राजनैतिक विकास के चरण में जिस लोकतंत्र पर खड़े हैं वहां अक्सर आजादी और लोकतंत्र दोनों के बेमायने हो जाते हैं। चुनाव हमारे यहाँ वोट खरीदने की मंडी बनते जा रहे हैं।साथ ही जिस तेजी से ये प्रक्रिया आगे बढ़ रही वो और अधिक चिंता का विषय है। शिक्षा, रोजगार, खाद्य-सुरक्षा, जैसे बुनियादी मुद्दे इस लोकतंत्र के इतिहास में कितने दफे बहस के मुद्दे बने। दलितों, आदिवासीयों, महिलाओं को हम कितना हिस्सा सत्ता में दे पाए? आज अगर सरकारे चुनावी साल में लोक-लुभावन वायदों और उपहारों और आर्थिक सहायताओं का इंद्रजाल बुन कर खुद कायम रखने के सपने देखती हैं और सत्तर फीसदी आबादी बुनियादी सुविधाओं से नाशाद है तो इस लोकतंत्र के बारे में फिर से सोचे जाने की जरुरत है।
विनय, पत्रकार praxis से सक्रिय रूप में जुड़े हैं.
इनसे vinaysultan88@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है .